दीनदयाल उपाध्याय की विचार-दृष्टि और दर्शन – 2

– डॉ. अनिल दत्त मिश्र

एकात्म मानववाद

बंबई (अब मुंबई ) में 22-24 अप्रैल, 1965 को पंडित दीनदयाल उपाध्याय द्वारा दिए गये चार विशेष क्रमिक व्याख्यानों के संग्रह को एक पुस्तक का रूप दिया गया, जो ‘एकात्म मानववाद’ के रूप में विश्व-विख्यात हुई। ‘एकात्म मानववाद’ व्यक्ति और समाज को एक नई दिशा दिखने वाला दर्शन है। लोकतंत्र, समानता, राष्ट्रीय स्वतन्त्रता और विश्व शांति के लक्ष्य पाश्चात्य -राजनीति के चिंतन एंव अध्ययन के विषय रहे हैं। समाजवाद और विश्व-शासन की परिकल्पनाएँ भी इन उद्देश्यों की परस्पर विसंगति से उत्पन्न हुई है, किंतु पाश्चात्य-राजनीतिक चिन्तन इस अंतर्द्वंद्व को दूर नही कर पाया । उलटे उन्होंने मूल को धक्का लगाया और समस्याएँ पैदा की हैं। भारत का सांस्कृतिक आधार एक तात्विक ढांचा प्रस्तुत करता है, जिसमें उपर्युक्त वांछनीय लक्ष्यों की प्राप्ति संभव हो सके। इस ढांचे  के अभाव में केवल भारत के विकास की दिशा निश्चित करने की दृष्टि से ही नहीं, अपितु मानव-चिंतन जहाँ आज आकर रुक गया है, उसको भी आगे बढ़ाने के लिए हमें भारतीय संस्कृति के तत्वों का विचार करना होगा। इन देश और काल निरपेक्ष तात्विक शक्तियों का भारतीय देशकाल-सापेक्ष अवस्था में अनुप्रयोग ही हमारी प्रगति की दिशा निश्चित करेगा। मानव के संबंध में हमारी दृष्टि समग्रतावादी एंव एकत्मवादी रही है। सृष्टि की विभिन्न सत्ताओं तथा जीवन के विभिन्न अंगों में विद्यमान अंतर को स्वीकार कर उसमें एकता की खोज कर समन्वय स्थापित करना है। इसका दृष्टिकोण सांप्रदायिक अथवा वर्गवादी न होकर सर्वात्मवादी एंव सर्वोत्कर्षवादी है। एकात्मता उसकी धुरी है। हमने मनुष्यों को केवल भौतिक आवश्यकताओं का पुंज नही माना हैं, अपितु उसे हमने एक आध्यात्मिक शक्ति का प्रतिनिधि स्वीकार किया है। इस दृष्टि से भौतिक तथा आध्यात्मिक पक्षों का समन्वय तथा मनुष्य के शरीर, मन, बुद्धि और आत्मा के बीच पारस्परिक सामंजस्य वांछनीय है। इस एकात्मकता में ही व्यक्ति और समष्टि का समन्वय पनपता है। हम यह मानकर चलते हैं कि व्यक्ति के सर्वागीण विकास और समष्टि के हित के बीच सामंजस्य संभव है। व्यक्ति और समष्टि के बीच संघर्ष की कल्पना करते हुए, दोनों में से किसी एक को प्रमुख एंव सम्पूर्ण क्रियाओं का अंतिम लक्ष्य मानकर पश्चिम में अनेक विचारधाराओं का जन्म हुआ है। दो अत्यधिक प्रचलित विचारधाराओं मार्क्सवाद और पूंजीवाद का मूल आधार भौतिकतावद तथा संघर्ष है। दोनों ही व्यक्ति और समष्टि के बीच सामंजस्य नहीं, अपितु द्वंद्व और वैषम्य मानकर चलती हैं। वास्तविकता यह है कि प्रत्येक इकाई में समुदाय की प्रकृति परिलक्षित होती है। व्यक्ति ही समष्टि के उपकरण है, उसके ज्ञान-तंतु हैं।  व्यक्ति की साधना समष्टि की आराधना से भिन्न नहीं हो सकती। शरीर को कष्ट पहुंचाकर कोई अंग कैसे सुखी हो सकता है? व्यक्ति स्वातंत्र्य और समाज-हित अवरोधी माने जाते हैं। भारतीय संस्कृति वही मानकर चलती है कि व्यक्ति और समष्टि में सहयोग हैं और वह भी स्वार्थमूलक सहयोग नहीं, बल्कि सहज तादात्म्य-भाव से पैदा होने वाला सहयोग है।  इसलिए हम समझते हैं कि मार्क्सवाद और पूँजीवाद ये दोनों पद्धतियां हमारे लिए अनुपयुक्त हैं।

