– दिलीप वसंत बेतकेकर
हम खाते-पीते हैं, किस लिए? मौजमस्ती करते हैं, किस लिए? नहाना, सोना, किस लिए? खेल आदि किस कारण? क्यों? क्यों?………
ऐसे प्रश्न कभी सामने आते हैं क्या हमारे? नहीं ना? और यदि आते भी होंगे तो हम क्या कह सकते हैं! यही न, कि यह तो आवश्यक हैं, सुगठित जीवन यापन के लिए। इनमे से कुछ तो शरीर के लिए, और कुछ थोड़ा मन के लिए। किन्तु मानव का अर्थ केवल शरीर और मन नहीं हैं।
शरीर के लिए तो बहुत कुछ किया जाता है- समय, शक्ति, पैसा आदि खर्च होता है शरीर के लिए ही अधिकतर! अर्थात शरीर एक साधन होने के कारण उस पर अधिक ध्यान देने की आवश्यकता तो है हि, परंतु शरीर के अतिरिक्त भी है मन और बुद्धि। अभ्यास का अर्थ है- बुद्धि का व्यायाम!
परमेश्वर द्वारा हमें बुद्धि का अमूल्य तोहफा दिया गया है- उसे हम सहर्ष स्वीकार कर उसका विकास करें , उपयोग करें और परमेश्वर द्वारा दिया गया यह धन उसे ही अर्पण करें। What we are is god’s gift, what we become is our gift to God अभ्यास का यह एक व्यापक अर्थ है।
परमेश्वर जो हमें देता है, उसे हम क्या देते हैं? केवल परीक्षा उत्तीर्ण करना ये तो अभ्यास का अति सामान्य अर्थ अथवा उद्देश्य हो सकता है, परंतु यह तो प्रथम पायदान है।
अभ्यास का इससे अधिक व्यापक, गहन, उदात्त उद्देश्य है, जो इस बात को समझ लेगा उसके लिए अभ्यास एक प्रति दिन उत्सव जैसा होगा। वाचन और अभ्यास ना करना एक मानसिक आत्महत्या होगी।
डॉ. बिल डूरांट एक जागतिक प्रख्यात, अमेरिकन इतिहासकार हैं। उनके अनुसार- Sixty years ago I knew everything. Now I knew nothing. Education is progressive discovery of our ignorance. कितनी अर्थपूर्ण बात है यह!
मुझे सबकुछ समझ में आया ऐसा जो समझता है उसके समक्ष प्रश्न यह उठता है कि अब और अभ्यास किसलिए? इसके विपरित जिसे ऐसा अनुभव होता हो कि मुझे अभी सब समझना ही नहीं, उसके समक्ष प्रश्न रहता है- अभ्यास नहीं करेंगे तो क्या करेंगे? अपनी बुद्धिमत्ता स्नायु समान है, उपयोग ना करने पर ढीली पड़ जाती है। दो ही विकल्प है- उपयोग करो अथवा खो। use it or lose it. बुद्धिमत्ता का वैभव हमें खो देने के लिए नहीं बल्कि सदुपयोग करने के लिए ही मिला है न? तो फिर अभ्यास क्यों करें ऐसा प्रश्न मन को छूना भी नहीं चाहिए। ऐसे प्रश्न को मन और घर से भी पूरी तरह से बाहर कर देना चाहिए।
कार्यशाला में विभिन्न प्रकार के खेल, कृति करने को कहा जाता है। एक चौरस में अनेक छोटे छोटे चौरस और उनमें और छोटे छोटे चौरस होते हैं। उन्हें गिनने को कहा जाता है। जितने बार गिनती करते हैं हर बार संख्या बढ़ती हुई प्रतीत होती है। वास्तव में तो चौरस की संख्या तो उतनी ही रहेगी, न घटेगी और ना ही बढ़ेगी। और चौरस भी अपनी जगह यथावत रहता है।
ध्येय वस्तु के स्थान पर मन का स्थिरीकरण करना ही अभ्यास है। प्रथम दृष्टिक्षेप में केवल ऊपरी तौर पर देखना (अंग्रेजी में कर्सरी लुक) अर्थात गहन ज्ञान ना होना। किसी विषय का मन में दृढ होने के लिए उसे बार बार प्रतिपादन करना ही अभ्यास है।
शिक्षक, आचार्य, गुरुजन जो बताते हैं उसे ध्यान से सुनना (श्रवण करना), श्रवण किए हुए का चिंतन-मनन करना, और तन्मयता से उसकी अनुभूति करना इस पूरी प्रक्रिया को अभ्यास/अध्ययन कहते हैं।
सुनने का, बोलने का, कुछ क्रिया करने का, देखने-परखने का भी अभ्यास करना पड़ता है।
एक प्रसंग- मैं बैंक में कुछ कार्यवश काउंटर के निकट खड़ा था, काउंटर के उस पार कुछ युवा कर्मचारी काम करते हुए आपस में बात भी कर रहे थे। तभी एक युवती ने युवा कर्मचारी से किसी काम के बारे में पूछा कि उक्त काम क्यों नहीं हुआ?
इस पर वह युवा कर्मचारी बोला-‘मुझे यह कार्य नहीं’ आता, तब युवती ने कहा- ‘तो फिर सीखते क्यों नहीं?’ इस पर उस तरुण कर्मचारी का उत्तर सुनकर मैं दंग रह गया। उस तरुण कर्मचारी का उत्तर था- ‘ऐसे अगर हर काम सीखने लगा तो मुझे और अधिक कार्यभार सौंप दिया जाएगा न!’ उस संवाद से मुझे हिब्रू भाषा का एक सुंदर विचार नजर के समक्ष आया- I ask for no lighter burden but for broader shoulder.
मुझे काम ना दें ऐसा मैं नहीं चाहता, मैं चाहता हूँ मजबूत कंधे!
अभ्यास को टालमटोल करें अथवा अभ्यास को एक अच्छा अवसर समझे; अभ्यास को झंझट समझे अथवा वरदान यह अपनी अपनी सोच पर निर्भर करता है। अतः यह स्वयं तय करें!
(लेखक शिक्षाविद, स्वतंत्र लेखक, चिन्तक व विचारक है।)
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