डॉ. होमी जहांगीर भाभा का भारत के लिए योगदान

✍ विपिन राठी

भारतीय परमाणु कार्यक्रम के जनक होमी जहांगीर भाभा का जन्म 20 अक्टूबर सन 1909 मुंबई के एक संपन्न पारसी परिवार में हुआ था। इनके पिता श्री. जे.एस. भाभा मुंबई के एक जाने माने वकील थे, आपने अपनी प्रारंभिक शिक्षा मुंबई के ‘कैथेड्रल जॉन केनन हाई स्कूल’ से प्राप्त की, इसके पश्चात एलिफिस्टन कॉलेज और रॉयल इंस्टीट्यूट आफ साइंस मुंबई से शिक्षा प्राप्त कर, 17 साल की आयु में भाभा ने स्वचित्र में प्रतिष्ठित बॉम्बे आर्ट सोसाइटी की प्रदर्शनी में दूसरा स्थान प्राप्त किया। इसके पश्चात उच्च शिक्षा के लिए 17 वर्ष की अल्पायु में भाभा इंग्लैंड में कैंब्रिज विश्वविद्यालय चले गए, जहां उन्होंने गणित और इंजीनियरिंग का विशेष अध्ययन किया। किंतु आपकी रुचि सदैव गणितीय भौतिकी में थी।

कैंब्रिज विश्वविद्यालय में प्रवेश लेने के बाद भाभा ने अपने पिता को एक पत्र लिखा, जिसमें उन्होंने कहा – मैं आपसे गंभीरता से कहता हूँ कि एक इंजीनियर के रूप में व्यवसाय या नौकरी मेरे लिए कोई चीज नहीं है और यह मेरे स्वभाव और विचारों के बिल्कुल विपरीत है। फिजिक्स मेरी लाइन है, मैं जानता हूँ कि मैं यह महान कार्य करूंगा क्योंकि प्रत्येक व्यक्ति केवल उसी चीज में सर्वश्रेष्ठ और उत्कृष्ट प्राप्त कर सकता है, जिसमें वह पूरी लगन और रुचि से करता है, जिसमें वह विश्वास करता है जैसा कि मैं करता हूँ। उसमें ऐसा करने की क्षमता है कि वह वास्तव में ऐसा करने के लिए पैदा हुआ है और नियति में है। मैं फिजिक्स करने की इच्छा से जल रहा हूँ। मैं इसे कभी ना कभी जरूर करूंगा और अवश्य करूंगा यही मेरी एक मात्र महत्वाकांक्षा है। मुझे सफल आदमी या किसी बड़ी कंपनी का मुखिया बनने की इच्छा नहीं है, अतः आप मुझे भौतिकी विषय पढ़ने दे।

सन 1930 में कैंब्रिज विश्वविद्यालय से प्रथम श्रेणी में स्नातक होने के उपरांत आपने गणितीय भौतिकी का विशेष अध्ययन प्रारंभ किया। आपने प्रोफेसर पी.ए.एम. डिस्क और एन.एफ. मोर के निर्देशन में सैद्धांतिक भौतिकी का दो वर्ष का अध्ययन किया। मेधावी और परिश्रमी होने के कारण सन 1932 में डॉ. भाभा को गणित में ट्रिनिटी कॉलेज की ‘राडज्वेल ट्रैवलिंग स्टूडेंट शिप’ नामक छात्रवृत्ति मिली, जिसके फलस्वरुप आपने प्रोफेसर पाली के निर्देशन में अनुसंधान कार्य किये। आपको रोम में प्रोफेसर ई.फर्मी तथा प्रोफेसर एच.ए. कैमर्स के साथ अनुसंधान करने का अवसर प्राप्त हुआ। 1935 में कैंब्रिज विश्वविद्यालय ने आपको ब्रह्माण्डीय विकिरण और पॉजिटान और इलेक्ट्रॉन के निर्माण और विनाश नामक शीर्षक वाली शोध-प्रबंध के लिए परमाणु भौतिकी में पी.एच.डी. की उपाधि से विभूषित किया। नाभिकीय भौतिकी में रुचि रखने के कारण सन 1935-1939 में आपको कैंब्रिज विश्वविद्यालय में अंतरिक्ष विकिरण (नाभिकीय भौतिकी)और सापेक्ष क्वांटम यांत्रिकी पर अनेक  व्याख्यान दिए। सन 1939 में रॉयल सोसाइटी ने आपको प्रोफेसर पी.एम.एल. बलैकेट के स्कूल ऑफ़ कॉस्मेटिक रे रिसर्च में सैद्धांतिक भौतिकी शास्त्री के रूप में नियुक्त किया।

