✍ प्रशांत पोळ
हाल ही में एक समाचार पत्र में यह समाचार प्रकाशित हुआ था कि विभिन्न प्रकार की खोज और शोध के अनुसार हमारी पृथ्वी की आयु लगभग 4.5 बिलियन वर्ष आंकी गई है… अर्थात् 454 करोड़ वर्ष।
मजे की बात यह है कि हमारे पुराणों में इस बात का स्पष्ट उल्लेख है। अंग्रेजों ने हमारे पुराणों को Mythology नाम दिया है, जो Myth शब्द से तैयार किया गया है। Myth का अर्थ है ‘सत्य प्रतीत होने वाला झूठ’, अर्थात् Mythology का अर्थ अंग्रेजों ने निकाला, ‘जो सच नहीं है, वह…’ इसका दूसरा अर्थ यह है कि जो भी पुराणों में लिखा है, उसे सच नहीं माना जा सकता। पुराण केवल दादा-दादी की, नाना-नानी की भगवान भक्ति के लिए, भजन-कीर्तन के लिए ठीक हो सकता है। परन्तु वास्तव में उसकी कोई कीमत नहीं है। अंग्रेजों के अनुसार पुराणों में वर्णित बातों को प्रमाण नहीं माना जा सकता। उनका कोई ऐतिहासिक आधार नहीं है।
अब विष्णु पुराण के तीसरे अध्याय में स्थित इस श्लोक को देखिये –
‘काष्ठा पञ्चदशाख्याता निमेषा मुनिसत्तम।
काष्ठात्रिंशत्कला त्रिंशत्कला मौहूर्तिको विधिः ॥ १,३.८ ॥
तावत्संख्यैरहोरात्रं मुहूर्तैर्मानुषं स्मृतम्।
अहोरात्राणि तावन्ति मासः पक्षद्वयात्मकः ॥ १,३.९ ॥
तैः षड्भिरयनं वर्षं द्वेऽयने दक्षिणोत्तरे।
अयनं दक्षिणं रात्रिर्देवानामुत्तरं दिनम् ॥ १,३.१० ॥
दिव्यैर्वर्षसहस्रैस्तु कृतत्रेतादिसंज्ञितम्।
चतुर्युगं द्वादशभिस्तद्विभागं निबोद मे ॥ १,३.११ ॥
चत्वारित्रीणि द्वे चैकं कृतादिषु यथाक्रमम्।
द्विव्याब्दानां सहस्राणि युगोष्वाहुः पुराविदः ॥ १,३.१२ ॥
तत्प्रमाणैः शतैः संध्या पूर्वा तत्राभिधीयते।
सन्ध्यांशश्चैव तत्तुल्यो युगस्यानन्तरो हि सः ॥ १,३.१३ ॥
सन्ध्यासंध्यांशयोरन्तर्यः कालो मुनिसत्तम।
युगाख्यः स तु विज्ञेयः कृतत्रेतादिसंज्ञितः ॥ १,३.१४ ॥
कृतं त्रेता द्वापरश्च कलिश्चैव चतुर्युगम्।
प्रोच्यते तत्सहस्रं व ब्रह्मणां दिवसं मुने ॥ १,३.१५ ॥
महाभारत में भी इस कालगणना का वर्णन किया गया है –
काष्ठा निमेषा दश पञ्च चैव त्रिंशत्तु काष्ठा गणयेत्कलां ताम्।
त्रिंशत्कलश्चापि भवेन्मुहूर्तो भागः कलाया दशमश्च यः स्यात्।।
त्रिंशन्मुहूर्तं तु भवेदहश्च रात्रिश्च सङ्ख्या मुनिभिः प्रणीता।
मासः स्मृतो रात्र्यहनी च त्रिंशु त्संवत्सरो द्वादशमास उक्तः।।
– महाभारत, (शांतिपर्व), 238वां सर्ग
इसके अनुसार –
15 निमिष (पलक खुलने – झपकने का समय) 1 कष्ट
30 कष्ट – 1 कला
30 कला – 1 मुहूर्त
30 मुहूर्त – 1 दिन/रात्रि
30 दिवस/रात्रि – 1 महीना (मास)
6 महीने – 1 अयन
2 अयन – 1 मानवी वर्ष
360 मानवी वर्ष – 1 दैवी वर्ष
12,000 दैवी वर्ष – 4 युग
43,20,000 मानवी वर्ष – 1 चौकड़ी
72 चौकड़ियां (चतुर्युग) – 31 कोटि 10 लाख 40 हजार वर्ष – 1 मन्वंतर
