भारतीय शिक्षा – ज्ञान की बात-121 (भारतीय शिक्षा की पुनर्प्रतिष्ठा हेतु परिवर्तन के बिन्दु-3)

 – वासुदेव प्रजापति

आज शिक्षा का प्रश्न इतना अधिक उलझ गया है कि उसे सुलझाना किसी एक व्यक्ति या एक संस्था के बस की बात नहीं है। इसे सुलझाने के लिए किसी अखिल भारतीय स्तर के शैक्षिक संगठन की आवश्यकता है। इसका तात्पर्य यह है कि शैक्षिक संगठनों का सबसे प्रमुख कार्य शिक्षा की समस्या सुलझाना है। छोटे-मोटे विद्यालय चलाना, छोटे-बड़े सेमिनार करना, प्रकल्प खड़े करना, शिक्षकों का या अभिभावकों का प्रबोधन करना, सरकार का मार्गदर्शन करना आदि कार्य दूसरे क्रम पर हैं। ये सभी कार्य शिक्षा की समस्या सुलझाने के साधन हो सकते हैं। साधनों की ओर देखने की दृष्टि भी वैसी ही होनी चाहिए। यदि समस्या सुलझाना प्रथम कार्य नहीं रहा और उसके साधन रूप इन कार्यों की ही प्राथमिकता रही तो मुख्य समस्या कभी भी नहीं सुलझेगी। इसलिए प्रथम तो समस्या को ही समझने की आवश्यकता है। आज दिखाई देता है कि शिक्षा के भावात्मक पक्ष में ही सारी शक्ति केंद्रित की जाती है और उसे अधिक से अधिक प्रभावी बनाने के प्रयास होते हैं। परंतु मूल समस्या का जब तक निराकरण नहीं होता तब तक भावात्मक कार्य भी प्रभावी नहीं हो सकता।

शैक्षिक संगठन की भूमिका

शिक्षा की मूल समस्या उसके पश्चिमीकरण की है। इसे आज जिस स्वरुप में देखा जाता है उससे कहीं अधिक गहरी और व्यापक यह समस्या है। संगठनों ने इसका बहुत छोटा हिस्सा पकड़ रखा है परंतु अत्यंत छोटा हिस्सा होने के कारण ही वह परिणामकारी नहीं होता। शिक्षा की व्यापक और गहरी समस्या को समझने के लिए हर संगठन में एक व्यवस्था होनी चाहिए। संगठन के प्रमुख कार्यकर्ताओं को इसकी समझ होनी चाहिए। जिन्हें ऐसी समझ है, ऐसे बाहर के लोग सहायक तो हो सकते हैं परंतु प्रमुख भूमिका संगठन के लोगों की ही रहनी चाहिए। आज संगठनों में भी संरचनात्मक और विचारात्मक ऐसे दो भाग बन गए हैं। दो व्यवस्थाएं भिन्न-भिन्न लोगों के पास होने से क्रियान्वयन के स्तर पर कठिनाई खड़ी होती है।

शिक्षा के पश्चिमीकरण की प्रक्रिया, उसके उद्देश्य, उसके परिणाम आदि ठीक से समझने के बाद संगठन के विभिन्न कार्यों और रचनाओं का उसके साधन के रूप में क्या स्वरूप रहेगा, इसका विचार करना भी उतना ही महत्वपूर्ण है। यह कार्य बहुत कठिन है क्योंकि व्यावहारिक है। वैचारिक की तुलना में व्यावहारिक कार्य अधिक कठिन होता है। संगठनों का कार्य इसलिए भी कठिन हो जाता है कि वह वर्तमान प्रवाह के विपरीत दिशा में जाने का है। प्रवाह के विपरीत जाने पर विस्तार कार्य प्रभावित होता है। विस्तार और व्याप कम होना किसी भी संगठन को स्वीकार्य नहीं होता। अतः यह बात भी विचारणीय हो जाती है कि विस्तार और विकास का संतुलन कैसे बिठाया जाए। दोनों में पूर्ण शक्ति की आवश्यकता होती है, दोनों का समान महत्व है, एक के बिना दूसरा प्रभावी नहीं बन सकता। परंतु विस्तार के प्रति संगठन का आकर्षण अधिक रहता है। विस्तार को संगठन का मूल कार्य माना जाता है जबकि विकास को आनुषांगिक। इसलिए अधिक शक्ति विस्तार कार्य में लगती है और विकास उपेक्षित हो जाता है।

