– डॉ विकास दवे
प्रिय बिटिया!
बीकानेर से ग्वालियर तक की यात्रा ने थका कर चूर कर दिया था अमरचन्द जी को। व्यापार का सिलसिला उन्हें घर से इतनी दूर ले आया था आज। बिना विश्राम किए वे चल दिए राजदरबार में उपस्थिति देने के लिए। यह नियम भी था, शिष्टाचार भी और व्यवहार भी। उनकी अतिशय सदाशयता और फलों से लदे वृक्ष-सी अत्यंत विनम्रता, जियाजी राव और सिन्धिया को बहुत प्रभावित कर गई। ऐसे ईमानदार, बुद्धिमान और विनम्र व्यवसायी तो राज्य की नाक होते हैं यही सोचकर उन्होंने अमरचन्द जी से आग्रह किया – “आप तो यहीं रह जाईए सेठजी!” अमरचंद जी भी इस राजसी इच्छा के आगे झुक गए और अपना पूरा घर-व्यवसाय वहीं ले आए। ग्वालियर नरेश जियाजीराव सिन्धिया की असली मंशा तो यह थी कि वे ऐसे ईमानदार व्यक्ति को राज्य का गंगाजली कोष सौंपना चाहते थे। उन्होंने तुरन्त आदेश से उन्हें राज्य का कोषाध्यक्ष नियुक्त कर दिया।
कुछ ही समय में अमरचन्द जी को यह ध्यान में आने लगा कि जियाजीराव अंग्रजों के मित्र हैं। फिर भी अमरचंद जी अपने मन में पल रही अंग्रेजी शत्रुता को छुपाते नहीं थे। उनके मन में गोरों के प्रति घृणा का सागर हिलोरे लेता था। माँ भारती की स्वतंत्रता के सपने सोते-जागते देखने वाले इस राष्ट्रभक्त का स्वप्र एक दिन साकार हो उठा। झाँसी की महारानी साहीब अपनी सेना के साथ आई।
और ग्वालियर पर कब्जा कर लिया। अमरचन्द जी ने पूरा राज्यकोष लक्ष्मीबाई को सौंप दिया। लेकिन घटनाक्रम पलटते ज्यादा समय नहीं लगा। 18 जून, 1858 को गौरी फौज एक बार फिर स्वातंत्र्य सेना पर भारी पड़ी और ग्वालियर फिर से अंग्रेजी साम्राज्य का हिस्सा बन गया।
ब्रिगेडियर नेपियर ने अमरचंद जी पर दोहरे राजद्रोह का आरोप लगाया, एक सिंधिया राज से और दूसरा अंग्रेजी राज से। लगभग तय था कि उन्हें फाँसी पर ही चढ़ाया जाए लेकिन फिर भी न्याय प्रक्रिया की नौटंकी की गई। अमरचन्द जी ने स्पष्ट सिंह गर्जना की- “राजद्रोह कैसा? झाँसी की रानी ने ग्वालियर पर अधिकार कर लिया था। वे हमारी महारानी थी। कोषाध्यक्ष द्वारा अपनी रानी को राज्यकोष सौपना एक सामान्य बात थी। रही बात अंग्रेजी राज के प्रति द्रोह की तो मेरा यह स्पष्ट मत है कि आप देश के दुश्मन हैं। भला दुश्मन से दुश्मनी पालना द्रोह कैसा होगा? यह तो राष्ट्र प्रेम है।”
जवाब नेपियर ने तन-मन में आग लगा गया। उसने आदेश दिया अमरचन्द को सार्वजनिक रूप से फाँसी दी जाए। अमरचन्द जी को उनके घर के सामने स्थित नीम के पेड़ पर ही फंदा बनाकर फाँसी दे दी गई। जन-जन में शोक की लहर थी। तीन दिन तक मृत देह को उतारने नहीं दिया गया। परिवार ही नहीं नगर के सामान्यजन भी भूखे प्यासे थे। चौथे दिन उनका ससम्मान अंतिम संस्कार करके ही सबने अन्न-जल को ग्रहण किया था। इस अमर हुतात्मा की देह भले ही राख हो गई लेकिन उनके कार्य ने लोगों के हृदय में और इतिहास के पृष्ठों पर अपने नाम के अनुरूप उन्हें अमर कर दिया।
-तुम्हारे पापा
(लेखक इंदौर से प्रकाशित ‘देवपुत्र’ सर्वाधिक प्रसारित बाल मासिक पत्रिका के संपादक है।)
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