होली

Holika Dahan

 – गोपाल माहेश्वरी

फागुन का महिना आरंभ होते ही बच्चों बड़ों सभी पर होली की मस्ती छाने लगी। प्रभात की कालोनी में भी होलिकादहन की तैयारियाॅं जोर-शोर से हो रही थी। आज होलीकोत्सव की पहली बैठक थी। सभी प्रमुख कार्यकर्ता जगन्नाथ पटेल की छत पर एकत्र थे। जगन्नाथ जी सरस्वती शिशु मंदिर के सेवानिवृत्त प्रधानाचार्य थे। सेवानिवृत्ति के पश्चात् वे अपनी कालोनी में सामाजिक कार्यक्रमों में अत्यंत सक्रिय रहते। स्नेहमय व्यवहार से उनकी बात का सभी में बड़ा मान थाउनकी सफल सक्रियता के लिए सबसे बड़ा सबसे बड़ा माध्यम थी उनकी पूर्व छात्र सेना।

सब लोग आ गए तो बात आरंभ हुई कि परंपरागत रूप से मनाए जानेवाले इस त्योहार में क्या नवीन प्रयोग किए जाएं कि यह महान पर्व केवल हुड़दंग का अवसर न बन जाए। रामेश्वर बोरासी ने प्रस्ताव रखा कि होलिका दहन हेतु हरे वृक्ष की शाखा के स्थान पर झण्डे का उपयोग हो सकता है क्या? मोहन मिश्र बोले “वृक्ष की शाखा क्यों नहीं?”

“वृक्ष की शाखा प्रह्लाद का प्रतीक मानी जाती है, इसीलिए कई स्थानों पर होली जलाते ही उस शाखा को खींच कर निकाल लिया जाता है।” जगन्नाथ पटेल बोले “यही परंपरा रूढ़ी बन गई, वृक्ष काटना आरंभ रहा जबकि होली के बाद आने वाली गर्मी की ऋतु में जंगलों को आग से बचाना चाहिए ऐसा सबको स्मरण दिलाने के लिए यह परंपरा पूर्वजों ने चलाई होगी।”

“अब तो वैसे ही वृक्षों की संख्या निरंतर अंधाधुंध विकास और स्वार्थ की भेंट चढ़कर कम होती जा रही है इसलिए रामेश्वर का प्रस्ताव मानने योग्य है।” शरद चौहान ने कहा तो सबने ताली बजाकर समर्थन किया।

रामचंद्र शुक्ल ने कहा “लकड़ी के स्थान पर गोबर के कंडे तो हम पिछले तीन-चार वर्षों से लाते ही हैं, क्या इसमें कोई नवाचार होना चाहिए।”

डा.रवि चौकसे बोले “कंडों की राख स्वास्थ्य के लिए उपयोगी है। गाय के गोबर के उपलों की राख पित्त शामक और एन्टीएलर्जिक होती है। शीत ऋतु की बिदाई का सूचक भी है यह ताप।” वे आयुर्वेद के ज्ञाता थे, उनकी बात सबको भली लगी।

माधव अभी नौवीं कक्षा में पढ़ता था पर उसकी मित्रमंडली हर आयोजन की वानरसेना के रूप में प्रसिद्ध थी। माधव ने कहा “हम सोचते हैं कुछ नया कर सकें तो..” माधव की बात ने सबकी उत्सुकता बढ़ा दी पर वह अभी नयेपन का रहस्य न खोल पाने का निश्चय दुहराने लगा तो थोड़ा बहुत आग्रह कर सब शांत हो गए।

जगन्नाथ जी ने प्रोत्साहित करते हुए कहा “परंपरा का अर्थ ही है पुरानी अच्छी बातों में से समयानुकूल और नई अच्छी बातें जोड़ते चलना। इसीलिए तो हमारी संस्कृति चिरपुरातन होते हुए भी नित्य नवीनता  का बोध कराती है। हर युग के अनुसार अपनी मूल विशेषताओं को बचाते हुए भी युगों-युगों से अक्षुण्ण बनी हुई है। इसलिए नवाचारिता का स्वागत होना ही चाहिए। याद रहे जो प्रवाह अड़ जाता है वह सड़ जाता है जो बढ़ता रहता है वह नए किनारे गढ़ता रहता है।”

