पाती बिटिया के नाम-12 (लंदन की धरती पर क्रांति योजना करने वाले क्रांति के राजदूत – रंगोबापू गुप्ते)

 – डॉ विकास दवे

प्रिय बिटिया!

1857 की क्रांति का एक दुखद पहलु यह माना जाता है कि इसकी ज्वाला उत्तर भारत में तो दावानल बनकर फैली लेकिन दक्षिण भारत में इसकी आँच बहुत धीमी रही। लेकिन दक्षिण में जो कुछ भी हुआ उसका श्रेय यदि किसी को दिया जा सकता है तो वे रंगोबापू गुप्ते ही हो सकते हैं। यूं तो रंगोबापू सतारा महाराष्ट्र के थे लेकिन क्रांति की योजना के सूत्रपात हेतु उन्होंने चुना सागरपार लंदन की भूमि को और दक्षिण भारत के चुनौतिपूर्ण क्षेत्र को।

शिव छत्रपति द्वारा स्थापित हिन्दवी साम्राज्य का विस्तार अब भी वैसा ही था। सतारा में शिवाजी के ही वंश छत्रपति प्रतापसिंह जी शासन कर रहे थे। सतारा के राजकाज को शिवाजी महाराज द्वारा बनाई रीति-नीति से चलाने का महत्वपूर्ण दायित्व निर्वाह कर रहे थे रंगोबापू गुप्ते। सब कुछ अच्छी तरह चल रहा था। किन्तु अंग्रेजी हुक्मरान अपनी पुरानी दुर्गती याद कर-कर के मराठा साम्राज्य को हर मोर्चें पर डूबता देखने की इच्छा रखते थे। इसी योजना के तहत प्रताप सिंह को राजद्रोही घोषित कर अंग्रेजों ने उनके छोटे भाई अप्पा जी को छत्रपति घोषित कर दिया। वास्तव में अप्पा साहब का नि:संतान होना अंग्रेजों की भावी रणनीति के लिए अनुकूल था। अप्पा साहब की मृत्यु होते ही सतारा भी अंग्रेजी राज का हिस्सा हो गया। इस घटना के पाँच वर्ष बाद ही झाँसी में भी यही प्रयोग दोहराया गया था।

पूरे घटनाक्रम से दीवान रंगोबापू का रोष बढ़ता जा रहा था। उन्हें पद से तो प्रतापसिंह जी के साथ ही हटा दिया गया लेकिन कंपनी के अधिकारी उनकी संगठन क्षमता के भय से उन्हें किसी तरह समाप्त कर देना चाहते थे। 1840 में यह शेर जो गायब हुआ तो गोरों के लाख सिर पटकने पर भी उनका पता नहीं लग पाया और यह शेर घुस गया था शत्रु की मांद में ही। रंगोबापू लंदन पहुँच गए थे ईस्ट इंडिया कम्पनी और अंग्रेजी राज की जड़ों को खोजते हुए। पूरे 14 वर्ष का वनवास काटा था उन्होंने अपनी मातृभूमि से दूर। वहाँ भी उनके धाराप्रवाह अंग्रेजी भाषण लंदनवासियों को कपंनी की क्रूरता से परिचित करा रहे थे। यहीं बापू की भेंट हुई अजीमुल्ला खाँ से। वह भी मट्ठा लिए कंपनी की जड़ें खोजते लंदन पहुँचे थे। वहीं दोनों ने मिलकर क्रांति की योजना बनाई थी। बिठूर में एक गुप्त बैठक में सभी क्रांतिवीर एकत्र हुए और जनजागरण का संकल्प ले निकल पड़े पूरे देशभर की यात्रा पर। रंगोबापू ने अपने कार्य क्षेत्र सतारा ही नहीं बल्कि आसपास के धारवाड़, कोल्हापुर और बेलगांव जैसे क्षेत्रों में भी इस चिंगारी को फूंक मारना प्रारंभ किया। 28वीं और 29वीं रेजीमेन्ट के भारतीय सैनिकों की राष्ट्रभक्ति और स्वाभिमान को ललकारा बापू ने। चिंगारी अब दावानल बन गई थी। दक्षिण भारत तक बापू का भ्रमण चल रहा था। वे जहाँ से गुजरते कंपनी सूखे पत्ते की तरह थरथराने लगती। यह तूफान थमता नहीं दिख रहा था गोरों को और रंगोबापू थे कि परछाई की तरह ‘स्काटलेण्ड यार्ड’ के जासूसों की पकड़ से बाहर थे। गोरों ने उनके एक पुत्र को बंदी बना लिया। पुत्र मोह भी बापू को अंग्रेजी शरणागति में नहीं ला पाया। उनके पुत्र को फाँसी पर चढ़ा दिया गया लेकिन वे पकड़ में नहीं आए तो नहीं आए।

इतिहास में उनकी मृत्यु का कहीं कोई उल्लेख नहीं मिलता किन्तु यह तय है कि उनके जैसा जीवट वाला व्यक्ति अंतिम श्वास तक क्रांति कार्य में संलग्र रहकर वीर की मृत्यु को प्राप्त कर ही दुनिया से विदा हुआ होगा। उत्तर से दक्षिण तक क्रांति दीप प्रज्वलित करने वाले इस महानायक को शत-शत वन्दन।

-तुम्हारे पापा

(लेखक इंदौर से प्रकाशित ‘देवपुत्र’ सर्वाधिक प्रसारित बाल मासिक पत्रिका के संपादक है।)

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