दादरा-नगर हवेली सशत्र मुक्ति संग्राम की गौरव गाथा

 – अवनीश भटनागर

परकीय शासन के विरूद्ध सतत् संघर्ष तथा असंख्य बलिदानों के सुपरिणाम के रूप में भारत ने 15 अगस्त 1947 को स्वाधीनता का स्वर्णिम प्रभात देखा। दुर्भाग्य से, भारत का ही एक भाग दादरा एवं नगर हवेली भारत की स्वाधीनता के सात वर्ष बाद भी पुर्तगाल की दासता में जकड़ें हुए था।

भारत के अनेक छोटे-बड़े भूभाग विश्व के चार अन्य देशों के उपनिवेश बने हुए थे। इनमें थे ब्रिटेन, पुर्तगाल, डच, और फ्रांसीसी। ब्रिटीश दासता से भारत 1947 में मुक्त हुआ। फ्रेंच पॉण्डिचेरी (वर्तमान पुड्डुच्चेरि) पर अपना आधिपत्य त्याग गए। हॉलैण्ड के निवासी डच का कब्जा चन्द्र नगर और कालीकट (वर्तमान कोझिकोड) पर था, वे भी अपना राजपाट समेट कर चले गए। शेष रह गए पुर्तगाली जो दादरा-नगर हवेली पर शोषण, अत्याचार और मतान्तरण का अपना शिंकजा 1954 तक भी छोड़ने को तैयार नहीं थे। शस्त्रास्त्रों की पर्याप्त मात्रा होने के कारण अंहकार से भरा उनका शासक सालाजार क्रूरतापूर्वक इस उपनिवेश का रक्तपान कर रहा था।

इस बीच दो प्रयास हुए भी। डॉ. राम मनोहर लोहिया के नेतृत्व में सत्याग्रह और दादरा-नगर हवेली को मुक्त कराने का विरोध प्रदर्शन हुआ। कुछ स्थानीय युवकों ने ‘आजाद गोमान्तक दल’ का गठन कर आन्दोलन प्रारम्भ किया। ये दोनों प्रतिरोध पुर्तगाली सैन्य शक्ति द्वारा निर्ममतापूर्वक कुचल दिए गए।

और फिर सामने आया नवयुवकों का एक समूह। सभी की आयु 15 से 35 के बीच। सभी उत्साह से भरे हुए किन्तु अनुभवहीन। साहस के पुतले, आत्म बलिदान करने को तत्पर परन्तु किसी की न तो युद्ध लड़ने और जीतने की कोई पारिवारिक पृष्ठभूमि, न ही प्रशिक्षण। ऐसे युद्ध अभियानों की क्या पूर्व तैयारी अपेक्षित होती है, मालूम नहीं। जहाँ अभियान करना है उसका ठीक से न इतिहास का ज्ञान, न भूगोल का। न अस्त्र-शस्त्र की व्यवस्था, न ही जुटाने के लिए धन। फिर कैसे चल पड़े ये इतने बड़े संघर्ष की दिशा में? उनके पास संयुक्त रूप से पूँजी थी – मातृभूमि के प्रति अविचल भक्ति, उसे स्वाधीन देखने की उत्कट आकांक्षा, जीवन के उच्चतम बलिदान तक की सिद्धता से युक्त अदम्य साहस और इन सबके मूल में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के स्वयंसेवक के रूप में प्राप्त अडिग संकल्प शक्ति। इनमें से कुछ नाम थे – राजा भाऊ वाकणकर, त्र्यम्बंक भट्ट, सुधीर फड़के, विष्णुपंत भोपले, मोहन रानडे, प्रभाकर सिनारी और अप्पा करमबेलकर। ये सब विभिन्न वेशभूषा में भूमिगत रहकर गोवा-दमन-दीव के सीमा क्षेत्र में कार्यरत थे। कार्यकर्ताओं की बैठकों में दादरा-नगर हवेली की मुक्ति पर निरन्तर चर्चाओं का परिणाम आया एक साहसपूर्ण कार्य योजना के रूप में। इस योजना को संघ के तत्कालीन वरिष्ठजनों के सामने प्रस्तुत किया गया। मा. बाबा राव भिड़े, विनायक राव आप्टे जी से चर्चा उपरान्त परम पूज्य श्री गुरुजी का आशीर्वाद भी प्राप्त हुआ।

