पुस्तक का नाम : भारतीय शिक्षा के मूल तत्व
लेखक : लज्जाराम तोमर
प्रकाशक : विद्या भारती संस्कृति शिक्षा संस्थान, कुरुक्षेत्र (हरियाणा), Website : www.samskritisansthan.org
संस्करण : संस्करण, सन् 1999
शिक्षा किसी भी देश की सभ्यता और संस्कृति का अनिवार्य अंग है। शिक्षा के द्वारा न केवल व्यक्ति का सर्वांगीण विकास होता है, वरन् सामाजिक एवं सांस्कृतिक विरासत का संरक्षण भी यह करती है। नयी पीढ़ी अपनी संस्कृति के प्रति आस्था और निष्ठा उसी शिक्षा के माध्यम में रख सकती है, जिसका आधार उसकी अपनी संस्कृति हो।
भारत अपने जीवन के उषाकाल से ही ज्ञान की साधना में रत रहा है। सम्भवतः इसका नाम भी इसीलिये ‘भा’ आर्थात् प्रकाश-ज्ञान में रत ‘भारत’ पड़ा है। अपनी विशिष्ट शिक्षा-पद्वति के कारण ही भारत ने सहस्त्रों वर्षों तक न केवल विश्व का सांस्कृतिक नेतृत्व किया, अपितु उद्योग-धन्धों, कला-कौशल एवं ज्ञान-विज्ञान के क्षेत्र में भी अग्रणी रहा है। प्राचीन भारत में ऋषियों ने गणित और विज्ञान की नींव रखी। उन्होंने काल और अवकाश, दोनों को को गणनाबद्ध किया और अन्तरिक्ष को भी नापा। भारतीय ऋषियों ने पदार्थ की रचना का विश्लेषण किया और आत्मतत्व के स्वरुप का साक्षात्कार किया। उन्होंने तर्क, व्याकरण, खगोल शास्त्र, दर्शन, तत्वज्ञान, औषधिविज्ञान, शरीर-रचना विज्ञान और गणित जैसे विविध विविध विषयों में महती प्रगति की। भारतीय समाज के नैतिक गुणों के सम्बन्ध में ई.पू. 300 वर्ष में ग्रीक राजदूत मेगस्थनीज ने लिखा है, “किसी भारतीय को झूठ बोलने का अपराध न लगा। सत्यवादिता तथा सदाचार उनकी दृष्टि में बहुत ही मूल्यवान वस्तुएँ हैं।” इस प्रकार भारतीय शिक्षा-पद्धति के द्वारा भारत ने ज्ञान-विज्ञान के क्षेत्र में ही नहीं, अपितु नैतिक स्तर की दृष्टि से भी बहुत प्रगति की। प्राचीन काल में शिक्षा का जन-सामान्य में प्रसार था। इसी कारण इसका समाज के जीवन पर प्रभाव था।
डा. अल्तेकर के अनुसार उपनिषद्काल में भारत में साक्षरता 80 प्रतिशत थी। उपनिषद् साहित्य के एक राजा का यह कथन कि ‘‘मेरे राज्य में कोई भी निरक्षर नहीं है’’, निराधार नहीं है। तक्षशिला, नालन्दा, वल्लभी, विक्रमशिला, ओदन्तपुरी, मिथिला, नदिया और काशी आदि विश्वविद्यालयों की ख्याति सम्पूर्ण विश्व में फैली हुई थी। बौद्ध काल में जन-सामान्य में शिक्षा-प्रसार को और अधिक प्रश्रय मिला। भारत के प्रायः प्रत्येक प्रमुख ग्राम में एक पाठशाला होती थी। उत्तर प्रदेश, बिहार, बंगाल में ‘टोल’ तथा दक्षिण भारत में अग्रहार’ नाम से हजारों की संख्या में विद्यालय चलते थे। अठारहवीं शताब्दी के मध्य में केवल बंगाल में 80 हजार टोल थे। भारतीय शिक्षा का विशिष्ट उद्देश्य रहा – मानव व्यक्तित्व का उच्चतम विकास। भौतिक एवं आध्यात्मिक, दोनों ही क्षेत्रों में भारतीय विद्यालयों ने ऐसे ज्ञान अविष्कृत किये, जिनके ऋणी आज विश्व के दार्शनिक एवं वैज्ञानिक हैं।
