– वासुदेव प्रजापति
यह परिचय है “विभाजनकालीन भारत के साक्षी” पुस्तक का। भारत विभाजन के विषय पर वैसे तो अनेक पुस्तकें लिखी गईं हैं, किन्तु यह पुस्तक उनसे भिन्न है और विशेष है। सामान्यतया इस विषय पर लिखी गई पुस्तकों का लेखन सरकारी दस्तावेज या कांग्रेस अथवा मुस्लिम लीग जैसी संस्थाओं की कार्यवाही व कार्यक्रमों के आधार पर हुआ हैं जो उनको ही उभारती है अथवा बचाती है। जबकि यह पुस्तक जिन्होंने प्रत्यक्ष विभाजन की विभीषिका को झेला है, उनके मुख से निकली उनकी वेदना का वास्तविक लेखन है।
यह वास्तविक लेखन करनेवाले लेखक हैं- श्री कृष्णानंद सागर। आप स्वयं विभाजन की त्रासदी के प्रत्यक्ष द्रष्टा हैं, स्वयं ने उस वेदना को सहा है। आपकी उसी वेदना ने इस पुस्तक को जन्म दिया है, इसलिए भी यह पुस्तक विशेष है। उन्होंने अपने जैसे लगभग पांच सौ लोगों के साक्षात्कार लिए जिन्होंने खुद विभाजन की त्रासदी को झेला है। लगभग बीस वर्षों के कठिन परिश्रम से लिए गए साक्षात्कारों में से तीन सौ पचास की आपबीती को पुस्तक के चार खण्डों में समाहित किया है। यह परिचय पुस्तक के चार खंडों में से प्रथम खण्ड का है, प्रथम खण्ड में दो अनुभाग हैं। अनुभाग एक में लेखक ने विभाजन से सम्बन्धित कुछ तथ्यों का समावेश किया है, जो विभाजन की वास्तविकता उजागर करते हैं। अनुभाग दो में 76 साक्षियों के संस्मरणों को साक्षियों के नाम के अनुक्रम से समाहित किया है, जो अनिल गुप्ता से प्रारम्भ होकर गौरीनंदन सिंहल तक चलते हैं। इस प्रथम खण्ड की प्रस्तावना श्रीयुत् श्रीराम आरावकर जी ने लिखी है, आप वर्तमान में अ. भा. विद्याभारती शिक्षा संस्थान के सह संगठन मंत्री हैं। जागृति प्रकाशन, एफ 109, सेक्टर 27, नोएडा- 201301 में इसका प्रकाशन हुआ है। लेखक ने यह पुस्तक जिन्हें समर्पित की है उसे पढ़ने से पुस्तक का मंतव्य स्पष्ट हो जाता है-
समर्पण
उन लाखों देशवासियों को
जो हिन्दू होने के कारण
बर्बर आततायियों की खड्गों व गोलियों के शिकार हुए।
उन सहस्रों माताओं वह बहनों को
जिन्होंने अपनी अस्मिता की रक्षा के लिए
जीवित ही अग्नि चिंताओं में जलकर
अथवा नदियों व कुओं में समाकर अपनी जीवन लीला
समाप्त कर ली।
उन सैंकड़ों युवा वीरव्रतियों को
जो अपने प्राणों की चिन्ता न करके
विधर्मी आक्रमणकारियों से भिड़ गए,
और अनेकों को यमलोक भेजकर स्वयं भी सदा के लिए
मातृभूमि की गोद में सो गए।
विभाजन की पृष्ठभूमि
लेखक ने विभाजन की वास्तविकता को समझने के लिए कुछ महत्वपूर्ण बिन्दुओं का समावेश किया है, जिन्हें पढ़ने से विभाजनकारियों की मानसिकता स्पष्ट होती है।
१. यह केवल विभाजन नहीं था अपितु सीधा-सीधा हिन्दू समाज तथा मुस्लिम समाज के बीच एक महायुद्ध था। इस महायुद्ध के कई रणक्षेत्र थे, अनेक ‘कुरुक्षेत्र’ व अनेक ‘पानीपत’ थे। अगस्त १९४६ में बंगाल से प्रारम्भ हुआ यह युद्ध अगस्त-सितंबर १९४७ तक बिहार, पश्चिमी उत्तरप्रदेश, मेवात, राजस्थान का कुछ भाग, हरियाणा, हिमाचल, पूर्वी पंजाब, सिंध, बलूचिस्तान, सीमाप्रांत तथा जम्मू-कश्मीर तक फ़ैल गया था अर्थात् लगभग आधे भारत में इस युद्ध का व्याप था।
