✍ डॉ. अजीत कुमार पुरी
ईसा की उन्नीसवीं सदी का समय संपूर्ण विश्व में उथल-पुथल का समय है। एक ओर यूरोपीय देश भारतवर्ष आदि पूर्वी देशों के धन पर संपन्न हो रहे थे तो दूसरी ओर उनके कपटपूर्ण आचरण, शोषणकारी व्यवस्था से पूर्व के देश विशेषकर भारतवर्ष निर्धन हो रहा था। इसी छल कपट और झूठे आश्वासनों (सहायक संधि) में फंसकर भारतीय नरेश भी ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी के जाल में फंसते गए और देखते ही देखते लगभग आधे भारतीय भूभाग पर कंपनी का नियंत्रण हो गया। भारतवर्ष के इन भागों की स्वाधीनता छीन गई। 1857 में भारतीय नरेशों ने एक बार प्रयत्न अवश्य किया किन्तु अपनी कुछ कमियों के कारण यह प्रयास भी असफल हो गया। भारतवर्ष के इन भूभागों का शासन सूत्र कंपनी से स्थांतरित होकर ब्रिटिश संसद और क्राउन के नियंत्रण में आ गया और शोषणचक्र भयावह होता चला गया। इस व्यवस्था ने अंग्रेजी शिक्षा के माध्यम से भारतीयों को अपने गौरवशाली इतिहास से दूर करने का कार्य आरंभ कर दिया। अंग्रेजी पढ़े-लिखे भारतीयों में हीनभावना अपना स्थान बनाने लगी।
ऐसे समय में भारतवर्ष के साहित्यकारों ने अग्रिम मोर्चे पर खड़े होकर इन परिस्थितियों में अपने साहित्य कर्म से भारत बोध की लौ जलाई। भारत के एक छोर से दूसरे छोर तक स्वाधीनता, राष्ट्र प्रेम और मातृभूमि के प्रति समर्पण का ऐसा भाव जागृत हुआ कि अंग्रेजों को 1947 में भारतवर्ष से अपना बोरिया बिस्तर समेटकर भागना पड़ा।
जयशंकर प्रसाद का जन्म विश्व विख्यात काशी नगरी में माघ शुक्ल दशमी संवत 1946 विक्रमी (1889 ईस्वी) में हुआ था। यह समय वही है जब भारतवर्ष के लगभग आधे भूभाग पर ब्रिटिश शासन भारतीयों के हृदय पटल से भारत बोध मिटाने में लगा हुआ था। दूसरी ओर ब्रिटिशर्स के इस कपटजाल को काटने के लिए भारतीयों ने अपना उद्यम भी प्रारंभ कर दिया था जिसके कई आयाम थे। राजनीतिक आयामों में हमें यह स्वाधीनता आंदोलन के रूप में दिखता है तो साहित्यिक चेतना में भारत बोध के रुप में। इस दृष्टि से प्रसाद रचित साहित्य बहुत महत्वपूर्ण है ।
जयशंकर प्रसाद ने हिंदी साहित्य की कई विधाओं में अपनी रचनाएं प्रस्तुत की किंतु एक कवि और नाटककार के रूप में उनको बहुत ख्याति मिली। काव्यजगत में उन्हें छायावाद का जनक कहा जाता है। छायावाद ने भारतीय सांस्कृतिक चेतना को जिस प्रकार से हिंदी साहित्य में व्यापकता से प्रस्तुत किया उसके बाद पुनः ऐसा करना कभी संभव नहीं हुआ। ‘कामायनी’ भारतीय हिंदू ज्ञान परंपरा की ऐसी भावभूमि निर्मित करती हैं, जिसमें राष्ट्र कल्याण ही नहीं अपितु विश्व मंगल का उच्च स्वर गुंजायमान होता है ।
