– डॉ. सुनीता कुमारी गुप्ता

कई दिनो तक चूल्हा रोया, चक्की रही उदास।
चमक उठी घर भर की आखें, कई दिनों के बाद।
मानव के साथ-साथ मानवतर सजीव जगत ही नहीं बल्कि जड़ जगत भी शामिल हो जाये ऐसे संवेदनशील कवि नागार्जुन के साहित्य में भारतीयता का प्रभाव स्वयंमेय दिखाई देता है। उपर्युक्त पंक्तियाँ ‘अकाल और उसके बाद’ कविता में संकलित है। कविता आकार में जितनी छोटी है इसमें निहित संवदेना उतना ही व्यापक हैं।
ऐसे व्यापक संवेदनीय प्रभाव छोड़ने वाले कवि नागार्जुन का जन्म 1911 ई. में हुआ था। जन्म स्थान तरौनी, जिला दरभंगा बिहार है। पिता गोकुल मिश्रा एवं माता उमा देवी के ये इकलौते संतान थे जिनका वास्तविक नाम वैद्यनाथ मिश्रा है। गोकुल मिश्रा और उमा देवी को लगातार चार संतानें हुई और असमय ही वे सब चल बसी। संतान न जीने के कारण गोकुल मिश्रा चिन्तित रहा करते थे। ब्राह्मण गोकुल मिश्रा ईश्वर के प्रति आस्थावान तो थे ही किन्तु इस विषम परिस्थिति में अपने आराध्य देव शंकर की पूजा विशेष रूप से करने लगे। देवधर जाकर बाबा बैद्यनाथ की पूजा अर्चना उपासना की और वहाँ से लौटने के बाद घर में पूजा-अर्चना में समय लगाने लगे और पांचवी संतान के रूप में नागार्जुन का जन्म हुआ। जन्म के बाद कुछ वर्षों तक ये भयभीत रहने लगे कि अन्य संतानों की तरह यह भी हमें न चला लाये ये सोचकर नागार्जुन पुकारू नाम ‘ठककन’ हो गया फिर जब नामकरण हुआ तो बाबा वैद्यनाथ की कृपा समझकर इस बालक का नाम वैद्यनाथ मिश्रा रखा गया।
हिन्दी साहित्य में इन्होंने नागार्जुन तथा मैथिली में यात्री उपनाम की रचनाएँ की। काशी में रहते हुए ‘इन्होंने’ वैदेह उपनाम से भी कविताएँ लिखी थी। सिंहल में ‘विद्यालंकार परिवेण’ में ही 1936 में इन्होंने नागार्जुन नाम स्वीकार किया तथा कुछ मित्रों का आग्रह पर 1941 ईस्वी के बाद उन्होंने हिन्दी में नागार्जुन के अलावा किसी दूसरे नाम से न लिखने का निर्णय लिया।
नागार्जुन के साहित्य का सिंहावलीन किया जाय तो इनकी रचनाएँ भारतीयता से ओत-प्रोत है। इन्होंने लगभग सभी विद्याओं में अपनी कलम चलायी है। इनका काव्य युगधारा (1952), सतरंगे पंखा वाली (1959), प्यासी पथरायी आँखें (1962), तालाब की मछलियाँ (1957), खिचड़ी विप्लव देख हमने (1980), तुमने कहा था (1980), हजार-हजार बाँहों वाली (1981), पुरानी जूतियों का कोट्स (1983), रत्नगर्भ (1984), ऐसे भी हम क्या, ऐसे भी तुम क्या (1985), आखिर ऐसा क्या कह दिया मैंने (1986), इस गुब्बारे की छाया में (1990), भूल जाओ पुराने सपने (1994), अपने खेत में (1997) आदि हैं।
इनकी लिखित कहानियाँ भी पाठकों के लिये प्रेरणा का कार्य करती हैं। कहानियों को पढ़कर ऐसा लगता है कि भारतीयता के धर्म का इन्होंने निर्वहन किया है। कहानी साहित्य के अंतर्गत असर्मथदाता, तापहारिणी, जंग, कायापलट, विशाखा, मृगारमरतर, ममता, विषम ज्वर, हीरक जयंती, हर्ष चरित का पॉकिट एडोशन, मनोरंजन टैक्स, आसमान में चंदा, तेरे भूख मर गयी थी, सूखे बादलो की परछाइयाँ आदि पर इन्होंने अपनी कलम चलायी।
इनके उपन्यास भी पाठकों के बीच अत्यंत लोकप्रिय हैं। रतिनाथ की चाची (1948), बलचनमा (1952), नई पौध (1953), बाबा बंटसरनाथ (1954), वरूण के बेटे (1957), दुःखमोचन (1957), कुंभीपाक (1960), हीरक जंयती या अभिनन्दन (1962), उग्रतारा (1963), जमनिया का बाबा उमरतिया (1968), पारो (1975), गरीबदास (1979)।
