– रवि कुमार
आज पर्यावरण की चर्चा सर्वत्र है । सामान्य व्यक्ति से लेकर देश के बुद्धिजीवी तक और देश ही नहीं दुनियाँ के बुद्धिजीवी भी इस विषय के बारे में सोचते है और विचार करते हैं । पर्यावरण के विषय में विचार करने की आवश्यकता सभी को अनुभव होने लगी है । बदलती प्रकृति, नित परिवर्तन होता मौसम, सर्दी के समय सर्दी न होना, गर्मी के समय अधिक गर्मी होना, वर्षाकाल का आगमन आगे-पीछे होना ऐसे अनेक अनुभव सोचने पर मजबूर करते हैं । ऐसा क्यों हो रहा है जब इस पर विचार होता है तो उत्तर आता है कि समय बदल गया है । यह भी कह सकते है कि परिवर्तन प्रकृति का नियम है । परंतु इस बात का विचार यदि किया जाए कि प्रकृति में ऐसा बदल क्यों आया है? प्रकृति सभी का कल्याण करती है । परंतु प्रकृति मानव के विनाश के विषय में कैसे सोच सकती है? अभी हाल में ही एक देश में पारा 63 डिग्री पार कर गया और खड़ी गाड़ियों की बॉडी का लोहा पिघलने लगा । एक चित्र भी सोशल मीडिया पर वायरल हुआ है । ऐसी और अनेक घटनाएँ है जो यह संकेत करती है कि मानव का कल्याण व विनाश किस ओर जाने वाला है ।
कुछ वर्षों पूर्व तक सितंबर की अर्धवार्षिक परीक्षा में जब बालक आता था तो स्वेटर पहनता था यानि सर्द ऋतु उस समय प्रारम्भ होने लगती थी । दीपावली से पूर्व रामलीला देखने जब व्यक्ति रात्रि में घर से निकलता था तो लोई या शाल ओढ़ कर निकलता था । आज दिसंबर प्रारम्भ में भी ऐसा कम दिखता है । अपने दैनदिन जीवन में ऐसे अनेक उदाहरण ढूँढे जा सकते हैं ।
प्रकृति विनाश की बजाय कल्याण कारक ही रहे ऐसा ध्यान में रख कर भारतीय ऋषि-मनीषियों ने चिंतन किया । इस चिंतन को भारतीय वांगमय में उल्लेखित किया । इस चिंतन से प्रकट बातों को मानव समाज में प्रयोग कर स्थापित किया । प्रकृति संरक्षण का मानव का सहज स्वभाव बने ऐसी व्यवस्थाएं समाज में निर्माण की । सैंकड़ों-हजारों वर्षों तक भारतीय समाज ने इन व्यवस्थाओं का पालन किया । प्रकृति के संबंध में इन व्यवस्थाओं का पालन जब टूटने लगा तब परिवर्तन होने लगा ।
इस चिंतन को हम भारतीय दृष्टि कह सकते है । यह भारतीय दृष्टि क्या है?
अथर्ववेद के भूमि सूक्त में पर्यावरणीय मूल्यों का विधान है । मनुष्य धरित्री (भूमि) से कहता है, “मैं आपके उत्खनन से कुछ प्राप्त कर रहा हूँ, पर मैं ऐसा कभी न करूं कि इस प्रक्रिया से आपके हृदय अर्थात् मर्मस्थल पर चोट पहुँच जाए ।” अर्थात् उत्खनन करते समय दोहन करना शोषण करना नहीं ।
दुनियाँ में जहां-जहां अत्यधिक उत्खनन हुआ है वहाँ-वहाँ प्रकृति में परिवर्तन हुआ है, कहीं जल संकट तो कहीं अत्यधिक बाढ़ की स्थिति बनी है ।
ऋग्वेद में प्रार्थना की गई है कि वृक्ष, जल, आकाश एवं पर्यावरण की वेणीयाँ तथा वनस्पतियों से भरे पूरे वन और पर्व हमारा संरक्षण करें । ऋग्वेद में उल्लेखित है, ‘वनं आस्थाप्यध्वम्’ अर्थात् वन में वनस्पतियाँ उगाओ, वृक्षारोपण करो । वानस्पतिक संपदा के भंडार में वृद्धि करो, उसे घटाओ नहीं । यजुर्वेद के एक सूत्र में कहा गया है कि हे वनस्पति ! इस धारदार कुल्हाड़े से अपने महान सौभाग्य के लिए मैंने तुम्हें काटा अवश्य है, परंतु तेरा उपयोग हम सहस्र अंकुर होते हुए करेंगे ।
जीवन यापन के लिए यदि लकड़ी की आवश्यकता है तो वृक्ष न काटकर उसकी शाखाओं का उपयोग करना, उसमें भी ऊपर की शाखाएँ नहीं केवल नीचे की शाखाएँ ताकि हमारे प्रयोग लायक लकड़ी भी मिल जाएँ और पेड़ के अस्तित्व बने रहने के साथ तना भी बढ़ता रहे ।
श्रीमद्भगवद्गीता में श्रीकृष्ण जी ने कहा है, “धर्मविरुद्धो भूतेषु कामोsस्मि भरतर्षभ:” अर्थात् जहाँ भोग धर्म की अवमानना नहीं करता वह दिव्य है । प्रकृति का भोग भी करना है तो धर्म का पालन करते हुए करना है यानि प्राणी मात्र के कल्याण का भाव सदा बना रहे ।
