गर्भ संस्कार : संस्कारित पीढ़ी की नींव

– डॉ शिवानी कटारा

भारतीय संस्कृति में जीवन का आरंभ केवल जैविक घटना नहीं, बल्कि एक आध्यात्मिक और सांस्कृतिक यात्रा माना गया है। इसी दृष्टि से गर्भ संस्कार का महत्व प्राचीन काल से वर्णित है। ‘गर्भ’ का अर्थ है गर्भस्थ शिशु, और “संस्कार” का अर्थ है आत्मा व व्यक्तित्व का परिष्कार। गर्भ संस्कार का तात्पर्य उन सकारात्मक विचारों, कर्मों और वातावरण से है जो गर्भावस्था के समय माता-पिता द्वारा अपनाए जाते हैं और जो शिशु के शारीरिक, मानसिक, भावनात्मक और आध्यात्मिक विकास की नींव रखते हैं। यही कारण है कि स्वस्थ गर्भावस्था समाज को केवल शिशु नहीं, बल्कि संस्कारित नागरिक का उपहार देती है।

गर्भ संस्कार की अवधारणा और ऐतिहासिक उदाहरण

भारतीय शास्त्रों में सोलह संस्कारों का उल्लेख है, जिनमें गर्भ से जुड़े संस्कारों को विशेष महत्व दिया गया है। अथर्ववेद से संबद्ध गर्भोपनिषद (लगभग 1000–500 ईसा पूर्व) में गर्भस्थ शिशु की चेतना और उसकी अनुभूतियों का अद्भुत चित्रण मलता है। उसमें कहा गया है कि “गर्भस्थ जीव माता के आहार-विचार और अपने पूर्वकर्मों से प्रभावित होकर सुख-दुःख का अनुभव करता है।” यह सिद्धांत हमारे महाकाव्यों और पुराणों की कथाओं में भी प्रतिध्वनित होता है।

महाभारत का अभिमन्यु इसका सर्वाधिक प्रसिद्ध उदाहरण है, जिसने गर्भ में ही चक्रव्यूह भेदन की विद्या सुनी। प्रह्लाद की कथा भी गर्भ संस्कार का सशक्त प्रमाण है; उनकी माता ने गर्भावस्था के समय नारद मुनि से भागवत कथा सुनी और उसी का प्रभाव शिशु पर पड़ा कि प्रह्लाद जन्म से ही विष्णु भक्त बने। रामायण में माता कौशल्या का संयम श्रीराम के आदर्श चरित्र का आधार बना। अष्टावक्र ने गर्भ में ही शास्त्रार्थ समझा और त्रुटि सुधार दी, जो गर्भस्थ शिशु की संवेदनशीलता का प्रतीक है।

इतिहास के पन्नों में भी गर्भ संस्कार की शक्ति झलकती है। जीजाबाई ने शिवाजी को गर्भ में रहते ही वीरता और राष्ट्रभक्ति का चिंतन दिया, और वही भाव आगे चलकर हिन्दवी स्वराज्य का स्तंभ बना। वीर सावरकर की माता ने शौर्य गाथाएँ पढ़ीं, जिसका प्रतिफल उनके पुत्र के साहस में दिखा। मायादेवी का सात्त्विक जीवन बुद्ध के करुणामय व्यक्तित्व का मूल बना, वहीं संत ज्ञानेश्वर की माता के ईश्वर-चिंतन ने भक्ति और अध्यात्म की अमूल्य धारा प्रवाहित की। इन उदाहरणों से स्पष्ट है कि गर्भ संस्कार केवल धार्मिक परंपरा नहीं, बल्कि समाज और राष्ट्र निर्माण की नींव रखने वाली धरोहर है। गर्भ केवल शरीर नहीं गढ़ता, वह चरित्र और चेतना को भी आकार देता है।

गर्भ संस्कार और आधुनिक चिकित्सा विज्ञान

आज का विज्ञान भी यह मानता है कि गर्भावस्था के दौरान माँ की मानसिक और शारीरिक स्थिति सीधे भ्रूण को प्रभावित करती है। 2017 में प्रकाशित एक अध्ययन के अनुसार, गर्भावस्था के शुरुआती महीनों में यदि माँ अधिक तनावग्रस्त रहती है और उसके शरीर में कॉर्टिसोल (तनाव हार्मोन) का स्तर बढ़ जाता है, तो इसका नकारात्मक असर शिशु के मानसिक और मोटर विकास (चलना, पकड़ना, संतुलन) पर पड़ता है। शोध बताते हैं कि गर्भावस्था में आयरन, फोलिक एसिड और प्रोटीन की कमी से शिशु का जन्म-वजन कम होता है। लो-बर्थ-वेट वाले बच्चों में आगे चलकर बैठने, रेंगने और चलने जैसी गतिविधियाँ देर से विकसित होती हैं। भारत में किए गए अध्ययन अनुसार गर्भवती महिलाओं में डिप्रेशन की दर 10 से 36 प्रतिशत तक और एंग्ज़ायटी (चिंता) की दर लगभग 55 प्रतिशत तक पाई गई है। एक अन्य अध्ययन (2019) के अनुसार, देश में लगभग 28 प्रतिशत गर्भवती महिलाएँ किसी न किसी मानसिक स्वास्थ्य समस्या से जूझ रही होती हैं।