कविता, कहानी उपन्यास की भाँति ही अन्य विद्या के तहत खण्ड काव्य – भस्मांकुर (1970), गीत गोविन्द (1979), एक मात्र ऐतिहासिक नाटक-अनुकम्पा और निर्णय, एक दीर्घ कविता- हरिजन गाथा, संस्मरण – मैं सो रहा हूँ, एक घण्टा, आईने के सामने; आलोचना – एक व्यक्ति एक युग की रचना की। इन्होंने मेघदूत का हिन्दी रूपान्तरण 1955 ई. में किया।

वैद्यनाथ मिश्रा हिन्दी में ‘नागार्जुन’ एवं मैथिली में ‘यात्रा’ उपनाम से रचनाएँ करते थे। 1929 ई. में इनकी पहली कविता ‘मिथिला’ मैथिली भाषा में प्रकाशित हुई। मैथिली, हिन्दी के अतिरिक्त संस्कृत में भी इनकी रचनाएँ मिलती हैं। इनकी मैथिली की प्रसिद्ध रचनाएँ- चित्रा, विशाखा, पत्रहीन, नग्न गाछ (काव्य संग्रह), पारो, नवतुरिया (उपन्यास), धर्मलोक शतकम् सिंहली लिपि में रचित संस्कृत का एक लघु काव्य हैं। देशदशकम, कृषकदशकम्, श्रमिकदशकम् इनकी अन्य संस्कृत में रचित रचनाएँ हैं। नागार्जुन की पहली हिन्दी कविता ‘राम के प्रति’ विश्वबंधु (लाहौर से प्रकाशित पत्रिका) में 1933 ई. को प्रकाशित हुई थी।
प्रगतिवादी विचारधारा के लेखक एवं व्यंग्य के ये बेजोड़ कवि है। हिन्दी साहित्य के क्षेत्र में उपन्यास कार और कवि के रूप में इनकी ख्याति एवं पहचान है। माना जाता है कबीर के बाद इतना बड़ा व्यंग्य कवि दूसरा नहीं हुआ। इनकी भाषा लोक भाषा निकट हैं। जनपदीय संस्कृति, औचलिकता, लोक-जीवन, सामाजिक समस्याओं की अभिव्यक्ति, मार्क्सवादी सिद्धान्त इनके साहित्य का प्रमुख पक्ष है। नागार्जुन जन पक्षधरता के कवि कहे जाते हैं। कवि की हैसियत से नागार्जुन प्रतिशील और एक हद तक प्रयोगशील भी हैं।
भक्तिकालीन कबीर और आधुनिक काल के नागार्जुन दोनों ने ही अपने समय के समाज में व्याप्त बुराईयों पर प्रहार किया है। कबीर का आविर्भाव जब हुआ उस समय धार्मिक आडम्बर, अंधविश्वास जाति-पाति, सामाजिक पाखण्ड का बोलबाला था। ऐसे समय में कबीर ने जनता के बीच से जनता की भावना को समझते हुए मानवता की अभिव्यक्ति के लिए कलम चलाया। सामाजिक बुराइयों का व्यंग्य भरे स्वर में प्रहार किया जो अपने आप में क्रांतिकारी कदम था। कबीर के इसी क्रांतिकारी कदम को आगे बढ़ाने का कार्य आधुनिक काल में नागार्जुन ने किया। नागार्जुन में अपनी रचनाओं में बेरोजगारी, आर्थिक शोषण, राजनीतिक समस्याओं को आधार बनाकर व्यंग्य भरें।
अकाल और उसके बाद, सिन्दूर तिलकित भाल, हरिजन गाथा, बादल को घिरते देखा, शासन भी बंदूक, आओ रानी हम ढायेंगे पालकी, मंत्र, वह दंतुरित मुस्कान इत्यादि नागार्जुन की कुछ प्रसिद्ध कविताएँ हैं। अपनी कविताओं के माध्यम से सामाजिक विषमता का चित्रण करते हुए इन्होंने आडंबर का डटकर विरोध किया है। ये आम जनता के कवि हैं। सामाजिक व्यवस्था का कोई विषय शायद ही इनसे अछूता है। घर, गृहस्थी, ग्रामीण-शहरी, सूदखोरी, जात-पात, धार्मिक कट्टरता, महंगाई, भ्रष्टाचार आदि विषयों की एक लम्बी सूची हैं। मैथिली काव्य-संग्रह ‘पत्रहीन नग्न गाछ’ पर 1968 ई. में ये साहित्य अकादमी के पुरस्कार से सम्मानित भी हुए हैं।
मध्य प्रदेश सरकार द्वारा 1993 में इन्हें मैथिलीशरण गुप्त सम्मान दिया गया। बिहार सरकार द्वारा 1993 ई. में ही आपको राजेन्द्र शिखा सम्मान प्रदान किया गया। हिन्दी अकादमी पश्चिम बंगाल द्वारा 1995 ई. में आपको राहुल सम्मान से सम्मानित किया गया। निष्कर्षतः कहा जा सकता हैं कि नागार्जुन लोगों के दिल में बसते थे, बसते हैं और आने वाले समय में बसते रहेंगे।
(लेखिका राँची विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग में सहायक प्राध्यापक है।)
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