भारत की शिक्षा-व्यवस्था को विदेशी आक्रमणों का भीषण आघात सहन करना पड़ा। मुसलमानों के शासन-काल में यहाँ के शिक्षा केन्द्रों को नष्ट-भ्रष्ट कर दिया गया। किन्तु फिर भी मुस्लिम शासक भारतीय शिक्षा को उतनी हानि नहीं पहुँचा सके, जितनी हानि अंग्रेजों ने पहुँचायी। अंग्रेजों ने मुसलमान शासकों के समान शिक्षा केन्द्रों को जलाकर या ध्वस्त करके नष्ट नहीं किया, प्रत्युत् भारत में अंग्रेजी शिक्षा-पद्धति प्रचलित की। मैकाले की कुटिल नीति के अनुसार ‘अंग्रेजी शिक्षा पद्धति के द्वारा भारतीय केवल शरीर से भारतीय रहेंगे, मन से वे पूर्णतः अंग्रेज बन जायेंगे। ‘उसकी वह नीति सफल हुई। अंग्रेजी शिक्षित भारतीय युवकों के मन में अपने धर्म, संस्कृति एवं जीवन-मूल्यों के प्रति तिरस्कार की भावना भड़क उठी और वे पश्चिमी सभ्यता की ओर आकृष्ट होने लगे। अंग्रेजी शिक्षा के माध्यम से भारत में बहुत बड़ी मात्रा में अंग्रेज अपने मानस-पुत्रों का निर्माण करने में सफल हुए।
भारतीय शिक्षा में राष्ट्रवादी विचारधारा का सीधा सम्बन्ध भारतीयता और राष्ट्रीयता से रहा है। सन् 1947 में जब भारत स्वतंत्र हुआ था, तब भारत के लोगों ने समझा कि भारतीय शिक्षा में भारतीयता और राष्ट्रीयता स्वाभाविक रुप में महत्त्व का स्थान ग्रहण करेंगी। किन्तु अंग्रेजी भाषा और संस्कृति के अधिकतर प्रेमी भारतीय शासन में उच्च पदों पर रहे हैं। इन लोगों के कारण देश में दोहरी शिक्षा-प्रणाली चल रही है। अंग्रेजी माध्यम के विद्यालयों में धनी वर्ग के बच्चे पढ़ते है और हिंदी माध्यम के विद्यालय मध्यम और निम्न वर्गों के बच्चों के लिये हो गये हैं। इस प्रकार अपने देश में शिक्षा के माध्यम की समस्या इसलिये उत्पन्न हुई है कि भारतीय शिक्षा के मूल तत्वों की उपेक्षा की गयी है।
दुर्भाग्यवश स्वतन्त्रता-प्राप्ति के पश्चात् भारत में आज भी थोडे़-बहुत बाह्य परिवर्तन के साथ वही विदेशी-पद्धति प्रचलित है। उसी के परिणामस्वरूप आज भारतीय जन मानस विनाश के कगार पर आ खड़ा हुआ है। एक विद्वान के अनुसार, “वर्तमान भारतीय शिक्षा न भारतीय है और न शिक्षा।” प्रत्येक राष्ट्र का भविष्य उसकी शिक्षा-व्यवस्था पर निर्भर है, अतः सभी वर्तमान शिक्षा पद्धति में परिवर्तन लाने की आवश्यकता अनुभव कर रहे हैं। यह सन्तोष का विषय है कि गैर-सरकारी क्षेत्र में इस दिशा में कुछ प्रयास भी आरम्भ हुए हैं तथा प्रचलित शिक्षा-पद्धति के विकल्प के रूप में भारतीय शिक्षा-पद्धति के विकास हेतु देश में चिन्तन चल पड़ा है और कुछ प्रयोग भी हो रहे हैं।
इस चिन्तन एवं प्रयोगों के फलस्वरूप यह ‘भारतीय शिक्षा के मूल तत्व’ ग्रन्थ प्रस्तुत है।
भारत में आज ऐसे अनेक शिक्षाविद् एवं विचारक हैं जो भारतीय शिक्षा के मूल तत्वों की ओर हमारा ध्यान आकर्षित करते हैं और बताते हैं कि किस प्रकार बालक-बालिकाओं में देश-प्रेम एवं सद्गुण उत्पन्न किये जायें। यह हर्ष का विषय है कि विद्या भारती अखिल भारतीय शिक्षा संस्थान के संगठन मंत्री श्री लज्जाराम तोमर अध्ययन-मनन करके ‘भारतीय शिक्षा के मूल तत्व’ नामक ग्रन्थ की रचना की है। इन्होंने बड़े परिश्रम एवं लगन से भारतीय शिक्षा के मूल तत्वों का विवेचन किया है। श्री तोमर ने यह स्पष्ट किया है कि हमारी शिक्षा कैसी होनी चाहिए। इस निमित्त इन्होंने उपयोगी सुझाव भी दिये हैं।
श्री लज्जाराम तोमर का चिन्तन अनेक दृष्टियों से मौलिक है। इनकी भाषा और शैली प्रभावकारी हैं। हमें आशा है कि श्री तोमर के इस ग्रन्थ का शिक्षा-जगत् समुचित स्वागत करेगा और वे सभी उनके ग्रन्थ से लाभान्वित होंगे जो शिक्षा द्वारा नव राष्ट्र-निर्माण के कार्य में संलग्न हैं।