– दिलीप बेतकेकर

मैं अभी-अभी एक विद्यालय में शिक्षक पद पर पदस्थ हुआ था। नया ही था विद्यालय में। मेरे से एक-दो वर्ष पूर्व से कार्यरत एक शिक्षक से मैंने सहज ही पूछा – ‘तुम शिक्षक क्यों बने?’
वह बोला, – ‘‘पूर्वजन्म में किये पाप, मास्टर बना अपने आप’’। उसका ऐसा उत्तर सुनकर मैं हक्का-बक्का सा देखता रह गया। कुछ वर्ष पश्चात उसे ‘और अच्छा’ अवसर’ मिलने पर वह विद्यालय छोड़कर चला गया। उस जैसे अनेक लोग शिक्षा क्षेत्र में होंगे। उस मित्र द्वारा दिये गये उत्तर से मुझे एक मराठी कहावत- ‘मांगता येईना भीक तर मास्टर की शिक’’ (अगर भीख भी मांगना आपको नहीं आता तो मास्टरी करो।) का अर्थ समझ में आया। शिक्षक पेशे के लिये स्वयं शिक्षक का ही इस प्रकार का दृष्टिकोण होगा तो समाज आपका आदर सम्मान करेगा, ऐसी अपेक्षा करना क्या उचित है? जिसे आत्मसम्मान की रक्षा करना नहीं आता उसे अन्य लोग कैसे सम्मान देंगे? इसलिये प्रथमतः हमें अपने द्वारा अंगीकार किये पवित्र कार्य के लिये उचित अभिमान करना आवश्यक है।
मास्टर, शिक्षक, अध्यापक, आचार्य और गुरु, ये शब्द ऊपरी तौर पर देखने से समानार्थी लगते हैं, किन्तु प्रत्येक का अर्थ भिन्न-भिन्न है। वह भेद, अंतर जानते हुए ऊपर के उच्च स्तर पर जाने का निरंतर प्रयास करना आवश्यक है। यही वास्तव में ‘‘उन्नयन’’ है। कुछ परिस्थितिवश हम मास्टर, शिक्षक बने हों, किन्तु एक बार स्वीकारने के पश्चात उस कार्य के प्रति निष्ठा रखना आवश्यक है। ‘आचार्य’ शब्द के उच्चारण से अथवा पढ़ने पर कुछ को अटपटा लगता हो, अथवा कुछ ये समझेंगे कि हमें कोई पुराण युग में ले जा रहा है। ‘आचार्य’ शब्द में ‘चर’ धातु है, ‘आ’ ‘उपसर्ग’ है। अपने आचरण द्वारा विद्यार्थियों को व्यवहार, बोलना आदि की प्रेरणा देने वाला ‘आचार्य’ कभी-कभी तो एक शब्द के भी उच्चारण बिना, केवल मौन रहकर शिष्य को सीख देना, उनके व्यवहार में परिवर्तन लाना, उनकी शंकाओं का निरसन करना, आदि की क्षमता से युक्त होता है।
सच्चा गुरु अपने शिष्य को किसी भी कार्य हेतु, किसी पर भी निर्भर न रहते हुए स्वयं की जिम्मेदारी पर कार्य करना सिखाता है, स्वावलम्बी बनाता है। आचार्य विनोबा जी ने उत्कृष्ट तरीके से समझाया है – ‘‘सोलह वर्ष तक स्वावलंबी रहकर शिक्षा ग्रहण’’। विद्यार्थी को अन्य किसी पर निर्भर न रहते हुए कार्य करने की क्षमता को विकसित करने का कार्य आचार्य करता है।
“A good teacher has been defined as one who makes himself progressively unnecessary.”
आचार्य मातृहृदयी होता है। एक माँ जितने प्रेम, वात्सल्य से अपने बच्चे के लिए निरपेक्ष भाव से, कष्ट उठाती है, उतने ही प्रेम, ममता से आचार्य अपने विद्यार्थी के विकास के लिये कार्य करता है। इसीलिये आचार्य विनोबा जी का कथन है कि, ‘‘अध्यापन करना मातृधर्म पालन करने वालों का कार्य है।’’
जिसके हृदय में वात्सल्य भाव नहीं वह ‘मास्टर’ तो बन सकता है परन्तु ‘आचार्य’ नहीं। ‘आचार्य’ अपने शिष्य से कभी कोई व्यक्तिगत अपेक्षा नहीं रखता। कबीर ने गुरु-शिष्य के सम्बन्धों पर सुंदर वर्णन किया है –

सिख तो ऐसा चाहिये गुरु को सब कुछ देय, गुरु तो ऐसा चाहिये सिख से कुछ भी न लेय।
शिष्य, गुरु के चरणों में सर्वस्व अर्पण करने को तैयार है किन्तु गुरु अपने शिष्य से कुछ भी नहीं लेते। ऐसा अपूर्व रिश्ता है गुरु-शिष्य के बीच का। विद्यार्थी के लिये गुरु का स्थान परमेश्वर समान है। इस हेतु आचार्य भी तपस्वी होना चाहिये। आचार्य उसे ही कह सकते हैं जिनका लक्ष्य सदैव ज्ञानवृद्ध की ओर हो। ज्ञान असीमित है, और जो हमारे पास है वह नगण्य है, इस भावना से सदैव नया प्राप्त करने की जिज्ञासा रहेगी। “He is a good teacher who gives equal exercise to his tongue and ears.” हम जितना अधिक पढ़ते जायेंगे उतना अधिक अपने में ज्ञान की कमी को हम अनुभव करेंगे और इसीलिये अधिक ज्ञान प्राप्ति की लालसा बढ़ेगी – “The more I read, the more I know, how little I know.”