जिस समय नव शिक्षितों द्वारा अंग्रेजी प्रभाव में ऐसा माना जाने लगा कि भारतवर्ष कोई राष्ट्र नहीं बल्कि यह बन रहा है, उस समय जयशंकर प्रसाद जैसे रचनाकार सामने आए और उन्होंने भारतवर्ष की स्वाधीनता के लिए चले आ रहे संघर्ष को अपनी रचनाओं में रेखांकित किया। प्रसाद रचित ‘पेशोला की प्रतिध्वनि’ नामक कविता हमें ऐसी ही एक महागाथा का स्मरण कराती है। इस कविता के माध्यम से प्रसाद ने महाराणा प्रताप और उनके शौर्य, जीवटता, मातृभूमि प्रेम को जिस सूक्ष्मता से अंकित किया है कि पाठकों में गौरव बोध तो जागृत ही होता है, पुनः तत्कालीन परिस्थितियों में स्वदेश के लिए कुछ कर गुजरने का भाव भी भर जाता है। अपनी नाट्य कृतियों में प्रसाद अपेक्षाकृत अधिक मुखर हैं। चन्द्रगुप्त, ध्रुवस्वामिनी, स्कंदगुप्त, राज्यश्री आदि रचनाओं के माध्यम से उन्होंने भारतवर्ष के उस युग को स्पर्श किया जब हमारे पूर्वजों ने अपने अतुलनीय पराक्रम और शौर्य का परिचय देते हुए शत्रुओं को बारंबार रण में पराजित कर भारतीय स्वाधीनता के ध्वज को फहराए रखा और देश सभी दृष्टियों से उन्नति के शिखर पर पहुंचा। प्रसाद की इन नाट्य कृतियों में इतिहास के बहुत से अनछुए प्रसंगों को भी सामने लाया गया है जिसमें नारी स्वाभिमान की रक्षा का प्रश्न उभरकर आया। ध्रुवस्वामिनी के चरित्र को आगे कर प्रसाद ने यह तथ्य को बहुत स्पष्टता से सामने लाने का कार्य किया कि भारतवर्ष में नारी का स्थान बहुत ऊंचा रहा है। जबकि उसी समय यूरोप में ईसाईयत के निम्न सोच के कारण स्त्री को दोयम दर्जे का समझा जाता था।
स्कंदगुप्त जैसा पात्र भारतीय इतिहास का ‘न भूतो न भविष्यति’ एक ऐसा नायक है, जिसने उन हुणो को मार भगाया जिनकी बर्बरता से पूरा एशिया और यूरोप एक नहीं बल्कि कई बार थर्रा उठा था। प्रसाद ने ऐसे नायकों को अपने नाटकों में उतारकर यह जताने का प्रयास किया कि हिंदू समाज एक वीर समाज है। इसने किसी भी युग में राष्ट्र के शत्रुओं के समक्ष सिर नहीं झुकाया बल्कि उनके सिरों को रौद कर अपनी स्वाधीनता की बारंबार रक्षा की है। इस दृष्टि से प्रसाद साहित्य व उनके ऐतिहासिक चिंतन की वर्तमान समय में और भी महत्ता सिद्ध हो जाती है, जब राष्ट्र अपनी स्वाधीनता की 75वीं वर्षगांठ मना रहा हो।
अभी भी पराधीनता काल के ऐसे बहुत से अवशेष हैं, जो भारतीयों के आचार-विचार और आहार-विहार को गहराई से प्रभावित किए हुए हैं, भाव और भाषा में एक गहरी खाई बनी हुई है। राजनीति और राजधर्म के बीच कोई संतुलन नहीं है। हमारी ऐतिहासिक उपलब्धियों की व्यापकता से गणना होनी शेष है, तब ऐसे समय में प्रसाद साहित्य के अवलोकन से हमें वह बहुत कुछ मिल सकता है; जिसके माध्यम से वर्तमान भारत इन सभी उच्छिष्ठों को दूर फेंक कर अपनी स्वाभाविक सांस्कृतिक, राजनीतिक और सामाजिक चेतना से जुड सकता है, जिसके बलबूते पर ही वह कभी विश्व का सिरमौर बना हुआ था।
(लेखक काशी हिन्दू विश्वविद्यालय वाराणसी में हिंदी विभाग में सहायक प्रोफेसर है।)
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जयशंकर प्रसाद जी के लेखन को भारतीय परिप्रेक्ष में समझने की एक नई दृष्टि इस लेख में मिलती हैं।प्रसाद जी को भारतीय दृष्टिकोण से प्रस्तुत करने के लिए बहुत शुक्रिया सर!
इतने अच्छे आलेख के लिए बहुत बहुत बधाई डॉ पूरी – डॉ शिवशंकर अवस्थी