सितंबर 1939 में द्वितीय विश्व युद्ध से पहले वह भारत लौट आए और नोबेल पुरस्कार विजेता सी.वी. रमन की अध्यक्षता में बेंगलुरु में इंडियन इंस्टीट्यूट आफ साइंस में भौतिकी विषय के सहायक अध्यापक बने। इसके पश्चात साइंटिफिक एंड इंडस्ट्रियल रिसर्च में सन 1942 में आप पदार्थ विज्ञान में अंतरिक्ष किरणों के प्रोफेसर बने। बेंगलुरु के वैज्ञानिक इंस्टिट्यूट में वैज्ञानिक जगत में डॉ. भाभा ने रहस्यमय आस्मिक (ब्रह्मांड) किरणों का अन्वेषण कर विश्व को आश्चर्य चकित कर दिया तथा नए-नए सिद्धांत विश्व के समक्ष रखें। भाभा ने हैटलर के साथ मिलकर “झास्वोड थ्योरी ऑफ़ इलेक्ट्रान शावर्स” का प्रतिपादन किया जिससे संपूर्ण वैज्ञानिक जगत में खलबली मच गयी इस प्रकार डॉ. भाभा ने अपने अथक प्रयास से नए कीर्तिमान स्थापित किये। डॉ. भाभा ने नाभिकीय भौतिकी में अत्यंत महत्वपूर्ण अनुसंधान किये उनका सबसे महत्वपूर्ण अन्वेषण ‘मैसोन” नामक प्राथमिक कारण की खोज है, वास्तव में इस प्राथमिक कण को मैसोन नाम आपके सुझाव पर ही दिया गया था। आपके इस महत्वपूर्ण अनुसंधान से प्रभावित होकर रॉयल सोसाइटी ने सन 1941 में अपना फेलो निर्वाचित किया। जो वास्तव में समस्त भारत के लिए गौरव की बात थी। सन1943 में कैंब्रिज विश्वविद्यालय ने आपको एडम पुरस्कार प्रदान किया। 1951 में भारतीय विज्ञान परिषद ने आपके अपना मुख्य अध्यक्ष निर्वाचित किया था। डॉ. भाभा ही थे जिन्होंने सन् 1952 में स्टॉकहोम में आयोजित अंतरराष्ट्रीय तकनीकी गोष्ठी में अपनी कॉस्मिक पार्टिकल्स के महत्वपूर्ण शक्ति की खोज से सभी को आश्चर्य चकित कर दिया था।

अंतरराष्ट्रीय शक्ति एजेंसी में डॉ. भाभा की सलाह को सभी वैज्ञानिक बड़े आदर से सुनते थे। डॉ. भाभा ने विश्व को बताया कि समुद्र के जल में काफी हाइड्रोजन शक्ति है, जिसका प्रयोग मानव को करना चाहिए उनकी सलाह पर अमेरिका, ब्रिटेन आदि देशों ने इस दिशा में कार्य किया और उसका समुचित लाभ भी उठाया। सितंबर 1956 में 81 राष्ट्रों के एक सम्मेलन आणविक एजेंसी की स्थापना के लिए न्यूयॉर्क में हुआ। इस सम्मेलन के अध्यक्ष डॉक्टर भाभा को बनाया गया था।

डॉ. भाभा के शोध पत्रों से प्रभावित होकर रॉयल सोसाइटी लंदन ने आपको अपना सदस्य बनाया था। भारत सरकार ने 1961 में डॉ. भाभा को पद्म भूषण की उपाधि से विभूषित किया था। 1961 में डॉ. मेघनाथ शाह स्वर्ण पदक सहित कई देश-विदेश के विश्वविद्यालय ने उनके शोध पत्रों और विज्ञान की सेवाओं में के लिए सम्मानित किया। डॉ. भाभा  ब्रह्मांड विकिरण के क्षेत्र में विश्व के चोटी के वैज्ञानिकों में से एक थे। इस ब्रह्मांड में डॉ. भाभा जो ख्याति अर्जित की वह अतुलनीय है। डॉ. भाभा प्रथम भारतीय वैज्ञानिक थे जिन्होंने जिनेवा में शांति के लिए अणु नामक गोष्ठी की अध्यक्षता की थी इस गोष्टी में वैज्ञानिक फ्रांसिस पैरों की इस विचारधारा का बड़ी दृढ़ता से खंडन किया था कि संसार में अल्प विकसित राष्ट्र परमाणु शक्ति का तब तक लाभ नहीं प्राप्त कर सकते, जब तक कि वह औद्योगिक प्रगति की दिशा में समुचित संपन्नता प्राप्त नहीं कर लेते। और यही नहीं डॉ. भाभा इस बात को यथार्थ प्रमाणित कर दिया था कि अर्ध विकसित राष्ट्र परमाणु शक्ति का उपयोग शांति और अर्थव्यवस्था आदि अनेक औद्योगिक प्रतिक्रियाओं को मजबूत करने में कर सकते हैं। भारत इस बात का ज्वलंत उदाहरण है जिसने परमाणु शक्ति का प्रयोग शांति के कार्यों के लिए किया किया।  