माधुरी वर्मा ने एक नया सुझाव दिया कि होली के दूसरे दिन रंग खेलने के कार्यक्रम पर भी विचार किया जाना चाहिए।

विलासराव ने कहा “पानी की बरबादी न हो। सूखे रंगों से होली खेली जाए वह भी केवल तिलक होली।”

इस पर बड़ी कानाफूसी आरंभ हो गई। सुधीर बनर्जी ने कहा “भाई! वर्षभर अनेक प्रकार से पानी बरबाद करने वाले हमारे त्योंहारों का स्वरूप बदलकर ही सारा प्रायश्चित क्यों करवाना चाहते हैं?”

“हिंदुओं के लगभग सभी त्योहार प्रकृति प्रेम से जुड़े हैं, लेकिन उन्हें प्रकृति को हानि पहुंचाने वाले सिद्ध करने की नई फैशन सी चलाई जा रही है। इसे रोकना चाहिए।” राधिका नवरंग बोली।

रामेश्वर चुप न रहा “होली पर पलाश के फूलों को उबालकर उस गुनगुने रंग से रंगोत्सव मनाने की परंपरा है। इस घोल से शरीर भीगने पर अनेक रोगों दूर होते हैं।”

Palash flower

डा.रवि ने इस तथ्य का समर्थन किया। माधुरी ने कहा हम पलाश और ऐसे ही दूसरे फूलों वनस्पतियों से रंग बनाएंगे और सामूहिक बड़े कढ़ावों में रंग बनाकर होली खेलेंगे।”

कढ़ावों और रंग उबालने के लिए भट्ठी की व्यवस्था कमल अहीर ने अपने टेंट हाउस से कर देने का प्रस्ताव किया और रंग बनाने की सामग्री जुटाने की एक टोली बन भी बन गई। सामूहिक अल्पाहार की बात उठी तो रंग खेलने के बाद सब सामूहिक भोजन करेंगे पर ठहरी।

फागुन की पूनम की संध्या को सब माधव की टोली के नवाचार की उत्सुकता से प्रतीक्षा कर रहे थे। बहुत सामान्य सा प्रयोग होकर भी अनूठा सा लगा जब माधव ने होली सजाने के लिए सब माधव ने सब कालोनी वासियों से एक एक कंडा उठाकर जमाने को कहा। लोग चौंके “अरे! कंडों पर तो एक ओर रंग-बिरंगी पर्चियां चिपकी हैं!!”

“इन पर तो कुछ लिखा भी है!!” पर्चियों पर व्यावहारिक जीवन में जाने-अनजाने आ जाने वाली छोटी-बड़ी बुराइयाॅं लिखीं थीं।

जगन्नाथ जी यह जानकर ठहाका मारकर हॅंसे फिर बोले “वाह भाई वानरसेना! कमाल कर दिया भाई।” फिर कालोनी वासियों से बोले “बच्चे बिना कहे हमें बता रहे हैं कि होली में हमें अपनी बुराइयाॅं जलाना है, केवल कंडे नहीं। बहुत अच्छी बात है यह अरे! होलिका तो है ही बुराई की प्रतीक और प्रह्लाद है सद्गगुणों का प्रतीक। प्रह्लाद की रक्षा के लिए होलिका का दहन आवश्यक है तभी तो जीवन में आनंद उमंग के रंग खिलते हैं।”

सारा जन समूह हर्षोल्लास से भरा तालियां बजा उठा। हर व्यक्ति के हाथ एक कंडा था जो अब अपनी एक बुराई को छोड़ने का संकल्प बन चुका था। होली बड़ी होती जा रही थी, उधर कढ़ावों में भीग रहे सूखे फूल अपना रंग छोड़ते जा रहे थे कल के रंगोत्सव के लिए।

(लेखक इंदौर से प्रकाशित ‘देवपुत्र’ बाल मासिक पत्रिका के कार्यकारी संपादक है।)

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