भारतीय परम्परागत खेल : बाल विकास का सशक्त माध्यम

  ✍ अवनीश भटनागर

उत्साह, जोश, मस्ती तथा रोमांच से भरपूर खेलकूद बच्चों को तो क्या, बड़ों को भी पसन्द हैं। दुनियाँ के सभी देशों में खेलों का एक विस्तृत इतिहास रहा है। भारत में तो प्रत्येक अवसर विशेष के लिए, प्रत्येक आयु वर्ग के लिए तथा यहाँ तक कि विभिन्न पर्व-त्यौहारों के लिए खेलों की पर‌म्परा प्राचीन काल से ही चली आ रही है। केरल में ओणम के अवसर नौकायन की स्पर्धा से लेकर ओडिशा की बाली जात्रा, और उत्तर भारत में कुश्ती, कबड्डी, खो-खो और तैराकी आदि के प्रमुख खेल हैं जो बड़ी आयु के लोगों में भी लोकप्रिय हैं। भारत की सभी प्रमुख भाषाओं के साहित्य में, पौराणिक आख्यानों में, लोक कथाओं में भी खेलों का उल्लेख मिलना है। सूरदास के पदों में ग्वाल बालों के साथ श्रीकृष्ण के गेंद खेलने, आपस में लड़ने-झगड़ने, रुठने-मनाने का वर्णन आता और गेंद के यमुना के जल में चले जाने पर कालिय नाग के मानमर्दन की कथा हम सबको ज्ञात है। मुंशी प्रेमचन्द की प्रसिद्ध कथा ‘गुल्ली-डण्डा’ को बाल-युवा मनोविज्ञान का दस्तावेज कहा जा सकता है।

आज के व्यस्तता भरे जीवन में, समय तथा स्थान की उपलब्धता के अभाव में भी खेलों के प्रति आकर्षण कम नहीं हो सका है, उसका स्वरूप भले ही बदल गया हो।

वर्ष 2020 कोरोना की वैश्विक आपदा से अलग दो सकारात्मक बातों के लिए भी स्मरण रखे जाने योग्य है। पहली है, राष्ट्रीय शिक्षा नीति की घोषणा तथा दूसरी, भारत के माननीय प्रधानमंत्री जी द्वारा Vocal for Local का आह्वान। भारत की शिक्षा नीति और अर्थनीति के ये परिवर्तन कालक्रम से समाजनीति और राजनीति में भी व्यापक परिवर्तन के कारक बनेंगे, ऐसी आशा की जा रही है। इन दोनों नीतियों के मूल में भारत तथा भारतीयता के गौरव का भाव अन्तर्निहित है। जहाँ एक ओर राष्ट्रीय शिक्षा नीति ‘भारत केन्द्रित शिक्षा’ का उल्लेख प्रारम्भ में ही करती है, आगे के अध्यायों में पाठ्यक्रम में कला के समावेश (Art Integration ) तथा गतिविधि आधारित अनुभवजन्य अधिगम (Activity based experiential learning) की बात कहती है, वहीं दूसरी ओर, अर्थनीति तो पूरी तरह स्थानीय उत्पादन, बाजार को बढ़ावा देने तथा विदेशी बाजारों पर भारतीय समाज की निर्भरता को कम करने के विचार पर ही आधारित है।

उपर्युक्त दोनों नीतियों के इस ‘भारत तथा भारतीय‌ता’ के मूल विचार का सह-सम्बन्ध यदि भारतीय खेलों की सुदीर्घ परम्परा के साथ जोड़ा जाए तो शिक्षा के एक सशक्त माध्यम के रूप में परम्परागत भारतीय खेलों को स्थान दिया जा सकता है।

परम्परा‌गत भारतीय खेलों की कुछ मूलभूत विशेषताओं को निम्नांकित प्रकार से चिह्नांकित किया जा सकता है :