२. इस युद्ध में मुस्लिम आक्रान्ता था। मुस्लिम लीग उसका नेतृत्व कर रही थी। मुस्लिम प्रशासन, मुस्लिम पुलिस व मुस्लिम सेना पूरी तरह से उसकी पीठ पर थी। जबकि हिन्दू समाज आक्रमित था। उसका कोई नेता नहीं था। उसकी पीठ पर न तो हिन्दू प्रशासन, न हिन्दू पुलिस और न हिन्दू सेना ही थी। जिन हिन्दू नेताओं पर हिन्दू समाज ने विश्वास किया था, उन्होंने वाग्शूरता तो दिखाई किन्तु प्रत्यक्ष युद्ध शुरू होने से पहले ही पीठ दिखाकर भाग गए। अतः हिन्दू समाज को यह युद्ध अपने बलबूते पर ही लड़ना पड़ा था।
उपर्युक्त बिन्दु के पक्ष में वे अधोलिखित तथ्य देते हैं –
(अ) महात्मा गांधी विभाजन होने के पहले तक यह कहते रहे कि विभाजन मेरी लाश पर होगा। उनके इस वक्तव्य पर विश्वास कर अनेक हिन्दू वहीं रहे और मुसलमानों की बर्बरता के शिकार हुए। ऐसे आक्रन्ता मुस्लिमों के प्रति गांधीजी की सद्भावना उनके इस भाषण से ज्ञात होती है।
८ अगस्त १९४२ को मुम्बई में कांग्रेस महासमिति में गांधीजी के भाषण का अंश
“पाकिस्तान के सवाल पर मेरे मन में कोई भ्रम नहीं है। चाहे कुछ भी हो, पाकिस्तान हिन्दुस्तान के बाहर नहीं बन सकता। आजादी सबके लिए है, किसी एक जाति या कौम के लिए नहीं। किसी भी कौम को हिन्दुस्तान की हुकूमत सौंप देने की जो मांग मौलाना साहब (मौलाना आजाद) ने ब्रिटेन के सामने पेश की है, मैं उसका समर्थन करता हूँ। अगर मुसलमानों को हुकूमत सौंप दी जाए तो उससे मुझे कोई रंज नहीं होगा, आखिर वे भी हिन्दुस्तानी हैं। हिन्दू भी यह समझ लें कि उन्हें अल्पसंख्यकों सहित सबके लिए लड़ना है। मुसलमानों की जान बचाने के लिए उन्हें अपनी जान की कुर्बानी करनी चाहिए। यह अहिंसा का पहला पाठ है।”
– कांग्रेस का इतिहास, खण्ड २, पृष्ठ ४०७
(आ) दूसरा दृष्टांत नेहरु जी का है। यह उस समय का है जब एक हिन्दू प्रतिनिधि मंडल विभाजन के नाम पर हो रहे आक्रमण से बचाने की मांग लेकर उनसे मिलने गया, तब नेहरूजी ने उन्हें दो टूक मना कर दिया कि सरकार तुम्हारी कोई मदद नहीं कर सकती।
मार्च के महीने में जवाहरलाल नेहरू अमृतसर आए थे। जगह-जगह जले हुए मकानों व दुकानों के मलबे के ढेरों को देखकर उन्होंने कहा था कि ऐसा लगता है मानो यहाँ भीषण बम वर्षा की गई हो। नेहरूजी उस समय अंतरिम सरकार के प्रमुख थे। अमृतसर की विभिन्न हिन्दू संस्थाओं का एक प्रतिनिधि मंडल उनसे भेंट करने पहुँचा और उनसे रक्षा करने की प्रार्थना की। नेहरूजी बोले- “सरकार जो भी कर सकती है, कर रही है, इससे अधिक वह नहीं कर सकती। आपको अपनी सुरक्षा खुद ही करनी पड़ेगी।” तब एक ने कहा, फिर तो आप हमें हथियार दे दीजिए, हम अपनी सुरक्षा खुद कर लेंगे। नेहरूजी- यह कैसे हो सकता है? अगर सरकार हिन्दुओं को हथियार देगी तो कल को मुसलमान भी मांगेंगे। तब दूसरा बोला, तो फिर आप हमें जहर ही दे दीजिए। अब नेहरू जी सकपका गए, वे उस समय चुर्रट पी रहे थे। चुर्रट का धुआं छोड़ते हुए बोले- देखो भाई, यह जो मार-काट चल रही है, इसका एक ही हल हमारी समझ में आ रहा है कि हिन्दुस्तान का विभाजन मान लिया जाए।
