भारतीय शिक्षा के आध्यात्मिक आधार – भाग चार (पुरुषार्थ चतुष्टय की शिक्षा)

– ब्रज मोहन रामदेव

भारतीय ज्ञान के क्षेत्र में पुरुषार्थ चतुष्ट्य का विशेष महत्व है। पुरुषार्थ चतुष्टय मानव जीवन के चार सदस्यों को संदर्भित करते हैं। ये चार पुरुषार्थ है – धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष। मोक्ष अंतिम लक्ष्य माना गया है जो कि धर्म, अर्थ और काम के माध्यम से प्राप्त किया जा सकता है। मोक्ष प्राप्त करने के लिये त्रिवर्ग अर्थात् धर्म, अर्थ व काम का सम्यक् ज्ञान देना आवश्यक है। आध्यात्मिक शिक्षा का यह महत्वपूर्ण आयाम हैं।

त्रिवर्ग में काम का अर्थ है कामनाएं या इच्छाएं। अर्थ का आशय है इन इच्छाओं की पूर्ति के लिये पर्याप्त द्रव्य का होना। इच्छाओं की पूर्ति के लिये दो प्रकार के मार्ग अपनाए जाते हैं। एक धर्म के सुसंगत मार्ग और दूसरा है धर्म के विरोधी मार्ग। धर्म यह सिखाता है कि इच्छाएं एवं कामनाओं को धर्म की कसौटी पर कस कर उसकी पूर्ति के प्रयास (अर्थार्जन) करने चाहिये। अर्थात् अर्थ व काम दोनों ही स्थितियों में धर्म का पालन करना चाहिये। मोक्ष तत्व आत्म तत्व की अनुभूति की अवस्था है। काम व अर्थ को धर्म के आचरण के अन्तर्गत किया जाए तो मोक्ष स्वतः मिलता है। तीनों पुरुषार्थों का सम्यक आचरण करने से मोक्ष के योग्य बना जा सकता है। शिक्षा हमें इस योग्य बनना सिखाती है।

धर्म पुरुषार्थ की शिक्षा : वस्तुतः धर्म आचरण का विषय है। धर्म ज्ञान पर आधारित है इसलिये इस पर नियंत्रण की आवश्यकता नहीं रहती। अतः उसी रूप में धर्म की शिक्षा दी जानी चाहिये। बाल्याकाल में बच्चे की शारीरिक व मानसिक आदतें बनती है। यही वह समय होता है जब सदाचार की शिक्षा की जानी चाहिये। एक सुभाषित हमें कहता है “धर्मेण हीनाः पशुभीः समाना” अर्थात् बिना धर्म के मनुष्य पशु के समान ही है। इसलिये शिक्षा प्रणाली में धर्म आधारभूत विषय होना चाहिये। धर्म का आशय यहां भारतीय मनीषा के अनुसार व्यापक अर्थ में हैं न कि ‘रिलिजन’ या ‘मजहब’ जैसे संकुचित अर्थ में। अतः सभी विषयों को धर्म के साथ जोड़ कर पढ़ाना चाहिये यथा राजनीति शास्त्र को राज धर्म की दृष्टि से पढ़ाना चाहिये। अर्थशास्त्र में धार्मिक व नैतिक तत्वों को सम्मिलित करना चाहिए। विज्ञान को आध्यात्मिक व मानवीय पहलुओं के साथ पढ़ाना चाहिये ताकि वह विनाशकारी न बन कर जड़-चेतन की सेवा के योग्य बने। इसी प्रकार अन्य विषयों में भी धर्म अनुस्युत होना चाहिये।

अर्थ पुरुषार्थ की शिक्षा : मनुष्य के जीवन का प्रमुख केन्द्र काम पुरुषार्थ ही है। काम पुरुषार्थ के सहयोग के लिये अर्थ पुरुषार्थ है। काम पुरुषार्थ यदि साध्य (Goal) है तो अर्थ पुरुषार्थ साधन है। धर्मानुकुल कामनाओं की पूर्ति के लिये किए गये धर्मानुकूल प्रयास अर्थ पुरुषार्थ की शिक्षा के अन्तर्गत आते है। अर्थशास्त्र की शिक्षा धर्मानुकुल होनी चाहिये। यथा त्याग के साथ उपभोग करो ईशावास्य उपनिषद की इस शिक्षा के साथ अर्थशास्त्र का विषय पढ़ाना चाहिये। धन कमाने के लिये स्वामी विवेकानन्द अर्थर्ववेद के एक मंत्र का उदाहरण देते हुए कहते थे “शतहस्त समाहर सहस्रहस्त सं किर” यानि सौ हाथों से कमाओं और हजार हाथों से बांटो। अर्थार्जन की प्रक्रिया में किए गए समस्त प्रयास धर्म-अविरोधी धर्म होने चाहिये। यह तत्व (धर्म तत्व) अर्थ पुरूषार्थ का अभिन्न अंग होना चाहिये। 

