✍ डॉ. पिंकेश लता रघुवंशी
कहते हैं किसी भी स्थान की प्रकृति को नष्ट करना है, तो उस स्थान पर प्रवाहित जल स्रोतों में विष घोल दीजिये, उस स्थान पर पाए जाने वाले समस्त जैविक जीव नष्ट हो जायेंगे। उसी प्रकार किसी राष्ट्र का स्वत्व, उसका गौरव समाप्त करना है तो उस देश की शिक्षा व्यवस्था में विष घोल दीजिये, उस राष्ट्र का स्वाभिमान स्वतः समाप्त हो जायेगा।
कुछ ऐसा ही प्रयोग अंग्रेजी शासन व्यवस्था ने इस अजेय राष्ट्र की संस्कृति और स्वाभिमान को समाप्त करने के लिए मैकाले की शिक्षा पद्धति लाकर किया जिसे हजारों वर्षों के शकों, हूणों, कुषाणों, मुगलों के आक्रमण भी नष्ट नहीं कर सके। भारतीय शिक्षा वैदिक कालीन युग से प्रत्येक नागरिक को स्वत्व, स्वाभिमान और स्वाबलम्वन के साथ साथ समन्वय के गुणों को भी आत्मसात करने की शिक्षा देने वाली थी।
वैदिक कालीन विद्या के उन्हीं मूल भावों को अपने जीवन, लेखन से प्रकाशित करने वाले ऐसे व्यक्तित्व का नाम है, मा. लज्जाराम जी तोमर। जिनकी श्वांस श्वांस से भारतीय शिक्षा के मूल भाव दृष्टव्य होते थे। जिनके द्वारा लिखी गई पुस्तक ‘भारतीय शिक्षा के मूल तत्व’ के लिए श्रमण दिवाकर जैनाचार्य ब्रह्मलीन १००८ श्री विद्यासागर जी महाराज कहते हैं “यह पुस्तक बीज रूप होकर भी वटवृक्ष के समान फल देने वाली है, इसको सभी के द्वारा पढ़ा जाना चाहिए। यह शिक्षा के क्षेत्र में बहुत ही उपयोगी सिद्ध होने वाली है”। कितनी सारस्वत और मूर्धन्य व्याख्या एक संत वाणी से भारतीय शिक्षा को समर्पित एक पुस्तक के लिए हुई है, तो उस पुस्तक के रचियता का जीवन कैसा रहा होगा?
लज्जाराम तोमर का जन्म 21 जुलाई 1930 को मध्यप्रदेश के मुरैना जनपद के ग्राम बघपुरा के एक कृषक परिवार में हुआ था। आप 1945 में संघ के स्वयंसेवक बने। सन् 1957 में एम.ए.बी.एड. करने के उपरान्त 1958 में आपने प्राध्यापक पद छोड़कर संघ योजना से चलने वाले सरस्वती शिशु मंदिर आगरा के संस्थापक प्रधानाचार्य का दायित्व ग्रहण किया। आपने शिक्षा में अनेक नवाचार करते हुए प्रधानाचार्य के पद को सार्थक किया। तोमरजी सन् 1961 में सरस्वती विद्या मंदिर इंटर मीडिएट कॉलेज के संस्थापक प्रधानाचार्य बने। और सन् 1972 में उन्होंने भारतीय शिक्षा समिति उत्तर प्रदेश के संस्थापक मंत्री का दायित्व सम्हाला और उत्तर प्रदेश के सभी शिशु मंदिरों का प्रवास कर उन्हें भारतीय शिक्षा की ओर उन्मुख किया। सन् 1977 में इन्टर कॉलेज के प्रधानाचार्य पद से त्यागपत्र देकर तोमर जी रा. स्व. संघ के प्रचारक बने और अपना सम्पूर्ण जीवन राष्ट्र सेवा में खपा दिया। सन् 1979 में आपको विद्या भारती अखिल भारतीय शिक्षा संस्थान के संगठन मंत्री का दायित्व मिला। आपने संगठन को भारतीय शिक्षा दर्शन के अधिष्ठान पर आगे बढ़ाकर उसे सही अर्थों में संस्कार देने वाले विद्यालयों का गौरव दिलवाया।