मेरा सदैव यह प्रयास रहे कि अपने शिष्य को मैं अधिक से अधिक दे सकूं। इस प्रकार आचार्य भी अपने ज्ञान भंडार की वृद्धि करने के लिये अथक परिश्रम करेगा। आचार्य की ये मेहनत ही विद्यार्थी के लिये प्रेरक है। ‘प्रेरणा देना’ ही आचार्य का मुख्य कर्तव्य है – “He is the best teacher who inspires the child”.
परीक्षा समाप्ति के साथ अध्ययन समाप्त, ऐसी गलतपफहमी समाज में रहती है जो वास्तव में उचित नहीं है। अध्ययन परीक्षा समाप्त होने के साथ समाप्त नहीं वरन् प्रारम्भ होता है। आचार्य की ज्ञानवृद्धि हेतु लालसा विद्यार्थी को भी अधिकाधिक ज्ञान प्राप्ति हेतु प्रवृत्त करती है – “A lamp cannot give light to others unless it continues to burn. A teacher cannot teach unless he continues to learn.” प्रकाश देने हेतु एक दीपक को स्वयं निरंतर जलते रहना आवश्यक है इसी प्रकार शिष्यों को शिक्षित करने हेतु आचार्य को स्वयं निरंतर ज्ञानवृद्ध करना आवश्यक है। विद्यापीठ से प्राप्त उपाधि से संतुष्ट रहने वाला व्यक्ति ‘आचार्य’ नहीं होता। अलबर्ट आईनन्सटाईन ने कहा है, “Education is what you learn after you have forgotten everything you learnt in school”.
आइन्सटीन का यह कथन पसंद भले ही न आये किन्तु सत्य है। वर्तमान में विद्यालय, महाविद्यालयों में विविध विषयों के शिक्षक तो मिलते हैं किन्तु विद्यार्थियों का शिक्षक उपलब्ध होना कठिन है। विषय से पार जाकर विद्यार्थी का विचार जब शिक्षक करता है तब वह ‘आचार्य’ बनता है।
‘आचार्य’ का कर्तव्य विद्यार्थी को केवल पाठ्यपुस्तक, पाठ्यक्रम के विषय का अध्ययन परीक्षा हेतु करवाना, यहीं तक सीमित नहीं है, वरन् विद्यार्थी के संपूर्ण जीवन से एकरूप होना, उनके सुख-दुःखों से समरस होना है। ये सभी कार्य में जो एकरूप, समरस हो सका वह ‘आचार्य’ हुआ।
सामान्य शिक्षक विद्यार्थी के परीक्षा में प्राप्त अंकों की चिंता करता है जबकि आचार्य परीक्षा के अंकों के पार जाकर विद्यार्थी के व्यवहार – आदि गुणों की परख कर उनके गुणों का विकास कैसे हो, इसकी चिंता करता है, गुण संवर्धन की चिन्ता करता है।
शिक्षा प्राप्ति से जीवन उद्देश्य समझने की क्षमता निर्मित होती है, होनी भी चाहिये, वरना शिक्षा निरर्थक होगी। विद्यार्थी को शिक्षा द्वारा जीवन उद्देश्य समझा सके वह है ‘आचार्य’। डॉ॰ राधाकृष्णन् के अनुसार, – “Education is there to help us to find out what we are for in this World.” मैं कौन हूँ? मैं इस जगत में किस लिये आया? मुझे क्या करना है? इन सब प्रश्नों के उत्तर जिसके द्वारा प्राप्त होते हैं वह ‘शिक्षा’ है, और इस कार्य को कार्यान्वित करवाने वाला व्यक्ति है ‘आचार्य’।
शिक्षक साथियों, आज हम शिक्षक हैं, परन्तु ‘नराचा होय नारायण’ (अर्थात मनुष्य भी परमेश्वर हो सकता है) की भांति ही शिक्षक की ‘आचार्य’ बनने की यात्रा भी संभव है। ईश्वर द्वारा इस प्रकार की शक्ति, बुद्धि और युक्ति हम सभी को प्रदत्त है।
(लेखक शिक्षाविद, स्वतंत्र लेखक, चिन्तक व विचारक है।)
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