इस प्रकार जब 14 मन्वंतर हो जाते हैं, तब वह ब्रह्मदेव का एक दिवस होता है।
14 मन्वंतर – 435.45 करोड़ मानवी वर्ष
ब्रह्मदेव का 1 दिवस
ब्रह्मदेव का दिवस/रात्रि 870.91 कोटि मानवी वर्ष (सृष्टि का आरम्भ/अंत)
अभी चौदह में से सातवां वैवस्वत मन्वंतर चल रहा है। इसका अट्ठाईसवां युग ही कलियुग है। अर्थात् 435.45 करोड़ + 28 युग (3 करोड़ 2 लाख वर्ष) = 438.65 करोड़ वर्ष।
दूसरी मजे की बात यह है कि अथर्ववेद में भी सृष्टि की आयु के बारे में एक श्लोक है –
शतं ते युतंहायानान्द्वे युगे त्रीणी चत्वारि ।। अथर्ववेद ८.२.२१ ।।
इस श्लोक की गणना के अनुसार सृष्टि की आयु है – 432 करोड़ वर्ष
कहने का अर्थ ये है कि अंग्रेजों द्वारा हमारे जिन पुराणों को ‘सत्य लगने वाला झूठ’ कहकर प्रचारित किया गया है, उन पुराणों के अनुसार सृष्टि का निर्माण काल 438.65 करोड़ वर्ष है। और कथित आधुनिकतम विज्ञान द्वारा एकदम सटीक और तमाम प्रयोगों के बाद सृष्टि का उदगम 454 करोड़ वर्ष पहले हुआ है। इसका अर्थ साफ़ है कि हमारे पुराण भी आधुनिक विज्ञान द्वारा प्रयोगों के बाद घोषित किए गए निरीक्षणों के एकदम पास हैं। कुछ हजार वर्ष पूर्व, जब आज की तरह आधुनिक वैज्ञानिक साधन नहीं थे, तब हमारे पूर्वजों ने पृथ्वी के उद्गम संबंधी यह सटीक गणना एवं आँकड़े कैसे प्राप्त किए होंगे…?
हमारे स्कूलों में आज भी बच्चों को पढ़ाया जा रहा है कि ‘निकोलस कोपर्निकस’ (१४७३-१५४३) नामक पोलैंड के एक खगोलशास्त्री ने सर्वप्रथम दुनिया को यह बताया कि ‘सूर्य हमारे अंतरिक्ष एवं ग्रह परिवार का केंद्र बिंदु है तथा पृथ्वी सूर्य के चारों तरफ चक्कर लगाती है’। हम इतने निकम्मे निकले कि यही जानकारी वर्षों से बच्चों को आगे पढ़ाए जा रहे हैं। इस कोपर्निकस नामक वैज्ञानिक से लगभग ढाई-तीन हजार वर्ष पहले पाराशर ऋषि ने विष्णु पुराण की रचना की हुई है। इस विष्णु पुराण के आठवें अध्याय का पन्द्रहवां श्लोक है –
नैवास्तमनमर्कस्यनोदमः सर्वतासतः।
उदयास्तमनाख्यन्ही दर्शनादर्शन रवे।।
अर्थात्, ‘यदि वास्तविकता से कहा जाए तो सूर्य का उदय एवं अस्त होने का अर्थ सूर्य का अस्तित्त्व होना या समाप्त होना नहीं है, क्योंकि सूर्य तो सदैव वहीं पर स्थित है’।
इसी प्रकार एकदम स्पष्टता के साथ सूर्य, पृथ्वी, चन्द्र, ग्रह-गोल-तारे इन सभी के बारे में हमारे पूर्वजों को जानकारी थी। और यह जानकारी सभी को थी। फिर भी किसी के मन में यह भावना नहीं थी कि उसे कोई बहुत ही विशिष्ट जानकारी है।
अर्थात् जिस समय प्रसिद्ध पश्चिमी वैज्ञानिक टोलेमी (Ptolemy AD 100 to AD 170) यह सिद्धांत प्रतिपादित कर रहा था कि, ‘पृथ्वी स्थिर होती है और सूर्य उसके चारों तरफ चक्कर लगाता है’, और पश्चिमी जगत इस वैज्ञानिक का समर्थन भी कर रहा था, उस कालखंड में आर्यभट्ट अत्यंत आत्मविश्वास के साथ अपना प्राचीन ज्ञान प्रतिपादित कर रहे थे, जिसके अनुसार –
