भारतीय शिक्षा के सामाजिक-आर्थिक आधार – भाग एक

डॉ. कुलदीप कुमार मेहंदीरत्ता

किसी देश की शिक्षा प्रणाली केवल उसकी बौद्धिक एवं आध्यात्मिक उत्कृष्टता का ही प्रतीक नहीं होती, अपितु वह उस देश की सामाजिक-आर्थिक संरचना की मूर्त अभिव्यक्ति भी होती है। विश्व की अन्य प्राचीन सभ्यताओं के समान, भारतीय सभ्यता एवं संस्कृति ने भी अपनी शिक्षा व्यवस्था को सामाजिक-आर्थिक परिस्थितियों के साथ सामंजस्य स्थापित करते हुए विकसित किया। प्राचीन भारत में गुरुकुल प्रणाली का उद्भव तथा नालंदा एवं तक्षशिला जैसे विश्वविख्यात विद्यापीठों का उत्कर्ष, तत्कालीन सामाजिक-आर्थिक जीवन-मूल्यों, मान्यताओं और आदर्शों की ही देन थी। वस्तुतः, भारत को ‘विश्व गुरु’ का गौरव प्रदान करने वाली इन शैक्षणिक संस्थाओं के मूल में सामाजिक-आर्थिक व्यवस्था का सुदृढ़ आधार निहित था।

हालाँकि, मध्यकालीन एवं औपनिवेशिक युग में हुए परिवर्तनों के परिणामस्वरूप भारतीय शिक्षा प्रणाली के सामाजिक-आर्थिक आधार स्तंभ विचलित हो गए। वर्तमान में, राष्ट्रीय शिक्षा नीति (2020) द्वारा लोक कल्याण, आत्मनिर्भरता, सामुदायिक सहभागिता तथा आध्यात्मिक मूल्यों को शिक्षा के साथ एकीकृत करने का प्रयास किया जा रहा है, जिससे भारतीय शिक्षा व्यवस्था के सामाजिक-आर्थिक आधारों को पुनः स्थापित किया जा सके।

  1. प्राचीन भारत में शिक्षा : सामाजिक-आर्थिक आधार

प्राचीन भारत में गुरुकुल शिक्षा पद्धति सामाजिक रूप से सर्वसमावेशी एवं आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर शिक्षा प्रणाली थी। इसका संचालन शिक्षकों के नेतृत्व में सामाजिक सहभागिता पर आधारित था। उस समय शिक्षा को समाज के प्रमुख कर्तव्यों में सम्मिलित माना जाता था। शिक्षक समाज में सर्वोच्च एवं आदरणीय स्थान रखते थे। गुरुकुलों की स्थापना प्रायः प्राकृतिक वातावरण में, गाँवों की परिधि से बाहर अथवा वनों में की जाती थी। यह प्रणाली शासक वर्ग एवं व्यापक समाज का सामूहिक दायित्व मानी जाती थी।

गुरुकुल शिक्षा प्रणाली आधुनिक युग की भाँति मासिक या वार्षिक शुल्क पर आधारित नहीं थी, अपितु शिक्षा की औपचारिक पूर्णता के उपरांत ‘गुरु दक्षिणा’ की परंपरा प्रचलित थी। प्राचीन भारत में शिक्षा को समाज का सामूहिक उत्तरदायित्व माना जाता था, अतः गुरुकुलों में किसी प्रकार की शुल्क-व्यवस्था प्रचलित नहीं थी। आचार्य प्रायः संन्यासी होते थे, जिनके लिए व्यक्तिगत स्वार्थ या भौतिक संचय गौण था। अतः स्थानीय समाज द्वारा गुरुकुलों हेतु अन्न, वस्त्र, ईंधन (लकड़ी) आदि की व्यवस्था की जाती थी। अनेक प्राचीन स्रोतों में उल्लेख मिलता है कि समाज द्वारा गुरुकुलों के भरण-पोषण हेतु भूमि तक प्रदान की जाती थी।