उस प्रतिनिधि मंडल के एक सदस्य थे ज्ञानी पिण्डीदास जी, उन्होंने नेहरू जी को बहुत ही खरी-खरी सुनाते हुए कहा- “अभी तक तो आप ऊँची-ऊँची घोषणाएँ करते फिर रहे थे कि हिन्दुस्तान का विभाजन किसी भी कीमत पर नहीं होगा। अब मुस्लिम दंगों को दृढ़तापूर्वक दबाने की बजाय आप उनके आगे घुटने टेकने की सोच रहे हैं। यह तो स्पष्ट ही आपकी कायरता है, आपका दोगलापन है। आपकी कथनी व करनी में अन्तर है। उन्होंने प्रश्न किया- “क्या विभाजन स्वीकार लेने पर स्थायी शान्ति हो जायेगी?” नेहरू जी ने इसका कोई उत्तर नहीं दिया।
सब लोग नेहरू जी के पास गए तो थे बहुत आशा लेकर, लेकिन लौटे निराश होकर। इस भेंट से एक बात बिल्कुल साफ हो गई थी कि सरकार तथा प्रशासन हिन्दुओं की कोई मदद नहीं करेगा, हिन्दूओं को अपनी रक्षा अपने बलबूते पर ही करनी होगी।
तथ्य जो पहली बार उजागर हुए
लेखक ने प्रस्तुत पुस्तक में उन तथ्यों को उजागर किया है, जिन्हें आम जन तक पहुँचने ही नहीं दिया गया। आपकी जानकारी के लिए प्रस्तुत है, ऐसे कुछ तथ्य –
१. विभाजन पूर्व से ही मुस्लिम लीग डंके की चोट पर कहती थी कि वह मुसलमानों की प्रतिनिधि संस्था है और उसे मुसलमानों के लिए अलग से मुस्लिम ‘होमलैंड’ चाहिए। इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए वह मुसलमानों को सशस्त्र व आक्रामक होने का आह्वान करती थी। इतना ही नहीं उसने तो द्वितीय विश्व युद्ध समाप्त होने के बाद अमरीकी सेना द्वारा छोड़े गए शस्त्रों को औने-पौने दामों में खरीदकर मुसलमानों को बांटे थे।
२. दूसरी ओर कांग्रेस की भ्रमपूर्ण स्थिति ऐसी थी कि वह स्वयं को हिन्दुओं व मुसलमानों दोनों की प्रतिनिधि संस्था मानती थी। जबकि मुसलमान उसे अपनी संस्था नहीं मानते थे। इस भ्रमजाल में फंसी कांग्रेस स्वयं को हिन्दुओं की संस्था मानती ही नहीं थी। इसलिए वह कभी हिन्दू हित की कोई बात नहीं करती थी। इसके विपरीत वह तो मुस्लिम आक्रामकता के विरुद्ध हिन्दुओं को शान्ति व अहिंसा का ही उपदेश देती थी। परिणाम स्वरूप मुसलमान मारते थे और हिन्दू कायर की भांति मार खाते थे और कांग्रेस मूक दर्शक बनी रहती थीं।
३. इस विषय परिस्थिति में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की भूमिका महत्वपूर्ण हो गई थी, क्योंकि संघ एक हिन्दू संगठन था। संघ की मान्यता थी कि हिन्दू समाज भारत का आदिकाल से पुत्रवत समाज है। यह संगठित व शक्ति सम्पन्न होगा तो विदेशी शासक यहाँ टिक ही नहीं पायेगा। अतः संघ ने स्वयं को प्रचलित राजनीति से दूर रखते हुए हिन्दू समाज को संगठित करने का काम स्वीकारा था। देश का दुर्भाग्य ही माना जाएगा कि तब तक संघ का कार्य देशभर में इतना विस्तार नहीं पा सका था कि वह अकेला अपने बलबूते पर विभाजन को टाल सकता। फिर भी संघ के स्वयंसेवकों ने विभाजन की इस त्रासदी में अपनी सामर्थ्य से बढ़कर हिन्दू समाज की रक्षा व सेवा की थी।
अनेक स्वयंसेवकों ने बलिदान दिया