अनुलोमगतिनरस्थ: पश्यत्यचलं विलोमगं यद्वत्।
अचलानि भानि तदवत्समपश्चिमगानि लङ्कायाम्॥
उदयास्तमयनिमित्तं नित्यं प्रवहेण वायुना क्षिप्त:।
लङ्कासमपश्चिमगो भपञ्जर: सग्रहो भ्रमति॥
– (आर्यभट्टीय ४.९ से ४.१० श्लोक)
इस श्लोक का अर्थ है कि, ‘जिस प्रकार अनुलोम (गति से आगे जाने वाला) एवं नाव में बैठा हुआ मनुष्य, अचल किनारे को विलोम (पीछे जाते हुए) देखता है, उसी प्रकार लंका में अचल यानी स्थिर तारे हमें पश्चिम दिशा में जाते हुए दिखाई देते हैं।।’
कितने स्पष्ट शब्दों में समझाया गया है… लंका का सन्दर्भ यह है कि ग्रीनविच रेखा के निर्धारण से पहले भारतीयों के अक्षांश-रेखांश तय किए हुए थे एवं उसमें विषुवत रेखा लंका से होकर गुजरती थी।
आगे चलकर तेरहवीं शताब्दी में संत ज्ञानेश्वर (१२७५-१२९६) ने एकदम सहज स्वरूप में यह लिखा, कि –
अथवा नावे हन जो रिगे। तो थडियेचे रुख जातां देखे वेंगे।
तेची साचोकारें जों पाहों लागे। तंव रुख म्हणे अचल।।
– श्री ज्ञानेश्वरी ४-९७
तथा…
उदो अस्ताचेनी प्रमाणे, जैसे न चलता सूर्याचे चालण।
तैसे नैष्कर्म्यत्व जाणे, कर्मीचिअसतां ।।
– श्री ज्ञानेश्वरी ४-९९
यह पंक्तियां आर्यभट्ट द्वारा दिए गए उदाहरणों का सरल प्राकृत भाषा में किया गया अर्थ है। इसी का दूसरा अर्थ यह है कि, मुस्लिम आक्रांताओं के भारत में आने से पहले जो शिक्षा पद्धति हमारे देश में चल रही थी, उस शिक्षा प्रणाली में यह जानकारी अंतर्भूत होती थी। उस कालखंड में खगोलशास्त्र के ‘बेसिक सिद्धांत’ विद्यार्थियों को निश्चित ही पता थे। इसीलिए संत ज्ञानेश्वर भी एकदम सहज भाषा में यह सिद्धांत लिख जाते हैं।
इसका एक और अर्थ यह भी है कि जो ज्ञान हम भारतीयों को इतनी सरलता से, और हजारों वर्षों पहले से था, वही ज्ञान पंद्रहवीं शताब्दी में कोपर्निकस ने दुनिया के सामने रखा। दुनिया ने भी इस कथित शोध को ऐसे स्वीकार कर लिया, मानो ‘कोपर्निकस ने बहुत महत्त्वपूर्ण शोध किया हो’। इसी के साथ भारत में भी कई पीढ़ियों तक, सूर्य-पृथ्वी के सम्बन्ध में यह खोज कोपर्निकस ने ही की, ऐसा पढ़ने लगे, पढ़ाने लगे…!
कितना बड़ा दुर्भाग्य है हमारा!
जैसे यह बात सूर्य के स्थिर केन्द्रीय स्थान के बारे में है, वैसे ही सूर्य प्रकाश की गति के बारे में भी मौजूद है। आज हम तीसरी-चौथी के बच्चों को पढ़ाते हैं कि, प्रकाश की गति की खोज, डेनमार्क के खगोलशास्त्री ओले रोमर (Olaus Roemer) ने सन 1676 में, अर्थात् महाराष्ट्र में छत्रपति शिवाजी के राज्यारोहण के दो वर्ष बाद की…।। कहा जाए तो एकदम हाल ही में। परन्तु वास्तविक स्थिति क्या है…?