इन गुरुकुलों की एक विशिष्ट विशेषता यह थी कि शिक्षा सभी वर्गों के लिए सुलभ थी। रामायण और महाभारत जैसे महाकाव्यों में ऐसे अनेक उदाहरण मिलते हैं जहाँ विशिष्ट वर्ग के साथ-साथ शेष वर्गों के छात्र भी एक ही गुरुकुल में अध्ययनरत थे। विविधता में एकता तथा समता के जिस सिद्धांत को आधुनिक शिक्षा प्रणाली आज व्यवहार में लाने का प्रयास कर रही है, उसे भारत की प्राचीन गुरुकुल प्रणाली ने सहस्रों वर्ष पूर्व ही साकार कर दिखाया था।

समाज के आर्थिक उत्तरदायित्व के रूप में गुरुकुलों की स्थापना एवं संचालन की परंपरा शेष विश्व के लिए न केवल अनुकरणीय, अपितु अद्वितीय भी थी। गुरुकुल मात्र अध्ययन केंद्र नहीं थे, बल्कि वे स्वयं में समाज के लघु रूप में विकसित होते थे, जहाँ विद्यार्थियों को समृद्ध सामाजिक जीवन के लिए शिक्षित एवं प्रशिक्षित किया जाता था। विद्यार्थियों को वेदों एवं पारंपरिक ज्ञान के साथ-साथ जीवन के व्यावहारिक पक्षों – जैसे कृषि-पशुपालन, व्यवसाय-वाणिज्य, कला-शिल्प आदि का भी शिक्षण दिया जाता था, जिससे वे आत्मनिर्भर बनें और समाज के सर्वांगीण विकास में योगदान दे सकें।

समाज-केंद्रित गुरुकुल शिक्षा प्रणाली का यह विकेंद्रित मॉडल भारतीय सांस्कृतिक और आध्यात्मिक मूल्यों पर आधारित था। इसके अतिरिक्त, भारत में दीर्घकाल तक मंदिरों ने भी शिक्षा-प्रदाता की भूमिका निभाई। समाज ने नैतिक दायित्व समझते हुए शिक्षा-संस्थानों हेतु स्थानों और संसाधनों की सतत उपलब्धता को सुनिश्चित किया। यह तथ्य शेष विश्व के लिए विशेष महत्व रखता है कि गुरुकुल व्यवस्था के युग में न तो किसी प्रकार का कराधान था और न ही नौकरशाही नियंत्रण का कोई उदाहरण मिलता है। गुरुकुल प्रणाली एक सामुदायिक सहयोग एवं आर्थिक संतुलन पर आधारित सशक्त तंत्र थी।

पारंपरिक गुरुकुल संस्थाओं के अतिरिक्त इस काल में बौद्ध तथा जैन शिक्षा संस्थानों का भी उल्लेखनीय उत्कर्ष एवं विस्तार हुआ। तक्षशिला, नालंदा, वल्लभी एवं उज्जैन जैसे प्राचीन शिक्षा केंद्र न केवल बौद्धिक दृष्टि से समृद्ध थे, बल्कि वे आत्मनिर्भर, सामुदायिक सहभागिता पर आधारित एवं आर्थिक रूप से स्थायी संस्थागत संरचनाओं के प्रतीक थे। इन संस्थानों के पोषण एवं संरक्षण में तत्कालीन राजाओं, पुजारियों तथा समाज के प्रतिष्ठित व्यक्तियों की सक्रिय भूमिका रही। उन्होंने न केवल भूमि एवं संसाधनों का उदारतापूर्वक दान किया, अपितु इन संस्थाओं की सुरक्षा एवं प्रबंधन का उत्तरदायित्व भी निभाया।

  1. मध्य कालीन भारत में शिक्षा : सामाजिक-आर्थिक आधार

मध्यकाल में मुगल आक्रमणों और शासन की स्थापना से भारत में समाज, धर्म, अर्थव्यवस्था और शिक्षा जैसे क्षेत्रों में युगांतरकारी परिवर्तन किए। मुगल शासन के प्रभाव से भारत की पारंपरिक सामाजिक व्यवस्था और सांस्कृतिक चेतना पर दूरगामी प्रभाव पड़ा। ऐतिहासिक साक्ष्यों के अनुसार, इस काल में नालंदा, तक्षशिला, वल्लभी जैसे प्राचीन विश्वविद्यालयों का विध्वंस हुआ। ये संस्थान न केवल भारत, बल्कि बाह्य देशों से आए विद्यार्थियों के लिए भी ज्ञान के प्रमुख केंद्र थे। विशेष रूप से नालंदा विश्वविद्यालय, जिसकी पुस्तक-संपदा इतनी विशाल थी कि उसका पुस्तकालय अनेक महीनों तक जलता रहा, भारतीय बौद्धिक धरोहर का प्रतीक माना जाता था।