ईशोपनिषद् में कहा गया, “ईशावास्यमिदं सर्वं यत्किंचित् जगत्यां जगत् । तेन त्यक्तेन भुंजीथा मा गृधः कस्यस्विद्धनं ।।” अर्थात् “समस्त सृष्टि राम में है उसका उपयोग केवल त्याग की भावना से करो । दूसरों के भाग पर डाका डालने का प्रयास न करो ।
अथर्ववेद के भूमिसूक्त में कहा है, ‘माता भूमिः पुत्रोSहं पृथिव्याः’ अर्थात् यह भूमि हमारी माता है और हम सब उसके पुत्र हैं । प्रत्येक प्राणी, वनस्पति एवं प्रत्येक चैतन्ययुक्त वस्तु पर प्रकृति का बराबर स्नेह है । शायद यही कारण है कि वनों में निवास करने वाले वनवासी एवं ग्रामों में निवास करने वाले ग्रामवासियों का पर्यावरण के प्रति आदर व स्नेह प्रारम्भ से रहा हैं ।
हमारे ऋषि जानते थे कि पृथ्वी का आधार जल और जंगल है । पृथ्वी की रक्षा के लिए वृक्ष और जल को महत्वपूर्ण मानते हुए ऋषियों ने कहा है – “वृक्षाद् वर्षति पर्जन्य: पर्जन्यादन्न सम्भव:” अर्थात् वृक्ष जल है, जल अन्न है, अन्न जीवन है । अथर्ववेद के भूमिसूक्त में भूमि को कहा गया है, “अरण्यं ते पृथिवी स्योनमस्तु” अर्थात् तेरे जंगल हमारे लिए सुखदाई हों । भारतीय जीवन के आश्रम चतुष्टय में से ब्रह्मचर्य, वानप्रस्थ और संन्यास का सीधा संबंध वनों से ही है ।
छान्दोग्य उपनिषद् में उद्दालक ऋषि अपने पुत्र श्वेतकेतु से आत्मा का वर्णन करते हुए कहते हैं कि वृक्ष जीवात्मा से ओतप्रोत होते हैं और मनुष्यों की भाँति सुख-दु:ख की अनुभूति करते हैं । छान्दोग्य उपनिषद् में ही सत्यकाम की कथा का उदाहरण है । कुछ समय सत्यकाम ब्रह्मचारी को शिक्षा देने के उपरांत गुरु उसे 400 गायों के साथ वन में भेज देते हैं और कहते हैं कि जब गायों की संख्या एक हजार हो जाएँ तभी वह वापस आए । वापसी के समय सत्यकाम को अग्नि के अतिरिक्त एक वृषभ तथा दो पक्षियों हंस व मृदु से ब्रह्म ज्ञान का उपदेश मिलता है । गुरु द्वारा सत्य काम को वन गमन करने के आदेश देने का उद्देश्य भी यही समझाना था कि सच्ची शिक्षा सदैव प्रकृति के संपर्क में रहने से ही आती है ।
महाकवि कालिदास ने ‘कुमारसम्भवम्’ में हिमालय की महानता और देवत्व को बताते हुए कहा है – “अस्तुस्तरस्यां
दिशि देवतात्मा हिमालयो नाम नगाधिराज: ।” हिमालय देवतात्मा है और पर्वतों का राजा है । प्रकृति के संरक्षण में पहाड़ का भी महत्व है । अतः पहाड़ का भी ध्यान रखा जाए ।
गीता में भगवान श्रीकृष्ण का कथन है, ‘अश्वत्थः सर्ववृक्षाणाम्’ अर्थात् वृक्षों में मैं पीपल हूँ ।। 10/26 ।। परिमाण और आयुमर्यादा दोनों की दृष्टि से अश्वत्थ अर्थात् पीपल वृक्ष को सर्वव्यापक और नित्य माना जा सकता है । पर्यावरण को संतुलित रखने की वृक्षों की भूमिका को रेखांकित करने का उदाहरण है कि वृक्षों में भी जीवन है । महाभारत के शांति पर्व के 184वें अध्याय में महर्षि भारद्वाज व महर्षि भृगु का संवाद है । इस संवाद में स्पष्ट वर्णन है कि कि वृक्ष पंचभौतिक अवचेतन हैं । हमारी संस्कृति में नीम को पूर्ण चिकित्सक, आंवले को पूर्ण भोजन, पीपल को शुद्ध वायुदात्री, पाकड़ और वट के युग्म वृक्षों को जल संग्राहक एवं वट को पूर्ण घर माना गया है।
केवल वृक्ष लगाने से ही पर्यावरण संरक्षण होने वाला है क्या? जल, जंगल और जमीन इन तीनों का ध्यान रखना पड़ेगा । जो चर्चा सर्वत्र चली है । उस चर्चा में भारतीय दृष्टि को सम्मिलित करने की महती आवश्यकता है । और केवल चर्चा ही नहीं प्रत्यक्ष क्रियान्वित करनी होगी । वास्तव में भारतीय दर्शन विश्व के स्वस्थ विकास का ब्लूप्रिंट है ।