‘पूर्व योजना और पूर्ण योजना’ कार्य की सफलता का आधार है। केवल उत्साह और साहस के बल पर युद्ध नहीं जीते जाते। भगवान श्रीराम के लंका अभियान और छत्रपति शिवाजी महाराज के सफलतम संघर्षों के उदाहरण इन कार्यकर्ताओं के पास थे। योजना की दिशा और गति ठीक रहे, इसके लिए युद्ध क्षेत्र, शत्रु पक्ष की स्थिति, स्थानीय भौगोलिक परिस्थितियाँ, स्थानीय समाज का मानस- इन सबको जानना-समझना आवश्यक था। इसके लिए ये योद्धा विभिन्न वेशभूषा में सात माह तक दादरा-नगर हवेली क्षेत्र में सामान्य समाज के बीच रहे- कोई बीमा एजेण्ट बन कर कोई पर्यटक, कोई गायक-कलाकार बनकर कोई-कोई टूटे-फुटे बर्तन सुधारने लगे घर-घर घूम कर और किसी ने भिक्षा माँगते हुए ही सूचनाएँ एकत्र करने का काम जारी रखा। कठिन परिश्रम, अनियमित जीवन, प्राण चले जाने तक का जोखिम, परन्तु मातृभूमि के इस मांग को भी स्वतंत्र देखने की अत्कट अभिलाषा के सूत्र ने इस कण्टकाकीर्ण मार्ग को स्वयं स्वीकृत किया था।

एक प्रश्न का समाधान किया जाना अभी शेष था। बिना आर्थिक व्यवस्था के अभियान आगे कैसे बढ़ेगा? इसके लिए सुप्रसिद्ध गायक संगीतकार सुधीर फड़के ने अपने ऊपर दायित्व लिया। अपनी गायन विद्या और उस पर आधारित सामाजिक संपर्क देशहित में काम में लाये गए। सुधीर फड़के ने भारत की प्रख्यात सुर-साम्राज्ञी लता मंगेशकर जी से सहमति लेकर पूणे महानगर के हीराबाग मैदान में ‘लता मंगेशकर रजनी’ बैनर पर एक विशाल संगीत कार्यक्रम का आयोजन किया जो कि पुणे के इतिहास में इस प्रकार का पहला कार्यक्रम था। प्रसिद्ध गायक मोहम्मद रफी भी लता दीदी के आमंत्रण पर इस कार्यक्रम में अपनी प्रस्तुति देने के लिए आए। सुधीर फड़के के प्रति स्नेहपूर्ण आत्मीयता और मातृभूमि के प्रति भक्ति के कारण लता दीदी ने इस कार्यक्रम में सहभागिता की। यद्यपि इस कार्यक्रम से बड़ी धन राशि एकत्र हुई, तथापि वह अपर्याप्त थी जिसे बाद में अन्य व्यक्तियों एवं संस्थाओं से संग्रह किया गया।

इस सारी योजना, धनराशि, संकलित सूचनाओं तथा प्रयत्नों के आधार पर हमारे रणबाँकुरे रणभूमि की ओर चल पड़ें। 25 स्वयंसेवकों की इस पहली टुकड़ी ने पुर्तगाल राज्य सीमा की पिपरिया चौकी पर आक्रमण किया और उस पर कब्जा करने में सफल हुए। इसमें 12 पुर्तगाली सैनिक बन्दी बनाए गए, 303 राइफलें तथा अन्य शस्त्रास्त्र मिले तथा उनके राजधानी केन्द्र सिलवासा के विषय में अनेक महत्वपूर्ण सूचनाएँ प्राप्त हुई। यह भी ध्यान में आया कि यदि 100 स्वयंसेवक और मिल जाएं तो अभियान सफल हो सकता है। युद्ध स्तर पर यह व्यवस्था भी की गई।