साध्य और साधन में विवेक न रहा तो समस्या जरुर पैदा होती है। साध्य के सत्य की स्वीकृति साधन के अस्तित्व अथवा महत्व की अस्वीकृति नही हैं। मूर्ति में भगवान मानने वाला उसमें विद्यमान पाषाण के गुणों को नही भूल सकता, किंतु दूसरी ओर मूर्ति को पाषाण समझने वाला उपासना भी नहीं कर सकता। हम इस आध्यात्मिक दृष्टि को इतनी दूरी तक ले गए हैं कि भौतिकता को कतई भूल गए, क्योंकि यह एक विकार था। उपनिषद् में यह स्पष्ट कहा है कि ‘ नार्य आत्मा बलहीने न लभ्य :’ अर्थात् शक्ति के बिना आत्मानुभूति नहीं हो सकती। किंतु हुआ यह कि हम आत्मा की खोज और तलाश में तो रहें, परन्तु बल-संवर्धन की हमने अवहेलना कर दी। बिना अभ्युदय के नि:श्रेयस की सिद्धि नहीं होती। पश्चिम ने बल-संवर्धन किया, परन्तु उसे आत्मा का ध्यान नहीं रहा। बल तथा अध्यात्म का समन्वय हो तो फिर आज का यह भौतिक और आध्यात्मिक अंतर ही खत्म हो जायेगा। आज आधुनिक मनोविज्ञान यह प्रतिपादन करता है कि व्यक्ति में संघर्ष और प्रतियोगिता के तत्व भी उतने ही सहज है, जितने सहयोग और प्रेम भाव केतत्व विद्यमान हैं। इतना नहीं तो यह संघर्ष-भावना ही मनुष्य-मात्र को आगे चलने की प्रेरणा देती हैं, ऐसा माना जाता है। परन्तु प्रश्न यह है कि संघर्ष और सहयोग ये मनुष्य के स्थाई भाव है, ऐसा मानते हुए भी हम किस पर बल देना चाहते है? हमें मुख्य बल सहयोग पर देना चाहिए, संघर्ष और प्रतियोगिता पर नहीं।

हमारी संस्कृति में व्यक्ति के विकास और समाज के हित का संपादन करने के उद्देश्य से धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष इन चार पुरुषार्थों की कल्पना की गई। धर्म, अर्थ और काम एक-दूसरे के पूरक और पोषक हैं। मनुष्य की प्रेरणा का स्त्रोत तथा उसके कार्यों का मापन किसी एक को ही मानकर चलना उचित न होगा। यद्यपि अर्थ और काम के बिना धर्म, अर्थहीन है, अत: बिना धर्म के अर्थ और काम की सिद्धि नहीं है। धर्म को मत या मजहब समझकर उसके गलत अर्थ लगाये जाते है, यह भूल अंग्रेजी के ‘रिलिजन’ (Religion) शब्द का अनुवाद ‘धर्म’ करने के कारण हुई है। धर्म का वास्तविक अर्थ है – वे सनातन नियम, जिनके आधार पर किसी सत्ता की धारणा और जिनका पालन कर वह अभ्युदय और नि:श्रेयस की प्राप्ति कर सके। किसी स्थिति विशेष या वस्तु विशेष का विचार करते समय ‘सनातन’ शब्द सापेक्ष हो जाता है । अत: जहाँ धृति, क्षमा इत्यादि धर्म के लक्षणों में कोई परिवर्तन नहीं होता, यहाँ देश, काल एवं स्थितियों के परिवर्तन के साथ अन्य धर्म बदल जाते हैं । फिर भी इस संक्रमणशील जगत् में धर्म ही वह तत्व है, जो स्थायित्व लाता है । इसलिए धर्म को ही नियंता माना गया है तथा श्रेष्ठता उसी में निहित है ।

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