✍ गोपाल माहेश्वरी
रंगों का पर्व होली आते ही बच्चों के मन में बहुत ही उल्लास छाया हुआ था। रंग, गुलाल, पिचकारी की होड़ तो लगी ही थी पर विशेष स्पर्धा तो इस बात की थी कि कौन किसे कौनसा और कैसे रंग लगाएगा? विशेष रूप से जिन्हें रंगों से चिढ़ है उन्हें रंगने की योजनाएं बहुत गुप-चुप तरीके से बनाई जा रही थीं। बचने वाले रंग लगाने वालों के रहस्य जानने को आतुर थे और लगाने वाले रहस्यों को छुपाने के लिए सतर्क। यह तो हुआ बच्चों का हाल पर घर की महिलाएं अपने प्रकार से गुझिया, गुंजे आदि मिठाइयां बनाने में व्यस्त।
दादी को अपना पोता प्रह्लाद सबसे प्रिय था पर होली के कुछ दिन दोनों का नकली झगड़ा घर-परिवार में प्रसिद्ध था। मानो यह भी होली की ही कोई रीति हो। कारण यह कि वर्ष भर दोस्त जैसी दादी, होली पर इसलिए दोस्ती तोड़ लेती थी कि प्रह्लाद दादी को भी रंग लगाने की इच्छा रखता और दादी को इस वृद्ध अवस्था में रंग छुड़वाना बहुत कठिन हो जाता था। लेकिन बाल हठ तो बालहठ ही है, हारना दादी को ही पड़ता। हाँ, ‘रंग नहीं, सूखा गुलाल’ पर समझौता हो जाता।
इस बार दादी ने साफ कह दिया, “प्रह्लाद!अब तू बड़ा हो रहा है और मै बूढ़ी अब होली अपने दोस्तों, भाई-बहनों से खेलो मुझसे नहीं।”
“ठीक है दादी! पर एक बात बताओ, भगवान तो आपसे भी बड़े होंगे?” पोते ने पूछा तो दादी समझी नहीं और बोल पड़ी “वे तो सबसे बड़े हैं!”
“तो उनको तो आप होली खिलाती हो।” प्रह्लाद ने देखा था दादी होली के दिनों में अपने कृष्ण कन्हैया को अबीर-गुलाल और केसर के रंग से होली खिलाती है।
“तो?” दादी का अनुभव उन्हें सावधान कर रहा था पर वे संभवतः चूक चुकी थी।
“तो यह दादी! कि अभी तो हमसे बड़े भी होली खेलते हैं तो हमारी होली बंद क्यों हो भला?” दादी ने अपने गालों पर यह तर्क सुनकर हाथ रख लिए, पोते ने समझा दादी रंग से बचने के लिए ऐसा कर रही है। वह खिलखिलाकर हंस पड़ा।” आज होली थोड़े ही है दादी! आज रंग नहीं लगा रहा हूँ।” पोते की नन्हें-नन्हें हाथों ने दादी की बूढ़ी कलाइयां पकड़कर उनके गालों से हाथ हटा कर अपने गालों से सटाते हुए खूब लाड़ से कहा “मेरी प्यारी-प्यारी दादी!”
पोते के स्नेह से दादी की आंखें छलछला आईं पर इस बार प्रह्लाद फिर कुछ और समझ बैठा।
“अरे दादी रोओ नहीं। बस ऐसे रंग बता दो जिनसे आपको तकलीफ न हो। क्योंकि होली खेलना तो बहुत जरूरी है न?” वह समझदारी का पुतला बन रहा था।
दादी भी आखिर दादी थीं, उपाय खोज ही लिया, बोलीं “होली तो खेलेंगे पर वे रंग लाओ जो प्रह्लाद के पास थे, वह प्रह्लाद जिसके कारण पर होली मनाना शुरू हुआ।”
दादी से प्रह्लाद और होलिका दहन की कहानी सुनी थी पोते ने पर उसमें रंग तो नहीं थे। अब आया ऊंट पहाड़ के नीचे, नहीं नहीं-नहीं, पोता दादी की गोद में।
“दादी! बताओ न प्रह्लाद के पास कौन से रंग थे?” मन में सोचा, वाह! नए रंग। दोस्तों पर खूब रौब जमेगा इनसे।
दादी ने पोते का सिर सूंघा और लाड़ से बोली “प्रह्लाद के जीवन में ये रंग न होते तो वह निराशा के काले रंग में ही डूबा रहता क्योंकि उसके पिता तो दैत्य थे, दैत्यराज हिरण्यकशिपु, भगवान श्रीहरि का वैरी और प्रह्लाद ठहरा श्रीहरि का महान भक्त, काले और सफेद जैसे विपरीत रंग थे उनके जीवन में।”
“दादी! प्रह्लाद के पिता उसे मारते-पीटते भी थे?”