आज के समय में, जब स्वास्थ्य एक व्यावसायिक वस्तु बनता जा रहा है, गर्भ संस्कार सचमुच युग की आवश्यकता है। यह ऐसी साधना है, जो बिना मूल्य माँगें भी अमूल्य भविष्य गढ़ती है।

गर्भावस्था के महीनों के अनुसार गर्भ संस्कार

आँकड़े साक्षी हैं कि जिन सिद्धांतों पर प्राचीन ऋषियों ने गर्भ संस्कार की परंपरा गढ़ी थी, आज वही सत्य चिकित्सा और मनोविज्ञान के शोध में पुनः प्रतिध्वनित हो रहे हैं; इसी कड़ी में संस्कारों की यह शृंखला गर्भधारण से पूर्व ही आरंभ होती है, और इसका पहला सोपान है –

गर्भाधान संस्कार (तत्पश्चात् प्रारंभिक चरण)

सोलह संस्कारों में गर्भाधान संस्कार प्रथम है। इसके पूर्व की एक महत्वपूर्ण तैयारी को गर्भशुद्धि कहा गया है। गर्भशुद्धि का आशय है – माता-पिता दोनों के आहार, विचार और वातावरण की शुद्धि, ताकि गर्भधारण के समय उनकी चेतना सात्त्विक और संतुलित हो। ऋषियों का मानना था कि जैसी स्थिति में गर्भाधान होगा, वैसा ही शिशु का शारीरिक, मानसिक और भावनात्मक गठन होगा। आधुनिक विज्ञान भी इसे प्रेग्नेंसी प्रिपरेशन के रूप में स्वीकार करता है, जहाँ संतुलित आहार और तनाव-मुक्त जीवन (क्रोध, ईर्ष्या से दूर) भावी शिशु के श्रेष्ठ विकास की नींव रखते हैं। आधुनिक एपिजेनेटिक्स (epigenetics) शोध बताते हैं कि पिता की जीवनशैली जैसे- धूम्रपान, शराब या तनाव शुक्राणुओं के गुणसूत्रों (DNA) पर असर डालती है, जिससे भ्रूण के स्वास्थ्य पर गहरा प्रभाव पड़ता है।

गर्भावस्था के पहले तीन महीने प्रारंभिक चरण माने जाते हैं। इसी समय भ्रूण की मूल नींव रखी जाती है जैसे- हृदय, मस्तिष्क, रीढ़, अंग-प्रत्यंग और इंद्रियों का प्रारंभिक विकास। यही कारण है कि गर्भाधान संस्कार प्रथम तिमाही के लिए अत्यंत आवश्यक समझा गया है। सनातन परंपरा में जिस सात्त्विक जीवन पर जोर दिया गया, वही आज के विज्ञान की ‘prenatal care’ (प्रसवपूर्व देखभाल) की मूलभूत अवधारणा है। इस आरंभिक नींव पर गर्भ के अगले चरण की इमारत खड़ी होती है, जहाँ भ्रूण केवल शारीरिक ही नहीं बल्कि भावनात्मक विकास से भी गुजरता है।

मध्य चरण और पुंसवन संस्कार

चौथे से छठे महीने में भ्रूण का मस्तिष्क और इंद्रियाँ (sense organs) तीव्र गति से परिपक्व होने लगती हैं। इसी काल के लिए पुंसवन संस्कार निर्धारित है, पुंसवन संस्कार के समय गर्भवती माता को औषधीय घृत, दूध और वनस्पति-आधारित पेय दिए जाते थे। घृत मस्तिष्क और स्नायु तंत्र को पोषण देता है और जड़ी-बूटी से बने पेय इंद्रियों व मन को संतुलित रखते हैं। यज्ञ और मंत्रोच्चार माँ को शुद्ध व शांत वातावरण प्रदान करते थे, जिसका प्रभाव भ्रूण के स्वास्थ्य, बुद्धि और स्वभाव पर पड़ता था। आज विज्ञान भी मानता है कि यह परंपरा वास्तव में ‘पोषण और संवेदी उद्दीपन’ (sensory stimulation) है, जहाँ संतुलित आहार और सकारात्मक ध्वनियाँ शिशु के शारीरिक एवं मानसिक विकास को संतुलित करती हैं। जब यह भावनात्मक परिपक्वता आकार लेने लगती है, तब गर्भ का अंतिम चरण शिशु के व्यक्तित्व और बौद्धिक क्षमता को सँवारने की दिशा में आगे बढ़ता है।