जिन दिनों कांग्रेस के नेता इस जुगत में लगे हुए थे कि उन्हें भी सत्ता का कोई न कोई टुकड़ा मिल जाए, उन्हीं दिनों में संघ के स्वयंसेवक नगरों, ग्रामों व गली मोहल्लों में हिन्दुओं में आत्मविश्वास जगाते हुए आक्रमणकारियों से लोहा ले रहे थे। इस ग्रंथ में दिए गए साक्षात्कारों में से लगभग ९०% साक्षात्कार इस तथ्य की पुष्टि करते हैं। ऐसी मात्र दो घटनाएँ यहाँ दी जा रही है।
(१) बलिदान का यह मार्मिक दृष्टांत है बीकानेर के श्री किशोर दास अरोड़ा ‘गांधी’ का। वे बताते हैं कि उनके पिताजी की खैरपुर खातीवाला, बहावलपुर रियासत में मिर्च का व्यापार था। खैरपुर मिर्च की प्रसिद्ध मंड़ी थी। यह बात है सन् १९४५ की। उस समय किशोरदास जी शिशु स्वयंसेवक थे। श्री प्रेमकुमार गोगिया व युधिष्ठिरजी खैरपुर शाखा के प्रमुख कार्यकर्ता थे। दोनों ही हिम्मत वाले जवान थे। जब उस इलाके का वातावरण बिगड़ने लगा तो इन्होंने पहले से ही तैयारी शुरू कर दी। बोतल बम, बल्ब बम भी बनाना सीख लिया और आवश्यक सामग्री इकठ्ठी करके रख दी।
अगस्त १९४७ में मुसलमानों ने सारे हिन्दू क्षेत्र को घेर लिया। हिन्दू मोहल्लों से बाहर रहने वाले हिन्दुओं के मकानों को लूटकर उनमें आग लगा दी। उनमें रहने वाले हिन्दू मारे गए, कुछ अपनी जान बचाकर हिन्दू मोहल्लों में आ गए। आक्रमणकारी कुछ मुसलमानों के पास बन्दुकें थीं। वे गोलियां चलाने लगे। गोलियों की बौछार के सामने भी प्रेमकुमार जी व युधिष्ठिर जी ने हिम्मत नहीं हारी, उनका मुकाबला करते रहे। यह मुकाबला तीन दिन तक चला। तीसरे दिन मुकाबला करते समय पहले युधिष्ठिर जी को और बाद में प्रेमकुमार जी को गोली लगी, दोनों शहीद हो गए। दोनों ने मरते दम तक हिन्दुओं को बचाए रखा। बाद में भी संघर्ष तो चलता रहा, परन्तु रियासत के एक अंग्रेज सैनिक अधिकारी ने शेष हिन्दूओं को बचा लिया।
जो हिन्दू खैरपुर में बच गए, वे सब बीकानेर आ गए। उन सबका विश्वास है कि हम उन दोनों बलिदानी स्वयंसेवकों के कारण बचे। अतः बीकानेर में आज भी खैरपुर भवन बना हुआ है, उसमें प्रेमकुमार जी व युधिष्ठिर जी के चित्र लगे हैं। हर वर्ष अगस्त के अंतिम रविवार को वे सब दोनों बलिदानी स्वयंसेवकों की याद में शहीद दिवस मनाते हैं।
(२) दूसरा दृष्टांत बताने वाले स्वयंसेवक हैं श्री कृष्ण कुमार महाजन। उनका यह दृष्टांत है, गुरदासपुर जिले की शकरगढ़ तहसील के सुखोचक गांव का। शकरगढ़ तहसील बॅंटवारे में पाकिस्तान चली गई थी। वहाँ के मुसलमानों ने हिन्दुओं पर हमले शुरू कर दिए तो हिन्दू पलायन कर लाहोर रिलीफ कैम्प में आ गए। दालमंडी में अधिकांश मुसलमान होने के कारण वहाँ के हिन्दू भी दयाल सिंह कॉलेज में इकट्ठे हो गए। उधर मुसलमानों ने दयाल सिंह कॉलेज को चारों ओर से घेर लिया। यह सूचना रिलीफ कैम्प में हम स्वयंसेवकों को मिली।