“हाँ बेटा! मैंने तुम्हें सुनाई तो थी यह कथा कि हिरण्यकशिपु ने प्रह्लाद को भगवान भक्ति न करने के लिए कितना सताया, डराया धमकाया, सांपों के बीच छोड़ा, पहाड़ से गिराया, हाथी से कुचलवाना चाहा और ….”
“होलिका की गोद में बैठा जला देना चाहा, पर प्रह्लाद तो जला ही नहीं” पोते ने ताली बजाकर हर्ष व्यक्त किया “इसीलिए तो हम होली जलाते हैं, है न दादी!” केवल पूछते रहने की अपेक्षा कुछ बताने को भी मिले तो बालमन बड़ा प्रसन्न हो जाता है।
दादी ने भी उसे प्रोत्साहित किया “अरे वाह! तुझे तो सब पता है रे! आखिर पोता किसका है?”
“दादी काऽऽ।” गोदी में बैठे-बैठे ही उसने दादी के गले में दोनों हाथ डालकर उनके गाल अपने गाल से सटा बैठा। दादी के लिए यह प्रयोग शारीरिक रूप से कष्टकारी पर मानसिक रूप से स्वर्ग से बढ़कर आनंदित करने वाला था।” प्रह्लाद की भी आप जैसी दादी होतीं न तो वे ऐसा कभी नहीं होने देतीं।” पोता करुणा से भर उठा, फिर बोला “दादी! रंगों की बात?”
“प्रह्लाद के बचपन में कोई स्वतंत्रता न थी, घर हो या शाला हर जगह रोक-टोक, डाट-डपट, देखो तो दु:ख ही दु:ख पर प्रह्लाद सदैव प्रसन्न रहते। यह प्रसन्नता उन्हें ईश्वर पर विश्वास से मिलती थी। यह ईश्वर भक्ति उनके पास का गहरा केसरिया रंग था जिससे वे सबको रंगना चाहते थे।”
“अच्छा! ऐसा रंग? पर एक ही रंग था बस?”
“तुझे याद है न, मैंने बताया था कि कैसे कुम्हार के मटके पकाने वाली जलती भट्ठी में रखे एक मटके में बिल्ली के बच्चे रह गए थे। प्रह्लाद इससे दुखी होकर पूरे समय कुम्हारिन के साथ भगवान की प्रार्थना करते रहे। भट्ठी ठंडी होने पर जब बिल्ली के बच्चे जीवित निकल आए तो वे कितने प्रसन्न हुए थे, जबकि वे जानते थे कि उनके पिता को पता चला तो वे कितना भयंकर क्रोध करेंगे। वैसे बिल्ली के बच्चों से उनका क्या लेना-देना? न उस भट्ठी में उन्हें प्रह्लाद ने रखा था।”
“बात तो सही है। फिर ऐसा क्यों किया उसने!” पोता सोचने लगा।
“मैंने एक चौपाई सिखाई थी न? परहित सरिस धरम नहिं भाई..”