अध्ययन-अनुसंधान आवश्यक

अध्ययन, चिंतन व अनुसंधान करने की प्रवृत्ति सबकी नहीं होती। इसलिए संगठनों में इसकी ओर ध्यान देना कठिन हो जाता है। परंतु इससे मूल समस्या ज्यों कि त्यों बनी रहती है। अध्ययन व चिन्तन आदि न होने के कारण बढ़ते हुए विस्तार को दिशा देना कठिन हो जाता है और सारा कार्य प्रवाह पतित हो जाता है। इस प्रकार कार्य स्वयं समस्या बन जाता है। विस्तार की समस्याएं असीमित होती हैं। उसका आकर्षण भी अपरिहार्य होता है। वह अपेक्षाकृत सरल भी होता है। इसलिए संगठन का मूल उद्देश्य ही विस्मृत हो जाता है और जिन्हें परिवर्तन करना है उनका ही परिवर्तन हो जाता है। अतः संगठनों का प्रमुख कार्य अपनी नित्य परिष्कृति करते रहना है। यह तो जीने के लिए शरीर स्वास्थ्य बनाए रखने जैसी बात है। स्वस्थ शरीर धर्माचरण के लिए होता है, निरुद्देश्य नहीं। संगठन भी शिक्षा की समस्या सुलझाने के लिए होता है, केवल बने रहने के लिए नहीं।

शैक्षिक संगठनों को अपना तंत्र ठीक से बिठाने के बाद शिक्षा के क्षेत्र में कार्यरत अन्य संगठनों के साथ संवाद स्थापित करना चाहिए। संवाद स्थापित करने का कार्य केवल संगठनों तक सीमित नहीं रखना चाहिए। देश भर में अनेक व्यक्तियों के मन में शिक्षा का भारतीयकरण करने की आकांक्षा है। वे प्रयोग भी करते हैं परंतु उनके प्रयोग व्यक्तिगत स्तर पर होने के कारण अच्छी शिक्षा के नमूने बनकर रह जाते हैं, शिक्षा की गहरी और व्यापक समस्या सुलझाने की दृष्टि से प्रभावी नहीं होते। इन सभी प्रयासों को एक माला में पिरोने के लिए शैक्षिक संगठनों को सूत्र बनना चाहिए। सार रूप में कहें तो शिक्षा के भारतीयकरण हेतु संगठन अनिवार्य है और संगठनों को भारतीयकरण के निहितार्थ समझ कर अपनी योजना लागू करनी चाहिए। संगठनों के बिना देश की अपेक्षा पूर्ण नहीं हो सकती। संगठनों में ही देश की अपेक्षा पूर्ण करने की क्षमता है। अतः शैक्षिक संगठन अपनी भूमिका स्मरणकर भारतीय शिक्षा की पुनर्प्रतिष्ठा हेतु कटिबद्ध हों।

