✍ डॉ.सौरभ मालवीय
देश के अनेक वैज्ञानिकों ने विश्व में भारत का नाम ऊंचा किया है। अंतर्राष्ट्रीय ख्यातिप्राप्त पुरावनस्पति वैज्ञानिक बीरबल साहनी इन्हीं में से एक हैं। वह भारत के ‘पुरावनस्पति विज्ञान’ के जनक माने जाते हैं। वह भारतीय उपमहाद्वीप के जीवाश्मों का अध्ययन करने में अत्यंत प्रवीण थे। उन्होंने भारत में पौधों की उत्पत्ति एवं पौधों के जीवाश्म पर अनेक शोध किए। उनके शोध जीव विज्ञान की विभिन्न शाखाओं पर आधारित थे।
उल्लेखनीय है कि पुरावनस्पति विज्ञान भी विज्ञान की एक शाखा है। इसे जीवाश्म विज्ञान भी कहा जाता है। यह पौधों के जीवाश्मों अथवा शैलों में सुरक्षित पौधों के अवशेषों पर आधारित होता है। यह अध्ययन करता है कि लाखों वर्षों में पृथ्वी पर जीवन किस प्रकार प्रारंभ एवं विकसित हुआ है।
बीरबल साहनी का जन्म 14 नवंबर 1891 को पाकिस्तान के शाहपुर जिले के भेड़ा में हुआ था। सर्वप्रथम उनका परिवार डेरा इस्माइल खान चला गया। इसके पश्चात वह लाहौर में जाकर बस गया। उनके पिता रुचि राम साहनी रसायन के प्राध्यापक थे। उन्होंने अपने पांचों पुत्रों को उच्च शिक्षा के लिए इंग्लैंड भेजा। वह स्वयं मैनचेस्टर गए तथा वहां कैम्ब्रिज के प्राध्यापक अर्नेस्ट रदरफोर्ड एवं कोपेनहेगन के नाइल्सबोर के साथ रेडियोसक्रियता पर अन्वेषण कार्य किया। रेडियोसक्रियता या रेडियोधर्मिता वह प्रकिया होती है, जिसमें एक अस्थिर परमाणु अपने नाभिक से आयनकारी विकिरण के रूप में ऊर्जा निकालता है। ऐसे पदार्थ जो स्वयं ही ऐसी ऊर्जा निकालते हों विकिरणशील या रेडियोधर्मी कहलाते हैं। यह विकिरण अल्फा कण, बीटा कण, गामा किरण एवं इलेक्ट्रॉनों के रूप में होती है। सरल शब्दों में- यह वह प्रक्रिया है जिसके द्वारा एक अस्थिर परमाणु नाभिक अल्फा, बीटा अथवा गामा किरण जैसे विकिरण उत्सर्जित करके ऊर्जा का खो देता है। ऐसे अस्थिर नाभिक युक्त पदार्थ को रेडियोधर्मी माना जाता है।
बीरबल साहनी को वैज्ञानिक बनने की प्रेरणा अपने पिता से प्राप्त हुई। उनके पिता विद्वान एवं समाजसेवी थे। बीरबल साहनी को बाल्यकाल से ही प्रकृति के समीप रहना प्रिय लगता था। उनकी माता ईश्वर देवी एक धर्मपरायण महिला थीं। उन्होंने अपने पुत्रों के साथ-साथ पुत्रियों को भी उच्च शिक्षित करने पर विशेष ध्यान दिया। बीरबल साहनी पढ़ाई में अच्छे थे। उन्होंने दसवीं की परीक्षा में संस्कृत में प्रथम स्थान प्राप्त किया तथा बारहवीं में विज्ञान में सराहनीय अंक प्राप्त किए। उन्होंने वर्ष 1911 में लाहौर के पंजाब विश्वविद्यालय से स्नातक की उपाधि प्राप्त की। तत्पश्चात वह कैम्ब्रिज चले गए। वहां उन्होंने इमैनुअल कालेज से स्नातक की उपाधि प्राप्त की। उनका प्रथम शोध-पत्र न्यू फाइटोलाजी नामक पत्रिका में प्रकाशित हुआ था। इसके लिए उनकी बहुत सराहना हुई, जिससे उनका आत्मविश्वास और अधिक बढ़ गया। जीवाश्म पादपों पर उन्होंने बहुत से शोध किए। उनके शोधों के लिए वर्ष 1919 में लंदन विश्वविद्यालय ने उन्हें डी.एस.सी. उपाधि प्रदान की। तत्पश्चात वह स्वदेश लौट आए।