महाराष्ट्र-गुजरात की वर्तमान सीमा पर स्थित वापी सैन्य चौकी से अभियान की शुरूआत करने की योजना बनी। 29 जुलाई 1954 की रात्रि यह दल वापी स्टेशन पहुँचा जहाँ श्रीमती हेमवती बाई नातेकर महिला वसतिगृह में आवास की व्यवस्था की गई थी। यहीं सभी सहभागियों को आगामी कार्य योजना समझाई गई, सबकी भूमिका की जानकारी दी गई और तदनुसार उप समूहों की रचना की गई।

31 जुलाई 1954 की अंधेरी रात थी। तेज वर्षा हो रही थी। विनायक राव आप्टे के निर्देशन में राजा भाऊ वाकणकर के नेतृत्व में इन 125 योद्धाओं में दादरा-नगर हवेली की राजधानी सिलवासा की ओर कूच किया। युद्ध के पूर्व प्रशिक्षण के बिना किन्तु राष्ट्रभक्ति से भरे हुए हृदयों के साथ इन अग्रिम पंक्ति योद्धाओं ने किसी प्रशिक्षित सैन्य दल जैसे अनुशासन के साथ मानो मृत्यु के मुख में ही छलांग लगा दी। इनके मन में शिवाजी महाराज का शौर्य जैसे जीवंत हो उठा। अपर्याप्त शस्त्र, वित्तीय एवं मानवीय संसाधनों के साथ भी मातृभूमि के प्रति अविचल भक्ति के कारण जिन चुनौतियों का सामना करने में मराठा शक्ति छत्रपति शिवाजी के नेतृत्व में सफल हुई, उसने भविष्य की पीढ़ियों के लिए मार्ग दिखाने का कार्य किया।

सिलवासा को स्वाधीन करने के लिए 2 अगस्त की तिथि तय की गई थी। यह अमावस्या के निविड़ तम की रात्रि थी। निरन्तर वर्षा के कारण नदी-नाले-सरोवर भरे हुए थे। चारों ओर कीचड़ ही कीचड़। परन्तु लक्ष्य के प्रति अटूट निष्ठा, परस्पर समन्वय और अन्तःकरण में धधक रही मातृभूमि के इस भाग को स्वाधीन करने की ज्वाला को वर्षा और बाढ़ नहीं रोक सकी। चार दल बनाए गए और तय किया गया कि एक दल सिलवासा पोस्ट पर सामने से आक्रमण करेगा और शेष तीन दल पीछे की ओर से।

सिलवासा पहुँचकर सामने से आने वाले दल ने दीपावली में फोड़ें जाने पटाखो चलाने शुरू किए। निश्चिन्त नींद में सोए पड़े पुर्तगाली सैनिकों ने इसे बन्दूकों की गोली बारी की आवाज समझा और यह अनुमान लगाकर कि उन पर मुख्य द्वार से आक्रमण किया गया है, वे उस दिशा में प्रतिकार करने दौड़ें। योद्धाओं की तीन टुकड़ियाँ पीछे की ओर इसी अवसर की प्रतीक्षा में थीं। संकेत पाते ही उन्होंने पीछे के मार्ग से प्रवेश किया और हक्के-बक्के खड़े पुर्तगाली सैनिकों पर बन्दूकें तान दी। स्वाधीनता सेनानियों की संख्या सीमित होते हुए भी पुर्तगाली सैनिकों से अधिक थी। उन्हें अपनी असहाय स्थिति का आभास हो गया और बिना किसी विरोध के उन्होंने अपने शस्त्र डाल दिए। उन सबको सब कमरे में बंद कर दिया गया।