‘भारतीय शिक्षा के मूल तत्व’ ये पुस्तक वास्तव में शिक्षा से संबद्ध हर उस व्यक्ति के लिए पाथेय है जो नव पीढ़ी को गढ़ने में कहीं न कहीं किसी भी रूप से सलंग्न है फिर चाहे वो अभिभावक हो, आचार्य हो, प्रबंधन समिति में हो या नीति निर्धारक की भूमिका में हो। यह पुस्तक उस अमृत कलश के समान है जिसकी एक बूंद भी जीवन को सार्थक कर दे। “बालक पढ़ते हैं न कि शिक्षक पढ़ाते हैं” यह वाक्य होने को बहुत ही छोटा किंतु कितना गूढ़ अर्थ समेटे है। शिक्षा को समाज से जोड़ते हुए मा. लज्जाराम जी कहते हैं “शिक्षा का संबंध जितना व्यक्ति से है, उससे अधिक समाज से है। मानव- जीवन में जो भी कुछ अर्जित है वह शिक्षा का ही परिणाम है। व्यक्ति का चरित्र, व्यक्तित्व, संस्कृति, चिंतन, सूझबूझ, कुशलताएँ, आदतें तथा जीवन की छोटी से छोटी बातें शिक्षा पर निर्भर हैं।”
भारतीय जीवन दर्शन को इस राष्ट्र की आत्मा मानते हुए वे शिक्षा में भी इसे समाहित करने के प्रबल पक्षधर रहे। अपनी बात रखते समय वे कहते हैं कि “स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात से लेकर आज तक भारतीय शिक्षा का दर्शन निश्चित नहीं हो सका।” तोमर जी भारतीय समाज और राजनैतिक नेताओं के दोहरे मापदंड से अत्यधिक आहत थे, वास्तव में सनातन नैतिक मूल्यों से रहित जीवन न केवल हमारी चिंतन प्रक्रिया को दिग्भर्मित करता है अपितु समाज जीवन में भी शून्यता दर्शाता है। भारतीय नागरिक जीवन मूल्यों को लेकर बातें बड़ी बड़ी करते हैं किंतु वास्तविकता व्यवहार में दिखाई देती ही नहीं। इसीलिए भारतीय शिक्षा को भी दिशाहीन बताते हुए वे कहते हैं “यहाँ के शिक्षा शास्त्री, जिनके हाथों में शिक्षा की आज बागडोर है, समस्याओं के समाधान हेतु भारत के बाहर के देशों की ओर देखते हैं। कार्यानुभव का विषय हो, अथवा बहु उद्देशयीय विद्यालय योजना या पड़ोसी विद्या की कल्पना हो, इन्होंने रूस, ब्रिटेन एवं अमेरिका का अनुकरण मात्र किया है। यहाँ के समाज की प्रकृति एवं संस्कृति का इन शिक्षा शास्त्रियों ने कोई विचार ही नहीं किया। उसी का परिणाम है कि आज का तथाकथित शिक्षार्थी एवं शिक्षक दिशाविहीन एवं बिना पतवार की नौका के समान भटकते हुए दिखाई देते हैं।” शिक्षा में स्वत्व के भाव को समाहित करने की उनकी तड़प इन वाक्यांशों से स्पष्टता से झलकती हैं।
मन को बिना पढ़े, बिना समझे, बिना जाने भला सांसारिक ज्ञान की प्राप्ति कैसे संभव है? इसीलिए मन के विज्ञान को समझते हुए शिक्षा का स्वरूप गढ़ना चाहिए, किंतु क्या पाश्चत्य मनोविज्ञान के सिद्धांतों पर आधारित शिक्षा भारतीय समाज के अनुरूप हो सकती है? नहीं! अतः लज्जाराम जी ने भारतीय मनोविज्ञान को ही भारतीय शिक्षा के अनुरूप मानते हुए वे कहते हैं- “भारतीय मनोविज्ञान के अध्ययन से पश्चयात्य मनोविज्ञान की अपूर्णता की पूर्ति भी होगी और इस प्रकार शिक्षा जगत को एक सर्वांगपूर्ण मनोविज्ञान उपलब्ध हो सकेगा।” भारतीय जीवन शैली संस्कृति और संस्कारों के समावेश से चलने वाली जीवन पद्धति है, संस्कार विहीन समाज निरंकुश और अमर्यादित हो जाता है इसलिए लज्जाराम जी आगे कहते हैं कि “भारतीय