  • अधिकांश परम्परागत भारतीय खेल शून्य निवेश (Zero investment) प्रकार के हैं अर्थात या तो उनमें कोई साधन-संसाधन-उपकरण (equipment) की आवश्यकता होती ही नहीं अथवा यदि होती भी है तो स्थानीय आधार पर उपलब्ध सामग्री से निर्मित। भारत जैसे विशाल देश में जहाँ कभी भी सभी विद्यालय और अभिभावक बच्चों की खेल सुविधाएँ उपलब्ध कराने के लिए धन व्यय नहीं कर सकते, अधिकांश भारतीय खेल सर्वसुलभ हो जाते हैं। इन्हें within the reach of common man कहा जा सकता है।
  • खेलों के विषय में कुछ बातें सभी शिक्षाविद् तथा विचारवान कहते हैं, जैसे खेलों से शारीरिक विकास (गति, लोच, संतुलन आदि) होता है, टीम भावना पनपती है, खेल भावना के कारण हार या जीत की स्थिति में समभाव (Sportsmen spirit) का विकास होता है, शरीर सबल, सुदृढ़, संतुलित, निरोगी बनता है, स्वस्थ शरीर में स्वस्थ मस्तिष्क का वास होता है, आदि-आदि। सभी भारतीय पारम्परिक खेल इन सभी मापदण्डों पर खरे उतरते हैं। इनके अतिरिक्त भारतीय खेल शैक्षिक गतिविधियों के रूप में भी उपयोगी हैं जिनसे पाठ्यवस्तु को रोचक बनाया जा सकता है।
  • शारीरिक विकास तथा मनोरंजन के साथ-साथ बौद्धिक विकास, एकाग्रता वृद्धि, तर्कक्षमता विकास आदि की दृष्टि से भी अनेक भारतीय खेल उपयोगी हैं। शारीरिक शिक्षा के 5S सिद्धान – गति (Speed), बल (Strength), क्षमता (Stamina), कुशलता (Skill) तथा रणनीति (Strategy) के पाँचों गुणों को किसी भी परम्परागत भारतीय खेल में देखा जा सकता है।
  • अधिकांश भारतीय खेलों में कोई वाक्य, गीत की पंक्ति या संवाद जुड़ा रहता है। बहुत बार वह निरर्थक सा भी जान पड़ता है परन्तु यदि उसे ध्यान से सुना जाए तो उसमें से कोई प्राचीन संदर्भ, कुछ सिखाने का उद्देश्य, लयबद्धता, उत्साह सृजन आदि का स्वर सुनाई देता है। बुन्देलखण्ड और बृज के बच्चे खेलते समय ‘ओना मासी धम’ बोलते हैं जोकि ‘ॐ नमः सिद्धम्’ का बोलचाल में बिगड़ गया रूप ही है।
  • पहले से चले आ रहे परम्परागत खेलों के कोई कठोर, मान्यता प्राप्त नियम नहीं होने से स्थानीय आवश्यकता, साधनों की उपलब्धता, प्रतिभागियों की संख्या कम या अधिक होने पर तत्काल स्वरूप परिवर्तन किया जा सकता है। इससे बालकों में रचनात्मकता तथा तर्कक्षमता का विकास होता है। सब प्रतिभागी आपस में बातचीत और कभी कभी बहस कर के भी खेल के नियमों में बदलाव कर लेते हैं। विचारों में प्रारंभ में विरोध होने पर भी अंततः मिल-जुल कर लिए गए सामूहिक निर्णय पर सबकी सहमति और सबको पालन करना – यही तो लोकतंत्र का आधार है जो इन खेलों की सहायता से स्वत: विकसित होता है।
  • भारत विशाल देश हैं जिसमें क्षेत्रों-प्रान्तों में भाषा-भूषा-भोजन आदि में पर्याप्त विविधता देखी जाती है किन्तु एक राष्ट्र और संस्कृति के रूप में भारत में एकात्म भाव है, है यह बात भारत के परम्परागत खेलों में भी दिखाई देती है। भाषा-भेद के साथ अलग-अलग स्थानों पर उसी खेल का नाम अलग पाया जाता है। यह संस्कृति को व्यवहार में लाने का सशक्त माध्यम हैं।
  • परम्परागत भारतीय खेलों की एक तालिका उस टिप्पणी के साथ प्रस्तुत है, जिसमें खेलों का वर्गीकरण मैदान के खेल (outdoor) तथा कमरे के अंदर के खेल (indoor) के अतिरिक्त दो आधारों पर किया गया है :

(क) प्रान्त / क्षेत्र के आधार पर – संभावना है कि इनमें कुछ खेल ऐसे हो सकते हैं जिन्हें भाषा-भेद के कारण किसी अन्य प्रान्त में किसी दूसरे नाम से खेला जाता है। उदाहरण के लिए, पत्थरों की ढेरी को गेंद से मार कर गिराने और पुन: जमाने के खेल को पिट्टू, गेंदवड़ी, सुतौलिया भी कहा जाता है और कबड्डी को ‘हु-तू-तू’ भी।

(ख) राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 में विद्यालयीन शिक्षा के जिस स्वरूप अर्थात् 5+3+3+4 का उल्लेख है, उसी आयु वर्ग के आधार पर। यद्यपि कोई भी खेल किसी भी आयु वर्ग द्वारा खेला जा सकता है किन्तु शारीरिक क्षमता तथा उस खेल के माध्यम से होने वाले शारीरिक मानसिक विकास को ध्यान में रख कर पहले 5 वर्ष को शिशु आयु वर्ग, दूसरे 3 को बाल वर्ग, तीसरे 3 को किशोर तथा चौथे 4 वर्ष को किशोर-तरुण आयु वर्ग के रूप में खेलों को सूचीबद्ध किया गया है।

आशा है, उपर्युक्त विवरण भारत के परम्परागत खेलों की शिक्षण माध्यम के रूप में उपयोगिता को स्पष्ट करने के लिए पर्याप्र होगा। आज जब दुनियाँ भर में Back to Roots (जड़ों की ओर लौटो) का आह्‌वान किया जा रहा है, भारत की खेल परम्परा को भी नई पीढ़ी के संज्ञान तथा अभ्यास में लाने के लिए पाठ्यक्रम के साथ जोड़ कर जन-जन तक पहुंचाने की इस महत्वाकांक्षी योजना को अमल में लाया जाता निश्चय ही Rooted in culture, committed to progress युवा पीढ़ी के निर्माण में सहायक होगा।

(लेखक विद्या भारती के अखिल भारतीय महामंत्री है।)

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