काम पुरुषार्थ : सृष्टि का सृजन परमात्मा की इच्छा शक्ति का परिणाम है। परमात्मा ने इच्छा की है अनेक हो जांऊ (एकोऽहं हुस्यामः) यह इच्छा शक्ति ही मनुष्य के अन्तःकरण में काम बनकर निवास कर रही है। अर्थात् काम मनुष्य के जीवन का केन्द्रवर्ती तत्व है। मनुष्य इच्छाओं को आगार है। अतः इच्छाएं या कामनाएं सदैव पवित्र होनी चाहिये।

काम पुरुषार्थ अभ्युदय का स्रोत है। यह काम पुरुषार्थ ही है कि जो सांसारिक जीवन को सुखी व समृद्ध बनाता है। इसलिये नियमन व परिष्कार आवश्यक है। काम पुरुषार्थ का नियमन धर्म द्वारा ही किया जा सकता है। इसलिये शिक्षा प्रणाली में धर्म की शिक्षा आवश्यक है। भगवान स्वयं कहते हैं “धर्मविरूधों भूतेषुकामोऽस्मे भरतर्षभ” अतः धर्म का अविरोधी काम भगवान की विभूति है। काम का केन्द्र मन है। अतः मन का उचित शिक्षण करना चाहिये। गीता में भगवान कहते है कि अभ्यास व वैराग्य से मन को नियंत्रण में लाया जा सकता है। काम पुरूषार्थ के साधन इन्द्रियां व मन है। अतः इनको साधने के लिये इन्द्रिय संयम आवश्यक है। यही काम पुरुषार्थ की शिक्षा है। 

मोक्ष पुरुषार्थ : मोक्ष का अर्थ मुक्ति से है। सब प्रकार के बंधनों से मुक्ति का नाम मोक्ष है। सुख-दुःख, राग-द्वेष आदि सभी भावनाओं से परे जाना मोक्ष है। चराचर सृष्टि के एकात्म हो जाना मोक्ष है। मोक्ष प्राप्ति करने के बाद आत्मा अपने शुद्ध स्वरूप में आ जाती है। इसे ही जीवन का उच्चतम लक्ष्य माना गया है। मोक्ष प्राप्ति के बाद व्यक्ति जन्म-मरण के चक्र से मुक्त हो जाता है। भक्तियोग, ज्ञानयोग, कर्मयोग तथा राजयोग इन चारों में से किसी भी मार्ग पर चलने पर अंतिम पड़ाव मोक्ष ही होता है। मोक्ष की अपेक्षा किये बिना भी यदि प्रमाणिकता पूर्वक मार्ग पद चलते रहे तो वह सहज ही मिल जाता है। मोक्ष की चिन्ता न कर शेष तीनों पुरूषार्थ (धर्म, अर्थ, काम) को समुचित आचरण में किया जाए तो मोक्ष अपने आप सुलभ हो जाता है। मोक्ष जीवन की उच्चतम अवस्था है। मोक्ष ज्ञान है। मोक्ष ब्रह्म है। मोक्ष आत्म तत्व है। यदि हम उसके योग्य हो जायें तो वह स्वयं हमारा वरण करता है। इस अवस्था में व्यक्ति शुद्ध, बुद्ध व मुक्त हो जाता है। पुरुषार्थ चतुष्टय की शिक्षा यहां अपने चरम पर होती है।

वस्तुतः उपरोक्त चारों पुरुषार्थ एक दूसरे के पूरक तथा मानवीय जीवन के आधार स्तम्भ है। वे एक ही सत्य के चार अंग है। आचार्य रजनीश के अनुसार अर्थ न काम परार्थवाद के भाग है तथा धर्म और मोक्ष आध्यात्मवाद के भाग है। चारों एक ही व्यक्तित्व के चार पुरुषार्थ हैं।

(लेखक आर्ष साहित्य के अध्येता है।)

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