अंतिम चरण और सीमान्तोन्नयन संस्कार

सातवें से नौवें महीने को शास्त्रों ने भ्रूण के बौद्धिक परिपक्वता और व्यक्तित्व निर्माण का काल माना है। इसी समय सीमान्तोन्नयन संस्कार किया जाता था, जो केवल एक अनुष्ठान नहीं, बल्कि गर्भवती स्त्री के सम्मान, स्नेह और भावनात्मक सुरक्षा का प्रतीक है। जब परिवार गीतों और आशीर्वाद से घर को सकारात्मक ऊर्जा से भर देता, तो माँ का मन प्रसन्न होता, और वही भाव सीधे गर्भस्थ शिशु तक पहुँचते हैं। विज्ञान मानता है कि तीसरी तिमाही में भ्रूण ध्वनियों को पहचानकर अपनी स्मृति और स्वभाव में अंकित करता है। शास्त्रीय संगीत माँ की चिंता घटाकर शिशु की हृदय गति और व्यवहार को संतुलित बनाता है। भारतीय अध्ययन विशेष रूप से राग कल्याणी के लाभों को दर्शाते हैं। राग कल्याणी माँ के मन में भक्तिभाव और सौम्यता भरता है – यह परंपरा और विज्ञान का जीवंत संगम है।

संगीत और रागों का वैज्ञानिक आधार

2023 में नेशनल लाइब्रेरी ऑफ मेडिसिन में प्रकाशित एक समीक्षात्मक अध्ययन ने उद्घाटित किया कि जिन माताओं ने मध्य चरण में नियमित रूप से मधुर राग-संगीत सुना, उनके शिशु जन्म के बाद अधिक सहज, संतुलित और लचीली हरकतें करते पाए गए। भारतीय परंपरा ने तो सदियों पहले ही संगीत को काल और भाव से जोड़कर देखा। प्रातःकाल का राग भैरवी मानो आत्मा में शांति भर देता है; संध्या का यमन या कल्याणी मन को भक्ति और समर्पण से सराबोर कर देता है। दिवस के मध्य राग टोडी धैर्य और ध्यान की स्थिरता प्रदान करता है, जबकि रात्रि का हिन्दोल शिशु और माता – दोनों को विश्राम और मधुर निद्रा की ओर ले जाता है।  इसी कड़ी में असावरी, पूरिया धनश्री तथा कर्नाटक परंपरा के भूपाली और दरबारी भी गर्भावस्था में कल्याणकारी माने गए हैं। रोज़ 20-30 मिनट मधुर संगीत सुनना माँ और शिशु के लिए सुरक्षित व प्रभावी है, जो प्राचीन ज्ञान और आधुनिक शोध की सहमति दर्शाता है।

मंत्र और संवाद का महत्व

मंत्र-जप गर्भ संस्कार की आत्मा है। ॐ नमः शिवाय, ॐ नमो भगवते वासुदेवाय, महामृत्युंजय मंत्र और सर्वे भवन्तु सुखिनः जैसे मंत्र माँ को शांति और भ्रूण को सकारात्मक ऊर्जा देते हैं। वैज्ञानिक शोध बताते हैं कि गर्भावस्था के 25–27वें सप्ताह, यानी छठे से सातवें महीने में भ्रूण आवाज़ पहचानना शुरू कर देता है। इस दौरान जब माता-पिता प्रेमपूर्ण स्वर में कहते हैं – “हम तुमसे बहुत प्यार करते हैं”, “तुम स्वस्थ और प्रसन्न रहो” तो माँ के भीतर ऑक्सीटोसिन, जिसे बांडिंग हार्मोन कहा जाता है, सहज ही बढ़ने लगता है। यही हार्मोन माता-पिता और शिशु के रिश्ते को और गहराई देता है, शिशु के भीतर सुरक्षा और आत्मविश्वास का भाव अंकित करता है। मधुर स्वर और हल्की बातचीत माँ को सहजता और संतुलन देती है, और उसी का असर शिशु की हलचलों और ‘किक’ में दिखता है, जो अधिक नियमित और स्वस्थ हो जाती हैं। यही शिशु आगे चलकर आत्मविश्वासी, संतुलित और उत्तरदायी नागरिक बनते हैं। हमारे ग्रंथ भी इस भावनात्मक यात्रा में पावन सहयोगी हैं। गीता, रामचरितमानस और प्रेरणादायक शास्त्रों का पाठ माँ को भीतर से आलोकित करता है। इसके साथ ही जब वह प्रकृति की हरियाली में टहलती है, हल्का योग करती है या गहरी साँसों के साथ स्वयं को शांत करती है, तो यह केवल उसकी चिंता को ही नहीं मिटाता, बल्कि मन को स्थिरता और शिशु के विकास को सौम्यता प्रदान करता है। अतः माँ की साधना ही शिशु का पहला संस्कार है।