सूचना मिलते ही हम १३ स्वयंसेवक दयाल सिंह कॉलेज से हिन्दुओं को रिलीफ कालेज में लाने के लिए ट्रक से चले। हम शहर के अन्दर से न जाकर बाहर-बाहर रावी रोड़ से जा रहे थे। रावी रोड़ पर हमारे सामने बलूच मिलिट्री आ गई, उसमें सब मुसलमान सिपाही थे। मिलिटर ने ट्रक रोक लिया और हमसे पूछा- “कौन हो, कहाँ जा रहे हो?” हमने बताया कि हम पंजाब रिलीफ कमेटी के कार्यकर्ता हैं और रिलीफ के लिए जा रहे हैं। बलूच मिलिट्री ने हम सबको ट्रक से उतार कर एक लाइन में खड़ा कर दिया और एक-एक को गोली मारनी शुरू कर दी। हम लोग निहत्थे थे। लाइन में पांचवे या छठे नंबर पर सरदार प्रद्युम्नसिंह थे। उनके बाद मैं था और मेरे बाद सरदार जगत सिंह थे। प्रद्युम्न सिंह काफी तगड़े और हट्टे-कट्टे थे। उन्हें गोली लगते ही उनका हाथ जोर से मेरी छाती पर लगा और उनके साथ ही मैं भी जमीन पर धड़ाम से गिर पड़ा। जगत सिंह छोटे कद के थे मेरे साथ वे भी गिर पड़े। मैं और जगत सिंह प्रद्युम्न सिंह के नीचे दब गए और बेहोश हो गए।
अपनी तरफ से बलूच मिलिट्री हम १३ स्वयंसेवकों को मरा समझकर चली गई थी। लेकिन मैं और जगतसिंह बच गए थे। कुछ देर बाद हम दोनों को होश आया, तब हम छुपते-छुपाते कैम्प में पहुंचे। मुझे आज भी यही लगता है कि इस बर्बर घटना को बताने के लिए ही भगवान ने हम दोनों को बचाया था। ऐसी अनेक घटनाएँ हैं, जिनमें संघ के स्वयंसेवकों ने हिन्दू समाज की रक्षार्थ अपना बलिदान दिया।
क्या आप भी इन घटनाओं को जानना चाहेंगे?
पुस्तक परिचय में मैंने तो नमूना रूप दो घटनाओं की ही जानकारी दी है। जबकि सम्पूर्ण पुस्तक ऐसी ही हृदय विदारक घटनाओं से भरी पड़ी है। ऐसी ही कुछ घटनाओं का उल्लेख मात्र कर रहा हूँ, जिनको आप भी जानना चाहेंगे, यथा-
- किस पिता ने अपने पुत्र से कहा- मुझे तू ही गोली मार दे?
- एक बाल स्वयंसेवक ने क्यों कहा- “मैं बम बनाऊॅंगा?”
- किस रेलवे स्टेशन पर मौत का तांडव मचा?
- राष्ट्र सेविका समिति की बहनों का क्या योगदान था?
- किस स्वयंसेवक के मामा जी ने नेहरू जी को बचाया?
- हिन्दू लीग की स्थापना किसने की?
- कुर्बानी की गाय कौन छीन लाए?
- किस बताई महिला ने झाड़ू से मुसलमान को मार डाला?
- आर्य समाज के गुरुकुल झज्जर की क्या भूमिका रही?
- झूठी गवाही देने वाला वह कौन था जो राष्ट्रपति बना?
- मेवों में बच्चूसिंह का खोंफ क्यों था?
- अमृतसर दरबार साहब पर हमला किनके सहयोग से नाकाम रहा?
- काहूटा का वह दर्दनाक दृश्य क्या था? आदि आदि
उपर्युक्त सभी प्रश्नों के उत्तर आपको यह पुस्तक, “विभाजनकालीन भारत के साक्षी” देती है। आज की नई पीढ़ी विभाजन की वेदना से बिल्कुल अनजान है। इस वेदना को जाने बिना राष्ट्र की एकता व अखण्डता हेतु वह क्यों अपना जीवन खपाएगी? राष्ट्र के लिए जीवन खपाने वाली पीढ़ी का निर्माण होने से ही भारत पुनः विश्व कल्याण की भूमिका का निर्वहन कर पाएगा। इसीलिए आवश्यक है कि नई पीढ़ी विभाजन की वेदना को जाने, जिसे लेखक ने पुस्तक के समापन में इन शब्दों व्यक्त की है-
सोचता हूँ,
हम एक रात के लिए घर से निकले थे।
आज तीन पीढियां बीत गईं,
लेकिन वह एक रात समाप्त नहीं हुई।
वह रात
कब समाप्त होगी?
और हम कब घर वापिस पहुंचेंगे?
इसका उत्तर क्या
कोई देगा?
- कृष्णानन्द सागर
(लेखक शिक्षाविद् है, भारतीय शिक्षा ग्रन्थमाला के सह संपादक है और विद्या भारती संस्कृति शिक्षा संस्थान कुरुक्षेत्र के सचिव है।)
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