“पर पीड़ा सम नहिं अधमाई।” प्रह्लाद ने चौपाई तत्काल पूरी कर दी।
दादी आनंदित होकर, बोली “बहुत बढ़िया बेटे! तुझे याद है यह। दूसरे के कष्ट से दुखी होना करुणा और दूसरे के सुख में सुखी होना करुणा और प्रेम ये दो विशेष रंग हैं नीले पीले रंगों जैसे।”
“अरे वाह! ये भी नीले पीले होते हैं क्या?” उसे थोड़ा संशय था।
“यह भी समझाऊंगी। पहले यह समझ लो कि उसके शिक्षकों शंड और अमर्क ने उसके आसपास भय का काला रंग फैलाना चाहा पर प्रह्लाद पर सच का सफेद रंग इतना गहरा चढ़ा था कि काला रंग चढ़ा ही नहीं, घृणा और द्वेष और वैर के गंदले रंग भी कभी न चढ़ सके।”
“अच्छा दादी! जब हिरण्यकशिपु ने उन्हें अंगारे जैसे गरम लौहे के खंबे से लिपटजाने को कहा या उसके पहले सांपों और हाथी के सामने डाल दिया तब भी वे न डरे न भागे यह भी कोई रंग थे?”
“हाँ बेटा! पर हरे, पीले, लाल, गुलाबी, नीले, नारंगी या बैंगनी, काले, सफेद तो बाहर के रंग हैं। मैंने ऊपर कुछ रंगों के नाम तुम्हें समझाने के लिए ले लिए पर ये जो करुणा, प्रेम, सत्य, दृढ़ता, धीरता, वीरता, निर्भयता, साहस, ईश्वर भक्ति जैसे कई सारे गुण हैं न, ये सब अंदर के रंग हैं। बाहर के रंग चढ़ते हैं और उतर जाते हैं पर अंदर के रंग जीवनभर साथ रहते हैं। इनको लाल, नीला, पीला हरा नहीं कहा जा सकता पर हैं ये सब अनूठे रंग रंग हैं जीवन के।”
“जैसे कुछ काले, नीले, हरे रंग कोई लगा दे तो कितना भी घिसो-धोओ कई-कई दिनों तक नहीं छूटते, सारा चेहरा भद्दा लगता है उनसे। अंदर भी कोई ऐसे रंग होते होंगे?” पोते ने पूछा।
“बहुत अच्छा सोच रहे हो। अच्छी आदतें उजले रंग, बुरी आदतें गंदे रंग। बस इतना समझ लो।”
“हाँ, अब समझ गया। प्रह्लाद ने होली अंदर के उजले रंगों से खेली थी। मेरे दोस्तों को जब बताऊंगा कि प्रह्लाद ने भी होली खेली थी तो वे आश्चर्य में पड़ जाएंगे दादी!”
“बेटा! दोस्तों को बताओ अवश्य, पर यह समझ लो होली केवल खिलवाई नहीं जाती स्वयं भी खेलना पड़ती है, फिर चाहे अंदर के रंगों की हो या बाहर के रंगों की।” वे थोड़ा रुकीं फिर स्नेहभरे आग्रह से बोलीं “देखो दादी की बात कभी भूलना नहीं बाहर के रंगों से चित्र बनता है पर अंदर के रंगों से चरित्र। हमारा चरित्र, चित्र से भी अच्छा होना ही चाहिए।”
दादी की ओर से आज का संवाद पूरा हो चुका था पर प्रह्लाद की ओर से नहीं।” दादी! आपके साथ आज अंदर के रंगों से होली खेली न?”
“हाँ, तो?” अभी कुछ होना बाकी है दादी की छठी इन्द्रिय संकेत दे रही थी, पर क्या? यह रहस्य तो पोते को ही पता था।
“उजले रंगों का वादा पर होली तो मेरी भी खेलना होगी।” वह उठा और दादी के पीछे जाकर अपने नन्हें, स्नेहभरे हाथों से दादी के गाल मलते हुए जोर से बोला “होली हैऽऽऽ।”
दादी चौंकी “अरे! होली तो कल है आज से ही धमाल!!”
“दादी! ये तो लाड़ का रंग है देखो” अपने कोरे हाथ दिखाकर वह खिलखिलाकर हँस पड़ा “यह भी तो अंदर का रंग है न? होली आज आज अंदरवाली कल बाहरवाली भी।”
प्रह्लाद बाहर भाग गया। दादी अंदर ही अंदर आनंदित हो उठीं। दोनों मुस्कुरा रहे थे। यह मुस्कुराहट अंदर और बाहर के रंगों को जोड़ने वाली थी।
(लेखक इंदौर से प्रकाशित ‘देवपुत्र’ बाल मासिक पत्रिका के कार्यकारी संपादक है।)