अनौपचारिक शिक्षा का महत्व

चरित्र निर्माण की शिक्षा, परिवार सुदृढ़ीकरण की शिक्षा, मन को संयम में रखने की शिक्षा, शरीर को स्वस्थ और बलवान बनाने की शिक्षा आदि का परीक्षा में उत्तीर्ण होने व अच्छे अंक मिलने से तथा अर्थार्जन के अच्छे अवसर मिल जाने से कोई संबंध नहीं है, फिर भी वह अनिवार्य है। अतः इन सभी बातों का शिक्षा में समावेश करना, इन बातों की परीक्षा नहीं होना, इनसे अर्थार्जन नहीं होना फिर भी इनको विकास के मुख्य लक्षण मानना, व्यक्ति और समाज को सुसंस्कृत बनाने की दिशा में महत्वपूर्ण कदम होगा। आज हम इसे अनौपचारिक शिक्षा कहते हैं। करियर बनाने की दौड़ में इसकी कोई गणना नहीं है। इसे अधिक महत्वपूर्ण मानकर, अधिक अर्थपूर्ण बनाकर, हमारे सब प्रकार के संसाधनों का विनियोग इसमें करने की आवश्यकता है। सूत्र तो यह कहता है कि शिक्षा का संबंध अर्थार्जन से नहीं अपितु ज्ञानार्जन से होता है। इसलिए हमें शिक्षा को ज्ञानार्जन से जोड़ने के लिए विविध तरीके अपनाने चाहिए। ऐसी शिक्षा देने में माता-पिता सक्षम हों, इस दृष्टि से माता-पिता की शिक्षा भी प्रारंभ करनी चाहिए। इसे हम परिवार की शिक्षा भी कह सकते हैं। अतः परिवार शिक्षा को महत्व प्रदान करना चाहिए।

हर बालक को अच्छा पुरुष, अच्छा पति, अच्छा गृहस्थ और अच्छा पिता बनना है। इसी प्रकार प्रत्येक बालिका को अच्छी स्त्री, अच्छी पत्नी, अच्छी गृहिणी और अच्छी माता बनना सिखाने हेतु परिवार विषयक विद्यालय भी होने चाहिए। शिक्षा का संबंध ज्ञानार्जन से जोड़ना और अर्थार्जन को महत्व न देना है तो अर्थार्जन की एक अलग, स्वतंत्र और अच्छी योजना बनानी चाहिए। अर्थशास्त्र और समाजशास्त्र को इस बात का विचार करना पड़ेगा, क्योंकि बिना अर्थ के न तो ज्ञानार्जन संभव होता है और न जीवन ही जीया जा सकता है। अतः ज्ञानार्जन के साथ-साथ वह अर्थार्जन की क्षमता भी प्राप्त करे, यह भी आवश्यक है।

परंपरागत ज्ञान की प्रतिष्ठा करना

शिक्षा को सही पटरी पर लाने के लिए एक बात और विचारणीय है। हमारी वर्तमान औपचारिक शिक्षा व्यवस्था के बाहर भी ज्ञान का समृद्ध भंडार है। सामान्य लोगों के पास परंपरागत ज्ञान आज भी सुरक्षित है। गांव में वनवासी क्षेत्र में स्थापत्य, शिल्प, तकनीक, कला-कारीगरी, वनस्पति, प्राणी, औषधि, उपचार, मंत्र चिकित्सा, खगोल ज्ञान आदि अनेक विद्याओं के जानकार लोग हैं। इन्हें लिखना-पढ़ना भले ही न आता होगा परंतु इन व्यावहारिक कौशलों के साथ-साथ प्रकृति प्रेम, प्रामाणिकता, विद्या का सम्मान जैसे सद्गुण विपुल मात्रा में होते हैं। हमें इन विद्याओं को स्वीकार करना चाहिए, उनका सम्मान करना चाहिए और उनका समर्थन करना चाहिए। इसके साथ ही परंपरागत ज्ञान को शास्त्रीय आधार देने हेतु अनुसंधान की योजना भी बननी चाहिए। शास्त्र शिक्षा और लोक शिक्षा का समन्वय करने से ही परंपरागत ज्ञान की प्रतिष्ठा होगी। भारतीय शिक्षा की प्रतिष्ठा हेतु यह सब करना आवश्यक मानना चाहिए।

परिवर्तन का संदर्भ देशव्यापी हो

परिवर्तन की किसी भी योजना का संदर्भ देशव्यापी होना आवश्यक है। परिवर्तन किसी एक स्थान तक सीमित नहीं रहना चाहिए। यह बात ठीक है कि प्रत्यक्ष कार्य तो किसी छोटे स्थान या स्थानों पर ही हो सकता है, परंतु परिणाम की दृष्टि से, लागू होने की संभावना की दृष्टि से, उसका स्वरूप राष्ट्रीय होना आवश्यक है। इसके साथ ही समग्रता में विचार करना भी अनिवार्य है। समग्रता और व्यापकता के लिए योजना भी दीर्घकालीन बनानी पड़ेगी। इन तीनों कार्यों में समग्रता सबसे अहम कार्य है। समग्रता में विचार करने से ही आमूलचूल परिवर्तन संभव है।