वह बनारस हिंदू विश्वविद्यालय में वनस्पति विज्ञान विभाग के मुख्य आचार्य नियुक्त हुए। उन्होंने वर्ष 1921 में लखनऊ विश्वविद्यालय के वनस्पति विज्ञान विभाग के प्रथम आचार्य के रूप में कार्यभार संभाला। वह अपने अन्वेषण के कार्य में लगे रहे। इसके साथ-साथ उन्होंने सम्पूर्ण देश से पुरावनस्पति विज्ञान के छात्रों को एकत्रित किया तथा उनका मार्गदर्शन किया। उनके अथक प्रयासों के कारण ही लखनऊ विश्वविद्यालय भारत में वानस्पतिक व पुरावानस्पतिक अन्वेषणों का प्रथम केंद्र बन गया।
उन्हें वर्ष 1929 में कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय से विज्ञान वाचस्पति की उपाधि प्राप्त हुई। वह वर्ष 1930 एवं 1935 में अंतर्राष्ट्रीय वानस्पतिक कांग्रेस के वानस्पतिक खंड के उपाध्यक्ष रहे। उन्हें वर्ष 1936 में लंदन की रॉयल सोसायटी का सदस्य चुना गया। उन्हें ब्रिटिश का सर्वोच्च वैज्ञानिक सम्मान प्राप्त हुआ। वह 1940 में भारतीय विज्ञान कांग्रेस के महा अध्यक्ष बने। उन्होंने 1937-1939 एवं 1943-1944 में भारत की राष्ट्रीय विज्ञान अकादमी के अध्यक्ष के रूप में कार्य किया। वह 1948 में अमेरिका की कला एवं विज्ञान अकादमी के सदस्य रहे। वह वर्ष 1950 में स्वीडन की राजधानी स्टॉकहोम में अंतर्राष्ट्रीय वानस्पतिक कांग्रेस के अध्यक्ष बने।
बीरबल साहनी अनेक वैज्ञानिक संस्थाओं के सदस्य थे। उन्होंने वनस्पति विज्ञान पर अनेक पुस्तकें लिखीं। उनके अनेक प्रबंध विश्वभर के विभिन्न वैज्ञानिक पत्रिकाओं में प्रकाशित हुए हैं। उन्होंने पुरावनस्पति विज्ञान के क्षेत्र में अनेक महत्वपूर्ण कार्य किए।
पुरावानस्पतिक अनुसंधानों को समन्वित करने एवं रिपोर्टों को प्रकाशित करने के उद्देश्य से सितंबर 1939 में पुरावनस्पतिविदों की समिति का गठन किया गया। प्रोफेसर बीरबल साहनी को इसका संयोजक नियुक्त किया गया। समिति ने ‘भारत में पुरावनस्पति विज्ञान’ विषय पर प्रथम रिपोर्ट वर्ष 1940 में तथा अंतिम रिपोर्ट 1953 में प्रकाशित की। बीरबल साहनी सहित लखनऊ में कार्यरत समिति के आठ सदस्यों के.एन. कौल, बी.एस. त्रिवेदी, आर.एन. लखनपाल, एस.डी. सक्सेना, आर.वी. सिठोले, के.