तकनीक और सावधानी

वर्तमान समय में मोबाइल का अत्यधिक प्रयोग गर्भावस्था के लिए गंभीर चुनौती बन गया है। लगातार स्क्रोलिंग से माँ के मन पर दबाव बढ़ता है, नींद प्रभावित होती है और तनाव भी बढ़ता है। शोध बताते हैं कि मोबाइल से निकलने वाले विकिरण (radiations) भ्रूण की general movements (सामान्य हलचलें) पर असर डाल सकते हैं, जबकि स्क्रीन की तेज़ रोशनी और तीव्र ध्वनियाँ उसकी इंद्रियों को अनावश्यक रूप से उत्तेजित करती हैं। परिणामस्वरूप, जन्म के बाद शिशु की नींद का पैटर्न अस्थिर और हाथ-पाँव की फुर्ती असंतुलित देखी गई है। अधिक मोबाइल प्रयोग माँ और शिशु के बीच भावनात्मक संवाद को भी कमजोर करता है, जिससे शिशु के भीतर सुरक्षा और आत्मविश्वास की नींव प्रभावित होती है।

गर्भ संस्कार का सामाजिक महत्व

राष्ट्र निर्माण केवल ईंट-पत्थर की इमारतों, पक्की सड़कों या चमकती तकनीक से नहीं होता; उसकी सुदृढ़ नींव उन नागरिकों से पड़ती है, जिनमें साहस की ज्वाला, दूरदर्शिता की दृष्टि और करुणा की गहराई हो। ऐसे चरित्रवान नागरिक संयोग से नहीं जन्म लेते, उनके संस्कार गर्भावस्था की पहली धड़कनों से ही आकार लेने लगते हैं। गर्भावस्था का समय किसी एक परिवार का निजी अनुभव नहीं, बल्कि पूरे समाज और राष्ट्र की नियति गढ़ने वाला निर्णायक अध्याय होता है। माँ का गर्भ ही राष्ट्र की पहली प्रयोगशाला है।

यदि माँ तनाव, हिंसा या कुपोषण में जीती है तो भ्रूण का मस्तिष्क और हृदय विकास प्रभावित होता है, जिससे आगे चलकर ध्यान की कमी, आक्रामकता, अवसाद या असामाजिक प्रवृत्तियाँ जन्म ले सकती हैं। ऐसे बच्चे किशोरावस्था में आपराधिक प्रवृत्तियों या सामाजिक असंतुलन की ओर झुक सकते हैं, जो केवल व्यक्तिगत त्रासदी नहीं बल्कि राष्ट्र की ऊर्जा का क्षरण है।

स्पष्ट है कि गर्भ संस्कार केवल धार्मिक अनुष्ठान नहीं, बल्कि विज्ञान और संस्कृति का अद्भुत समन्वय हैं। गर्भाधान का सात्त्विक वातावरण, पुंसवन का औषधीय आहार और सीमान्तोन्नयन की भावनात्मक स्थिरता – तीनों ही आज विज्ञान द्वारा प्रमाणित स्तंभ हैं। संतों और महापुरुषों का जन्म कभी मात्र संयोग नहीं रहा; वे माताओं की तपस्या, उनके विचारों की गहराई और संस्कारों की शक्ति का प्रत्यक्ष परिणाम हैं। यदि हम भारत की भावी पीढ़ी को मानसिक दृढ़ता, शारीरिक सामर्थ्य और नैतिक ऊँचाई से संपन्न देखना चाहते हैं, तो सबसे पहला और महान निवेश गर्भावस्था को स्वस्थ व संस्कारित बनाने में करना होगा। माँ का गर्भकालीन सौम्य और संस्कारित वातावरण ही राष्ट्र की भावी पीढ़ी में जीवन-ऊर्जा, करुणा और नेतृत्व का अंकुरण करता है। निस्संदेह, गर्भ संस्कार ही संस्कारित पीढ़ी की सबसे मजबूत नींव हैं।

(लेखिका दंत चिकित्सक हैं तथा दिल्ली स्कूल ऑफ़ इकोनॉमिक्स से पीएच.डी. हैं)

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