सारांश में कहें तो समग्र परिवर्तन के प्रयासों के चरण कुछ इस प्रकार होंगे –

  • हमें शिक्षा का सैद्धांतिक प्रतिमान गढ़ना होगा।
  • इस प्रतिमान के आधार पर विपुल मात्रा में अध्ययन और अध्यापन की सामग्री का निर्माण करना होगा।
  • इस सामग्री का प्रयोग करने के लिए स्वतंत्र विद्याकेंद्रों की रचना करनी होगी।
  • अनौपचारिक शिक्षा व्यवस्था का महत्व बढ़ाना होगा।
  • परिवार शिक्षा और लोक शिक्षा की अच्छी व्यवस्था करनी होगी।
  • ग्रामों, वनों एवं गिरिकंदराओं में निवास करने वाले सामान्य लोगों के पारंपरिक ज्ञान को मान्यता देनी होगी।
  • परंपरागत ज्ञान को मान्यता देने हेतु उसे शास्त्रीय आधार देना होगा। इस दिशा में अध्ययन और अनुसंधान की गतिविधियों को उस दिशा में मोड़ना होगा। इससे न केवल उसे प्रतिष्ठा प्राप्त होगी अपितु वह परिष्कृत होगा और आधुनिक भी बनेगा।
  • शिक्षा को भारतीय अर्थ में, भारतीय पद्धति से स्वायत्त बनाने हेतु शिक्षकों को दायित्वबोध से युक्त बनाना होगा, इसके साथ ही उन्हें सुरक्षा देनी होगी और उनको सम्मानित भी करना होगा।
  • परिवर्तन की योजना समग्रता में विचारित हो, इस योजना का संदर्भ देशव्यापी हो और यह योजना दीर्घकालीन बनाई जाए।
  • इन प्रयासों का नामाभिधान ‘समग्र शिक्षा योजना’ करना चाहिए। शिक्षा क्षेत्र में सभी संगठनों के परिवर्तन के प्रयासों का ध्रुवीकरण इस बिंदु पर होना अपेक्षित है।
  • समाज का मानस परिवर्तन तथा शासन का नीति परिवर्तन संगठित प्रयास से ही संभव हो सकता है। संगठनों का यही प्रमुख दायित्व भी है। उन्हें अपने इस दायित्व को निभाने हेतु सिद्ध होना चाहिए।
  • वर्तमान में देश के विद्वानों के पास ज्ञान शक्ति है और संगठनों के पास लोकसंग्रह की शक्ति है। दोनों को केवल उसे जानने और व्यवस्थित करने की आवश्यकता है।

        आज विश्व में भारत की स्थिति ऐसी बनी हुई है की विश्व भारत से मार्गदर्शन की अपेक्षा रखता है। यह कोई आश्चर्य की बात नहीं है क्योंकि युगों-युगों से भारत विश्वगुरु के नाते सम्पूर्ण विश्व का मार्गदर्शन करता आया है। भारत के अस्तित्व की सार्थकता भी इसी में है। अतः हम भारतीय शिक्षा की पुनर्प्रतिष्ठा का यह  ईश्वर प्रदत्त दायित्व निभाने में अवश्य सफल होंगे।

(लेखक शिक्षाविद् है, भारतीय शिक्षा ग्रन्थमाला के सह संपादक है और विद्या भारती संस्कृति शिक्षा संस्थान के सचिव है।)

और पढ़ें : भारतीय शिक्षा – ज्ञान की बात-120 (भारतीय शिक्षा की पुनर्प्रतिष्ठा हेतु परिवर्तन के बिन्दु-2)

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