आर. सुरंगे एवं वेंकटचरी ने 19 मई 1946 को पैलियो बॉटनिकल सोसाइटी का गठन करने के संघ के ज्ञापन पर हस्ताक्षर किए। इसके पश्चात 3 जून को न्यास का गठन किया गया। अनुसंधान संस्थान की स्थापना के लिए इस न्यास को कार्य सौंपा गया। इस प्रकार 10 सितंबर 1946 को सोसाइटी के शासी मंडल ने पुरावनस्पति विज्ञान संस्थान की स्थापना की। बीरबल साहनी को इसका प्रथम निदेशक नियुक्त किया गया। यह पद अवैतनिक था। स्थायी स्थान के लंबित अधिग्रहण के कारण संस्थान का कार्य लखनऊ विश्वविद्यालय में चल रहा था। सितंबर 1948 में राज्य सरकार ने संस्थान को एक भवन प्रदान किया। संस्थान इस भवन में स्थानांतरिक हो गया। इसके पश्चात संस्थान के लिए भवन निर्मित करने की योजना बनाई गई। पुरावनस्पति विज्ञान संस्थान के नवीन भवन का शिलान्यास 3 अप्रैल 1949 को देश के प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू ने किया था। शिलान्यास के पश्चात 10 अप्रैल 1949 को बीरबल साहनी की मृत्यु हो गई। मृत्यु से पूर्व वह संस्थान का सम्पूर्ण दायित्व अपनी पत्नी सावित्री साहनी को सौंप गए। उन्होंने इस दायित्व को पूरी निष्ठा एवं लगन से निभाया तथा अपने पति के कार्यों को आगे बढ़ाने में कोई कसर शेष नहीं रखी। उनके अथक प्रयास से वर्ष 1952 के अंत तक संस्थान के नए भवन का निर्माण कार्य पूर्ण हो गया। प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू ने 2 जनवरी 1953 को इसका उद्घाटन किया। इस उद्घाटन समारोह में देश-विदेश के वैज्ञानिक उपस्थित थे।
अब पुरावनस्पति विज्ञान संस्थान ने अपना कार्य सुचारु रूप से आरंभ कर दिया था। इंग्लैंड के प्रोफेसर टी.एम. हैरिस को संस्थान का परामर्शदाता नियुक्त किया गया। उन्होंने दिसंबर 1949 से जनवरी 1950 तक कार्य किया।
संयुक्त राष्ट्र शैक्षिक, वैज्ञानिक एवं सांस्कृतिक संगठन (यूनेस्को) ने वर्ष 1951 में बीरबल साहनी पुरावनस्पति विज्ञान संस्थान को अपने तकनीकी सहायता कार्यक्रम में सम्मिलित कर लिया। इसके अंतर्गत नार्वे के ओस्लो विश्वविद्यालय के प्रोफेसर ओ.ए. होग को इसका निदेशक नियुक्त किया गया। उन्होंने अक्टूबर 1951 से अगस्त 1953 के आरंभ तक कार्य किया। उसके पश्चात डॉ. के.आर. सुरंगे को प्रभारी अधिकारी नियुक्त किया गया। सोसाइटी की अध्यक्ष सावित्री साहनी अक्टूबर 1959 में संस्थान की प्रशासन प्रभारी भी बनीं। डॉ. सुरंगे को शैक्षणिक एवं शोध गतिविधियों का दायित्व सौंपते हुए निदेशक नियुक्त किया गया। वर्ष 1967 के अंत में निर्णय लिया गया कि सोसाइटी विशुद्ध रूप से वैज्ञानिक निकाय के रूप में तथा संस्थान अलग संगठन के रूप में कार्य करेगा। जनवरी 1968 में प्रोफेसर के.एन. कौल को सोसाइटी का अध्यक्ष मनोनीत किया गया। इसके साथ ही नया संविधान बनाया गया, जिसके अंतर्गत 9 जुलाई 1969 को बीरबल साहनी पुरावनस्पति विज्ञान संस्थान अलग निकाय के रूप में पंजीकृत किया गया। इस प्रकार पैलियो बॉटनिकल सोसाइटी ने नवंबर 1969 से संस्थान को नए निकाय को हस्तांतरित कर दिया। इस प्रकार बीरबल साहनी पुरावनस्पति विज्ञान संस्थान नए शासी मंडल के प्रबंधन में आया। तभी से यह संस्थान स्वायत्त शोध संगठन के रूप में कार्य कर रहा है।