बिना किसी रक्तपात के सिलवासा पर स्वाधीनता के इन दीवानों का कब्जा हो चुका था। ‘भारत माता की जय’ ‘वन्दे मातरम्’, ‘छत्रपति शिवाजी महाराज की जय’ और ‘हर-हर महोदव’ की जय जयकार वातावरण में गूँज उठी। सभी स्वयंसेवक पोस्ट के मुख्य द्वार पर एक हुए। पुर्तगाली झण्डे को उतार कर सम्मान सहित पुर्तगाली नायक को सौंप दिया गया और भारत का राष्ट्रध्वज गौरव पूर्वक फहरा दिया गया। स्वतंत्रता के इन मतवाले सैनिकों ने गर्व निश्चित आनन्द से भरे हृदय से ध्वजवन्दन किया। भवन में लगे पुर्तगाली तानाशाह सालाजार के चित्र को उतार कर छत्रपति शिवाजी महाराज का भव्य चित्र लगाया गया। विगत 185 वर्षां से जिस भूभाग पर पुर्तगाली आक्रांताओं ने अपना उपनिवेश बना रखा था, वह इस 2-3 अगस्त 1954 की रात्रि में समाप्त हो गया था।

सिलवासा पोस्ट पर तो अधिकार हो गया, किन्तु अभी पुर्तगाल की पूर्ण पराजय कहाँ हुई थी? स्वयंसेवकों ने बन्दी बनाए गए पुर्तगाली सैनिकों से कठोरता से पूछताछ की तो मालूम हुआ कि पुर्तगाली सैन्य अधिकारी फिडाल्यो और फालकन सैनिकों की टुकड़ी तथा अतिरिक्त अस्त्र-शस्त्र लेकर दमन गंगा नदी को पार कर सिलवासा की ओर बढ़ रहे है और वे आज रात्रि तक यहाँ पहुंच कर आक्रमण कर सकते हैं। स्वयंसेवकों ने उनको यहाँ पहुँचने से पहले अरक्षित क्षेत्र में रोकने की योजना बनाई किन्तु अत्याधिक तेज वर्षा के कारण संभव न हो सका।

प्रकृति सहयोग नहीं कर रही थी किन्तु संयोग ने साथ दिया। अनायास एक वाहन आता दिखा जिसमें चार सवारी थी। वाहन चालक, दो महिलाएँ और एक पुरूष। पूछताछ करने पर जानकारी में आया कि एक महिला सैन्य अधिकारी की पत्नी थी। अब प्रत्यक्ष युद्ध के स्थान पर कूटनीति से काम लेने की योजना बनी। अधिकारी की पत्नी को युद्ध बंधक बना लिया गया और उस पुरूष सहायक के माध्यम से संदेश भेजा गया कि वे भी आत्म समर्पण कर दें। उत्तर में सैन्य अधिकारियों से कहा कि इतना बड़ा नीतिगत निर्णय लेने के पहले उन्हें पुर्तगाल की राजधानी लिस्बन को यहाँ की परिस्थितियाँ बता कर आत्म समर्पण करने की अनुमति लेनी होगी। अन्ततः चार दिन बाद लिस्बन से अनुमति प्राप्त हो जाने वर सभी पुर्तगाली सैनिकों ने आत्म समर्पण कर दिया। इस प्रकार इस अभियान का प्रथम चरण तो हमारे साहसी युवकों के संकल्प से पूर्ण हुआ किन्तु अभी अन्तराष्ट्रीय राजनैतिक घटनाचक्र चलना शेष था।