10 अगस्त 1948 को परमाणु ऊर्जा आयोग की स्थापना की गई। डॉ. भाभा इस आयोग के प्रथम अध्यक्ष बने थे, परंतु 4 अगस्त 1954 को एक मंत्रालय की पूर्ण शक्तियों के साथ भारत सरकार ने एक अलग विभाग के रूप में  मान्यता दी, इसका कार्य रेडियोधर्मी खनिजों के सर्वेक्षण मोनाजाइट के परिष्करण के लिए संयंत्र स्थापित करने तथा इलेक्ट्रॉनिक के क्षेत्र में असीमित अनुसंधान गतिविधियों आदि थे। डॉ. भाभा को देश में अल्प यूरेनियम भंडार के बजाय विशाल थोरियम भंडार से बिजली निकलने पर ध्यान केंद्रित करने की रणनीति तैयार करने का श्रेय दिया जाता है। नवंबर 1954 में नई दिल्ली में शांतिपूर्ण उद्देश्यों के लिए परमाणु ऊर्जा के विकास पर सम्मेलन में डॉ. भाभा इस योजना को प्रस्तुत किया। यह थोरियम केंद्रित रणनीति विश्व के सभी देश के अलग थी।

सन 1956 में भारत सरकार द्वारा औपचारिक रूप से तीन श्रेणी परमाणु कार्यक्रम के रूप में अपनाया गया।

पहला चरण – दाबित भारी पानी रिएक्टर का निर्माण एवं उससे विद्युत उत्पादन; इसमें नाभिकीय ईंधन के रूप में प्राकृतिक यूरेनियम का उपयोग किया जा रहा है।

दूसरा चरण – उपरोक्त प्रथम चरण से प्राप्त प्लुटोनियम-239 का तीव्र प्रजनक रिएक्टर में मुख्य ईंधन के रूप में उपयोग होगा। ऊर्जा उत्पादन के साथ ही इससे यूरेनियम-238 बदलकर Pu-239 बन जाएगा तथा थोरियम-232 बदलकर U-233 में बन जाएगा।

तृतीय चरण – इस चरण में भी प्रजनक रिएक्टर का उपयोग किया जाएगा जिसमें उपरोक्त द्वितीय चरण से प्राप्त U-233 इसमें मुख्य ईंधन बनेगा। साथ ही इस रिएक्टर में Th-232 का समाच्छद रहेगा जो नाभिकीय अभिक्रिया द्वारा बदलकर U-233 बन जाएगा, जो पुनः ईंधन के रूप में इस्तेमाल किया जाएगा।

1956 में भारत सोवियत संघ के अलावा परमाणु रिएक्टर रखने वाला पहला एशियाई देश बन गया। डॉ. होमी जहाँगीर भाभा द्वारा किये प्रयासों का ही नतीजा था कि 18 मई 1974 को भारतीय परमाणु ऊर्जा आयोग द्वारा पोखरण में भारत का पहला भूमिगत परमाणु परीक्षण संपादित किया गया। बाद में वर्ष 1998 में भारत जब पूर्णतया परमाणु शक्ति संपन्न देश बना और इसका ही परिणाम है कि आज भारत के पास 7 परमाणु ऊर्जा संयंत्र है तथा विश्व के अणु शक्ति के प्रमुख 6 सर्वोच्च देश में गिना जाने लगा है।

डॉ. भाभा की मृत्यु 24 जनवरी 1966 को एक विमान दुर्घटना में हुई थी। मुंबई से न्यूयॉर्क जा रहा एयर इंडिया का बोइंग 101 जनवरी 1966 में मॉन्ट ब्लां के निकट दुर्घटनाग्रस्त हो गया था।

विज्ञान जगत में अपना विशिष्ट स्थान निर्मित करने वाले डॉक्टर भाभा की मृत्यु के बाद सच्ची श्रद्धांजलि देने के लिए उनके सम्मान में मुंबई में परमाणु ऊर्जा प्रतिष्ठा का नाम बदलकर भाभा परमाणु अनुसंधान कर दिया गया। परमाणु विज्ञान के क्षेत्र में विशिष्ट कार्य करने वाले वैज्ञानिकों को प्रतिवर्ष डॉक्टर भाभा स्मृति पुरस्कार प्रदान किए जाते हैं।

(लेखक दुर्गावती हेमराज टाह स. वि. म. नेहरु नगर, गाजियाबाद-उ०प्र० में प्राचार्य है।)

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