– गोपाल माहेश्वरी

नगर के अनेक चौराहों पर गरबों की धूम मची थी। रंगबिरंगी तेज जगमगाहट, भक्ति गीतों के पारंपरिक और फिल्मी धुनों वाले गरबा-गीतों की गूंज से आधी रात तक जैसे सारा नगर ही जागरण करता था। गरबा खेलने और देखने वालों की चहल-पहल से सड़कें मेले जैसा वातावरण दर्शा रही थीं। आज मोहिनी भी अपने माता-पिता के साथ गरबा देखने आई थी। दर्शकों के बीच खड़े खड़े ही ढोल की ताल पर उसके पैरों को होले-होले थिरकते देख उसकी माँ शालिनी बोली “तुझे भी खेलना है गरबे? कल तैयार होकर आ जाना और सबके साथ खेलना।”
मोहिनी की जैसे मनचाही बात समझ ली थी शालिनी ने। अगले दिन वह खूब मन से तैयार हुई। गरबे के वेश में वह जैसे देवलोक से उतरी किसी परी जैसी लग रही थी। शाम को वे घर से निकल ही रहे थे कि शालिनी के पास उसकी छोटी बहन का फोन आ गया। किसी अत्यावश्यक काम से शालिनी को उससे मिलने जाना था, इधर सजी-धजी मोहिनी भी तैयार खड़ी थी। दो पल सोचकर शालिनी ने हल निकाला कि मोहिनी भी उसके साथ अपनी मौसी के यहाँ चले, दोनों बहनें जब तक अपना काम करके लौटेंगी, मौसी के घर के पीछे वाले बगीचे में हो रहे गरबों में हो आएगी।
बगीचे वाले गरबास्थल पर भी बहुत भीड़ थी। यह जगह मोहिनी के लिए बहुत परिचित न थी न ही कोई उसे वहाँ पहचानता ही था। वह ही नहीं, एक बार तो शालिनी और उसकी बहन सुहासिनी भी हिचके पर उनका जाना भी आवश्यक था और वे मोहिनी का मन भी नहीं तोड़ना चाहती थीं।
“मोहिनी बेटी! हम जल्दी आ जाएंगीं? तुम जब तक गरबा देख लो। हम आ जाएं तब खेलना।” सुहासिनी ने समझाया।
शालिनी ने कहा “डरना नहीं, मेरी बेटी शेरनी है शेरनी।”
मोहिनी ने बार सोचा कि वह मौसी के घर ही रह ले फिर सोचा इतने लोग तो हैं बगीचे में, वहीं जाकर गरबा देखेगी।
थोड़ी ही देर में गरबा मंडल को घेरे खड़े दर्शकों में सजी-धजी मोहिनी ढोल की थाप पर खड़ी-खड़ी ही थिरकने लगी। तभी एक अपरिचित गरबा खेल रही युवती ने मोहिनी का हाथ पकड़ कर उसे गरबे में खींच लिया। मोहिनी नाचती रही, नाचती रही।
अचानक उसके पैर के अंगूठे में ठोकर लगकर खून आने लगा। वह युवती उसका हाथ पकड़े अपने घर ले गई। अंगूठे का नाखून आधा उखड़ चुका था। बहुत पीड़ा हो रही थी। रात हो चली थी आसपास डाक्टर मिलना कठिन था। उस युवती ने उसके अंगूठे पर ट्यूब लगाकर पट्टी बांधी और एक दर्दनाशक गोली देकर सुला दिया।
लाउडस्पीकर का शोर इतना था कि वे केवल इशारों से बात कर रहे थे। उस युवती को इतना ही पता था कि यह अपरिचित लड़की संभवतः पीछे रहने वाली सुहासिनी के साथ आई थी। मोहिनी को नींद सी आने लगी तो उस युवती ने मोहिनी को ओढ़ाकर सुला दिया और किवाड़ उढ़काकर गरबे में चली गई।

यहाँ तक तो फिर भी ठीक था लेकिन आगे एक बड़ी दुर्घटना खड़ी है यह किसी को भी पता न था।
भीड़ में से दो आँखे न जाने कब से इन पर कुदृष्टि जमाए थी। अचानक वह लड़का उढ़काए हुए किवाड़ को धीरे से खोलकर अंदर आया और किवाड़ पहले की तरह ही उढ़का दिए। वह सोई हुई मोहिनी की और बढ़ा, धीरे से चादर हटाई। दवा के प्रभाव में मोहिनी को लगा तो कि कोई है, पर कौन है, माँ, या वह युवती? उसे नींद की गेल में स्पष्ट नहीं हुआ। वह कहाँ है? उसे यह भी भान न था।
तभी एक अनजाने अपवित्र स्पर्श से जैसे बिजली का करंट लगा हो सारी सुस्ती, सारी नींद उड़ गई। बस पास पड़ी कैंची हाथ आ गई और स्पर्श करने वाले पर तड़ातड़ वार होने लगे। वह युवक घबरा गया। पलट कर भागने लगा कि लड़खड़ा कर औंधे मुंह गिर पड़ा। उसके सिर से उढ़काए दरवाजे का एक पल्ला भी थोड़ा और खुल गया। मोहिनी उछलकर उस पर कूद पड़ी, उसके बाल पकड़कर सिर पीछे खींचा और चेहरे को ताबड़तोड़ कैंची से गोद दिया। वह चीख पड़ा। मोहिनी के मस्तिष्क में एक ही वाक्य घनघना रहा था “मेरी बेटी शेरनी है शेरनी।”
इतने में घर के बाहर से निकल रहे किसी की दृष्टि पड़ गई। उसने शोर मचा दिया। भीड़ एकत्र हो गई। सब देख रहे थे शालिनी की शेरनी आज साक्षात् दुर्गा बनी महिषासुर पर चढ़ी हुई थी।
गरबा महोत्सव की समाप्ति पर दशहरे के दिन मोहिनी को समाज जनों ने ‘दुर्गा सम्मान’ से सम्मानित किया। वह मंच से उतरी तो उसे लड़कियों ने घेर लिया। कोई आटोग्राफ लेना चाहती थी तो कोई सेल्फी। आज एक नई परंपरा का आरंभ की घोषणा की गई ‘वह कैंची जो इस नई दुर्गा का आकस्मिक आयुध बनी थी मंदिर में देवी माँ के चरणों के पास ही स्थापित कर दी गई जिससे और भी दुर्गाएं आत्मरक्षा की प्रेरणा ले सकें।’
(लेखक इंदौर से प्रकाशित ‘देवपुत्र’ बाल मासिक पत्रिका के संपादक है।)
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