पराजय और आत्म समर्पण करने पर भी पुर्तगालियों ने एक नई चाल चली। उन्होंने तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू से शिकायत की कि उनके शासित क्षेत्र पर गुण्डों ने कब्जा कर लिया है। या तो भारत सरकार उनकी सहायता करे अथवा उन्हें अपने देश से अतिरिक्त सैनिक और शास्त्रास्त्र भारतीय सीमाओं से लोन दिया जाए ताकि वे इस अतिक्रमण का प्रतिकार कर अपने शासन क्षेत्र को वापस ले सकें। परन्तु भारत सरकार की सीमाओं को पार कर किसी विदेशी सैन्य दल को भारत में आने की अनुमति नहीं दी जा सकती, इस आधार पर पुर्तगाल के आवेदन को निरस्त कर दिया गया। इस पर पुर्तगाल ने हेग के अन्तरराष्ट्रीय न्यायालय में वाद प्रस्तुत कर दिया। यह मुकदमा छह वर्ष तक चला और अन्ततः 1960 में अन्तर्राष्ट्रीय न्यायालय ने अपील को खारिज कर दिया। इससे यह स्थापित हो गया कि पुर्तगालियों द्वारा अब तक शासित दादरा-नगर हवेली भारत भूमि का भाग है।

दादरा-नगर हवेली की स्वाधीनता के लिए किए गए इन मुट्ठी भर युवकों के साहस और योजना बद्ध अभियान की चिंगारी इस बीच आसपास के क्षेत्र में भी फैल गई और अन्ततः 1961 में सैन्य अभियान द्वारा गोवा, दमन ओर दीव को भी भारत में मिला लिया गया।

विश्व के इतिहास में यह संभवतः सबसे कम अवधि 24 घण्टे का सशस्त्र किन्तु रक्तपात रहित सैन्य अभियान था।

इस सम्पूर्ण घटनाक्रम में संघ कहाँ था? इस अभियान में भाग लेने वाले सभी स्वयंसेवक थे – संघ उनके अन्तःकरण में था। इसी का परिणाम था कि इस अभियान में न किसी संपत्ति को लूटा, जलाया या नष्ट किया गया, न समाज के किसी सामान्य व्यक्ति को कष्ट दिया गया और यहाँ तक कि युद्ध बंदी पुर्तगाली सैनिकों अथवा बंधक बनाई गई महिलाओं के प्रति कोई अभद्रता की गई। पोस्ट पर कब्जे के बाद वहाँ शस्त्र भी थे, खजाना भी था किन्तु किसी स्वयंसेवक ने उसे ले जाना नहीं उचित समझा जबकि शत्रु संपत्ति पर तो विजेताओं का स्वाभाविक स्वामित्व सब दूर माना जाता है। उन्होंने पुर्तगाली शस्त्रागार और खजाना भारत सरकार को सौंप दिया। अपनी जीवन दाँव पर लगा देने वाले उन स्वयंसेवकों ने अपने लिये क्या लिया? केवल अपनी मातृभूमि की एक चुटकी पवित्र मिट्टी, जिसे इस मुक्ति संग्राम की पूर्णता पर अपने माथे पर गौरवपूर्वक लगाकर उन्होंने उद्घोष किया – ‘भारत माता की जय’।

लम्बे समय के बाद भारत सरकार ने उन्हें स्वतंत्रता सेनानी का दर्जा दिया, परन्तु अभियान के सफल होने के 46 वर्षों के बाद, जब उन जाँबाजों में से अनेक अपनी जीवनयात्रा पूर्ण कर चुके थे।

दादरा-नगर हवेली के पुर्तगाल शासित 72 गाँवों की 1,75,000 एकड़ भूमि, 491 वर्ग किलोमीटर का क्षेत्रफल स्वतंत्र भारत का अंग बना।

इन स्वयंसेवकों की संकल्प शक्ति, मातृभूमि के प्रति अविचल भक्ति, निःस्वार्थ रूप से अन्याय का प्रतिकार करने का अदम्य साहस और लक्ष्य के प्रति अडिग निष्ठा, जिसने इस असंभव से प्रतीत होने वाले कार्य को सफल कर दिखाया, हमारी आगामी पीढ़ियों के लिए प्रेरणा बनें, इतिहास के स्वर्णिम पृष्ठों में उनकी यशास्विता को स्थान मिले, यही कामना!

(लेखक विद्या भारती के अखिल भारतीय उपाध्यक्ष है।)

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