मनोविज्ञान के अनुसार संस्कार- सिद्धांत शिक्षा का मूलाधार है। संस्कारों के आधार पर ही शिक्षा के द्वारा बालक का शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक, नैतिक एवं आध्यात्मिक विकास होता है। अधिगम की संपूर्ण क्रिया इस संस्कार सिद्धांत पर ही आधारित है।” संपूर्ण विश्व आज मानसिक अशांति के दौर से गुजर रहा है। अल्पायु के बालक-बलिकाएं तक मानसिक परेशानियों से ग्रस्त होते जा रहे हैं। धन, यश, वैभव संपूर्ण संसाधनों के होने के बाद भी मनुष्य शांति और संतुष्टि की खोज में भटक रहा है। इसीलिए लज्जाराम जी योग को शिक्षा से जोड़ते हुए कहते हैं कि “हमारी प्राचीन योग विद्या की पद्धति ही इसका समाधान है।” चित्त की एकाग्रता ही शिक्षा का सार है। चित्त ही शिक्षा का वाहन है। भारतीय चिंतन में चित्तवृत्ति निरोध को ही शिक्षा का लक्ष्य माना है। चित्त की वृत्तियों का निरोध ही योग है, और योग आधारित शिक्षा ही यथार्थ में शिक्षा है।
वर्तमान समय में शिक्षा को मात्र जीवन यापन के साधन के रूप में ही स्वीकार किया जाता है। शिक्षा प्राप्त करने का एकमात्र उद्देश्य रोजगार प्राप्त करना ही स्थापित कर दिया गया है। जबकि लज्जाराम जी के अनुसार “शिक्षा के उद्देश्य मनुष्य जीवन के उद्देश्यों से भिन्न नहीं है। शिक्षा मानव की उन अंतर्निहित शक्तियों, कुशलताओं एवं गुणों का विकास करती है जिनसे वह अपने जीवन के उद्देश्यों को प्राप्त करने में सफल होता है।” वैदिक कालीन भारत से लेकर आधुनिक भारत के सभी मनीषी शिक्षा के प्रति जो विचार व्यक्त करते रहे हैं उनमें शाब्दिक भिन्नता भले ही हो किंतु भाव एक समान ही हैं। जिसे लज्जाराम जी कहते हैं- “भारतीय शिक्षा दर्शन एवं मनोविज्ञान के प्रकरणों के विवेचन की पृष्ठभूमि को दृष्टिगत रखते हुए शिक्षा के उद्देश्यों को पंचमुखी शिक्षा के रूप में निर्धारित किया जा सकता है। पंचमुखी शिक्षा अर्थात शारीरिक शिक्षा, व्यवसायिक शिक्षा, मानसिक शिक्षा, नैतिक शिक्षा और आध्यात्मिक शिक्षा।” जिनके द्वारा बालक का सर्वांगीण विकास होता है, जो कि शिक्षा का वास्तविक उद्देश्य है।
बालक माँ के गर्भ से जन्म लेते ही सबसे पहले जिस भाषा को सुनता है, जिसमें अपने परिजनों को संवाद व्यवहार करते देखता है, वह उसकी मातृभाषा होती है। मातृभाषा में ही वो सर्वोत्तम तरीके से अपने मनाभावों को व्यक्त कर सकता है। इसीलिए मातृभाषा में शिक्षा की अनिवार्यता के साथ साथ लज्जाराम जी ने शिक्षा में त्रि-भाषा सूत्र की व्यवस्था का उल्लेख किया है।
१. प्रथम मातृभाषा – जो कि प्राथमिक स्तर पर शिक्षा का माध्यम हो।
२. द्वितीय भाषा हिंदी – हिंदी का द्वितीय भाषा के रूप में शिक्षण आरंभ किया जाए, जिससे बहुभाषी भारत वर्ष में हिंदी संपर्क भाषा के रूप में स्थापित हो सके।
३. तृतीय भाषा संस्कृत – संस्कृत हमारी संस्कृति की भाषा है, इसलिए इसका तृतीय भाषा के रूप में अध्ययन होना चाहिए।