मंदिर, जो सामान्य जनमानस के लिए शिक्षा, शिल्प, संगीत, दर्शन और व्यावहारिक ज्ञान के केंद्र भी थे। इन संस्थानों के विनाश और राजकीय संरक्षण की समाप्ति के परिणामस्वरूप भारतीय शिक्षा व्यवस्था का सामाजिक और आर्थिक आधार दुर्बल हो गया। इस समय भारतीय समाज की शिक्षा व्यवस्था को प्राप्त आर्थिक एवं सामाजिक सहयोग में भी उल्लेखनीय ह्रास हुआ। गुरुकुलों की संख्या में गिरावट आई, जिससे समाज का शैक्षिक योगदान स्वतः ही सीमित होता चला गया। दमन और असुरक्षा के वातावरण ने जनसामान्य को शिक्षा व्यवस्था के समर्थन से पीछे हटने के लिए विवश कर दिया।

भक्ति आंदोलन ने जाति और वर्ग की सीमाएँ तोड़कर मानवीय और सामाजिक मूल्यों की शिक्षा की निरन्तरता को सुनिश्चित किया। महात्मा कबीर और श्री गुरुनानक देव जी जैसे संतों ने समतामूलक शिक्षा दृष्टिकोण प्रस्तुत किया। तुलसीदास जी की रामचरितमानस जैसे ग्रंथों ने लोकभाषा के माध्यम से नैतिक शिक्षा और सामाजिक मर्यादाओं का प्रसार कर शिक्षा के लोकतांत्रिक विस्तार में योगदान दिया।

इस प्रकार मध्यकालीन भारत में, यद्यपि व्यापक सामाजिक-राजनीतिक अस्थिरता के कारण शासन की प्राथमिकताएँ सैन्य विस्तार, प्रशासनिक पुनर्गठन और आंतरिक सुरक्षा की ओर अधिक केन्द्रित हो गईं। इस कारण से शैक्षिक संस्थानों को पूर्ववत संरक्षण प्राप्त नहीं हो सका, फिर भी कुछ क्षेत्रों में शासकों द्वारा धार्मिक एवं शैक्षिक संस्थानों को भूमिदान की परंपरा यथावत बनी रही। इन दानों का उपयोग प्रायः शिक्षण कार्यों, गुरुकुलों, मंदिरों और मठों के संचालन हेतु किया जाता था, जिससे कुछ हद तक शिक्षा की निरंतरता बनी रही।

हालांकि, दूरवर्ती ग्रामीण क्षेत्रों में – जहाँ आक्रमणकारी शक्तियों की पहुँच सीमित थी – वहीं समाज के आंतरिक सहयोग और सांस्कृतिक प्रतिबद्धता के बल पर शिक्षा और सांस्कृतिक चेतना का धीमा प्रवाह जारी रहा। ग्रामीण भारत में परम्पराओं, लोकभाषाओं और सांस्कृतिक प्रतीकों के माध्यम से शिक्षा की एक समानांतर व्यवस्था सक्रिय रही, जो भारत की जीवंत सांस्कृतिक परंपरा का प्रमाण प्रस्तुत करती है।

इस प्रकार, यद्यपि मध्यकालीन भारत में औपचारिक और संस्थागत शिक्षा व्यवस्था को क्षति पहुँची, तथापि समाज के कुछ वर्गों की निरंतर सहभागिता ने शिक्षा की गति को पूर्णतः अवरुद्ध नहीं होने दिया। यह शिक्षा का एक सामाजिक निरंतरता का रूप था, जो भले ही धीमी गति से चला, परंतु भारतीय सभ्यता की मूल चेतना को जीवित रखने में सहायक सिद्ध हुआ।

क्रमशः

(लेखक कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय, कुरुक्षेत्र हरियाणा में राजनीति शास्त्र के सहायक प्रोफेसर है।)

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