भारतीय विज्ञान कांग्रेस ने बीरबल साहनी के सम्मान में ‘बीरबल साहनी पदक’ की स्थापना की है। यह पदक देश के सर्वश्रेष्ठ वनस्पति वैज्ञानिक को प्रदान किया जाता है। उनके सम्मान में बीरबल साहनी पुरावनस्पति विज्ञान संस्थान में कई और पदक एवं पुरस्कार भी प्रदान दिए जाते हैं। अयंगर-साहनी पदक पुरस्कार द पैलियोबॉटनिस्ट में प्रकाशित सर्वश्रेष्ठ शोध-पत्र के लिए प्रदान जाता है। यह पुरस्कार प्रत्येक द्वितीय वर्ष में दिया जाता है। बी.एस. वेंकटचला मेमोरियल मेडल पैलियोबॉटनी में उत्कृष्ट शोध करने वाले युवा वैज्ञानिकों को प्रदान किया जाता है। यह पदक 2008 से आरंभ होने वाले वैकल्पिक वर्ष में प्रदान किया जाता है।
बीरबल साहनी ने हड़प्पा, मोहनजोदड़ो एवं सिंधु घाटी सभ्यता के जीवाश्मों का अध्ययन किया। उन्होंने भारतीय गोंडवाना क्षेत्र के पौधों एवं वृक्षों पर अध्ययन किया। उन्होंने कश्मीर की वनस्पतियों का भी अध्ययन किया। उन्होंने पौधों के नए जीन की खोज की। उन्होंने झारखंड में स्थित राजमहल की पहाड़ियों का अध्ययन कर महत्वपूर्ण जानकारी उद्घाटित की। उन्होंने बताया कि यहां प्राचीन वनस्पतियों के जीवाश्म के भंडार हैं। उन्होंने जुरासिक काल के वृक्षों एवं पौधों का भी गहनता से अध्ययन किया।
पुरावनस्पति वैज्ञानिक एस.आर. नारायण राव के अनुसार प्रो. साहनी के लिए पौधों के जीवाश्म प्राचीन वनस्पतियों के महज संयोगवश मिले अवशेष नहीं थे, उनके लिए उनका गहरा महत्व था। उनकी भूवैज्ञानिक पृष्ठभूमि और निहितार्थ हमेशा उनके दिमाग में मौजूद रहते थे। हर स्तर पर उनके काम ने भूविज्ञान के क्षेत्र को प्रभावित किया और पैलियोबॉटनी का क्षेत्र इस देश में वनस्पति शास्त्रियों और भूवैज्ञानिकों के लिए मिलन स्थल बन गया। 1926 में भूवैज्ञानिकों को दिए गए एक यादगार संबोधन में उन्होंने कहा कि जीवाश्म पौधे वनस्पति विज्ञान का भूविज्ञान के प्रति ऋण हैं। बदले में, उनके द्वारा शुरू किया गया पैलियोबॉटनिकल शोध न केवल स्ट्रेटीग्राफिकल समस्याओं को हल करने में मददगार रहा है, बल्कि पैलियोजियोग्राफी, पिछली जलवायु और यहां तक कि पृथ्वी की हलचलों के सवालों पर भी प्रकाश डाला है। साथ ही इसने आर्थिक भूविज्ञान में भी अपना योगदान दिया है।
(लेखक लखनऊ विश्वविद्यालय में एसोसिएट प्रोफेसर है और विद्या भारती पूर्वी उत्तर प्रदेश क्षेत्र के मंत्री है। )
अत्यंत सुंदर, उपयोगी और प्रेरणादायक जानकारी से परिपूर्ण आलेख के लिए हार्दिक धन्यवाद