अंग्रेजी व अन्य विदेशी भाषाओं के अध्ययन का विरोध नहीं है, किंतु उन्हें ही प्राथमिकता हो इस विचार का विरोध होना चाहिए। वे कठोर शब्दों में कहते हैं- “कुछ लोगों की आवश्यकता के कारण अंग्रेजी भाषा को देश के सभी छात्रों पर लादना घोर राष्ट्रीय आत्मघात है।”
शैक्षिक उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए पूर्ण वैज्ञानिक, शिक्षण सिद्धांतों पर आधारित युगानुकूल शिक्षण पद्धति अत्यावश्यक है। यदि शिक्षण की पद्धति ही ठीक नहीं है तो समस्त सिद्धांत एवं आदर्श कोर सिद्धांत और आदर्श बन कर रह जायेंगे। इसलिए लज्जाराम जी के अनुसार- “हम भारतीय शिक्षा-सिद्धांतों, आदर्शों एवं शैक्षिक उद्देश्यों को साकार रूप देने वाली शिक्षण पद्धति को अपनाये”। भारतीय शिक्षण पद्धति जिसे 1952 में संघ योजना से राष्ट्रीयता के विचारों से ओतप्रोत कार्य करने की रीति नीति का सरस्वती शिशु मन्दिर योजना का गोरखपुर उत्तर प्रदेश में जो बीजारोपण हुआ और जिस विचार के लिए मा. लज्जाराम जी ने अपना संपूर्ण जीवन समिधा के समान समर्पित कर दिया उसका प्रतिबिंब आज भी संपूर्ण देश में दिखता है। इस अभिनव शिक्षा पद्धति को पंचपदी शिक्षण पद्धति कहा जाता है जिसके पांच पद – अधीति, बोध, अभ्यास, प्रयोग और प्रसार हैं, जिनके माध्यम से छात्र सभी विषयों का ज्ञान प्राप्त करते हैं। पंचपदी शिक्षण पद्धति से छात्रों द्वारा अर्जित ज्ञान अनुभवजन्य, संपूर्ण और स्थायी होता है।
विद्यालयो के वातावरण को लेकर भी मा. लज्जाराम जी कहते हैं कि विद्यालय सरस्वती के पवित्र मन्दिर होते हैं अतः ये पूर्ण संस्कारक्षम होने चाहिए। भवन सरल, सुंदर और पवित्रता युक्त हों। छात्रों व आचार्यो के मध्य परस्पर प्रेम, आत्मीयता, सद्भावना व सम्मान का व्यवहार होना चाहिए। हमारे विद्यालय सामाजिक चेतना के केंद्र बनें। समाज में समय समय पर चलने वाले विषयों फिर चाहे वह समरसता हो, स्वत्व का बोध हो, नागरिक दायित्वों की पूर्ति हो या पर्यावरण से संबंधित कोई बात हो, हमारे विद्यालय, उसमें अध्ययन कर रहे भैया-बहिन, दीदी-आचार्य अथवा प्रबंधन समिति सभी का ही समाज को प्रेरित करने वाली गतिविधियों में सीधी सहभागिता भी हो और समाज के अनेक विषयों के समाधान उपलब्ध कराने में सहभागी भी बनें। परीक्षा आधारित मूल्यांकन पर नहीं अपितु स्व-मूल्यांकन की पद्धति से निकले हुए हमारे भैया-बहिन समाज और राष्ट्र की यथा योग्य सेवा कर सकें, नेतृत्व कर सके।
वास्तव में मा. लज्जाराम जी तोमर जी की ‘भारतीय शिक्षा के मूल तत्व’ ये पुस्तक नहीं अपितु उनके द्वारा लिपिवद्ध किया गया भारतीय शिक्षा का एक प्रतिमान है जो हम सभी शिक्षा से जुड़े हुए कार्यकर्त्ताओं के लिए चलने के लिए एक अभिष्ट पथ है जिस पर चलकर हम सभी परम वैभवी बनने जा रहे राष्ट्र की सेवा में आहूत एक कण बन सकेंगे और इस जन्म जयंती पर मा. लज्जाराम जी के श्रीचरणों में बस यही भाव व्यक्त कर सकें कि “हे मनीषी आपके दिखाये पथ पर हम सफलता पूर्वक चल सके और स्वत्व से परिपूर्ण स्वाभिमानी भारत का स्वप्न साकार कर सकें”।