यूनेस्को की अधिकृत रिपोर्ट में कहा गया है कि इस संसार का सबसे प्राचीन ग्रन्थ ऋग्वेद है, जो ईसा से लगभग पांच-छह हजार वर्ष पूर्व लिखा गया था। इस ऋग्वेद के पहले मंडल में, पचासवें सूक्त की चौथे श्लोक में क्या कहा गया है –
तरणीर्विश्वदर्शतो तरणीर्विश्वदर्शतो ज्योतिषकृदसी सूर्य ।
विश्वमा भासि रोचनम ।।
– ऋग्वेद १.५०.४
अर्थात्, हे सूर्य प्रकाश, तुम गति से भरे हो (तीव्रगामी), तुम सभी को दिखाई देते हो, तुम प्रकाश का स्रोत हो।। तुम सारे संसार को प्रकाशमान करते हो।
आगे चलकर चौदहवीं शताब्दी में, विजयनगर साम्राज्य के सायणाचार्य (१३३५-१३८७) नामक ऋषि ने ऋग्वेद के इस श्लोक की मीमांसा करते हुए लिखा है कि –
तथा च स्मर्यते योजनानां सहस्त्रं द्वे द्वे शते द्वे च
योजने एकेन निमिषार्धेन क्रममान नमोस्तुऽते ।।
- सायण ऋग्वेद भाष्य १.५०.४
अर्थात् – प्रकाश द्वारा तय की गई दूरी 2202 योजन (द्वे द्वे शते द्वे)
1 योजन – 9 मील 110 यार्ड्स
9.0625 मील
अर्थात् प्रकाश की दूरी 9.0625x 2202 = 21,144.705 मील
पृथ्वी तक पहुंचने के लिए लिया गया समय आधा निमिष = 1/8.75 = 0.11428 सेकण्ड
अर्थात् प्रकाश का वेग 185,025.813 मील/सेकण्ड
आधुनिक विज्ञान द्वारा तय किया गया प्रकाश वेग – 186,282.397 मील/सेकण्ड
ध्यान देने योग्य बात यह है कि डेनिश वैज्ञानिक ओले रोमर से पांच हजार वर्ष पहले हमारे ऋग्वेद में सूर्य प्रकाश की गति के बारे में स्पष्ट उल्लेख है। इस सन्दर्भ में कुछ और सूत्र भी होंगे, परन्तु आज वे उपलब्ध नहीं हैं। आज हमारे पास सायणाचार्य द्वारा ऋग्वेद मीमांसा के रूप में लिखित शक्तिशाली सबूत है। यह भी ओले रोमर से तीन सौ वर्ष पहले लिखा गया है। परन्तु फिर भी हम पीढ़ी दर पीढ़ी बच्चों को पढ़ाते आ रहे हैं कि प्रकाश की गति की खोज यूरोपियन वैज्ञानिक ओले रोमर ने की।
ऐसा हम और भी न जाने कितने तथ्यों के बारे में कहते रहेंगे…?
ग्रहण की संकल्पना बेहद प्राचीन है। चीनी वैज्ञानिकों ने 2600 वर्षों में कुल 900 सूर्यग्रहण और 600 चंद्रगहण होने का दावा किया। परन्तु यह ग्रहण क्यों हुए, इस बारे में कोई नहीं बता पाया। जबकि पांचवीं शताब्दी में आर्यभट्ट ने एकदम स्पष्ट शब्दों में बताया है कि –
छादयती शशी सूर्य शशिनं महती च भूच्छाया ।। ३७ ।। – (गोलपाद, आर्यभट्टीय)
अर्थात्, ‘पृथ्वी की छाया जब चंद्रमा को ढंकती है, तब चंद्रगहण होता है।’ आठ हजार वर्ष पूर्व ऋग्वेद में चन्द्र को इंगित करके लिखा जा चुका है कि –
ॐ आयं गौ : पृश्निरक्रमीद सदन्नमातरं पुर: पितरञ्च प्रयन्त्स्व:
ॐ भू: गौतमाय नम: । गौतमायावाहयामि स्थापयामि । ४३
अर्थात् चन्द्र, जो पृथ्वी का उपग्रह है, यह अपने मातृग्रह (अर्थात् पृथ्वी) के चारों ओर घूमता है, और यह मातृग्रह, उसके (यानी पृथ्वी के) प्रकाशमान पितृ ग्रह के चारों तरफ घूमता है।
इससे अधिक स्पष्ट और क्या चाहिए? ध्यान दें कि आज से लगभग आठ हजार वर्ष पहले हमारे पूर्वजों को यह मालूम था कि पृथ्वी सूर्य के चारों तरफ, तथा चंद्रमा पृथ्वी के चारों तरफ चक्कर लगाता है। इसके हजारों वर्ष के बाद ही, बाकी संसार को, विशेषकर पश्चिमी सभ्यता को यह ज्ञान प्राप्त हुआ।
इसमें महत्त्वपूर्ण बात ये है कि हमारे देश में यह ज्ञान हजारों वर्षों से उपलब्ध था, इसलिए यह बातें हमें पता हैं, फिर भी हमारे ऋषियों/विद्वानों में ऐसा भाव कभी नहीं था कि उनके पास बहुत बड़ा ज्ञान का भण्डार है। इसी कारण संत ज्ञानेश्वर महाराज अथवा गोस्वामी तुलसीदास जैसे विद्वान ऐसी महत्त्वपूर्ण जानकारी बेहद सरल शब्दों में लिख जाते हैं…!