– डॉ० हिम्मत सिंह सिन्हा
भरत के व्यक्तित्व, भ्रातृ प्रेम का सही-सही दर्शन हमें राम वन गमन के पश्चात् ही होता है। उसके पहले उनका चरित्र मूल समर्पण का अदभुत दृष्टान्त है जिसे देखकर कुछ भी निर्णय कर पाना साधारण दर्शक के लिए कठिन ही है। देवता गण तो समझते थे की राम रावण वध के लिए वन जा रहे हैं। परन्तु यह सत्य नहीं है। वह तो भ्रकुटि बिलास से ही रावण का संहार कर सकते थे परन्तु वास्तविक बात कुछ अन्य ही थी। प्रभु चाहते थे प्रेम रूप अमृत को व्यक्त करना और उसके लिए भरत से बढ़ कर पात्र और कौन हो सकता था। इसी तथ्य को दृष्टिगत रखकर गोस्वामी जी ने राम वन गमन के मुख्य कारण के रूप में भरत प्रेम प्राकट्य को स्वीकार किया है। हमारे भक्त शिरोमणि कहते हैं –
प्रेम अमीअ मंदरु बिरह भरत पयोधि गंभीर
मथ प्रगटउ सुर सन्त हित कृपा सिन्धु रघुवीर ।
श्री भरत जी का प्रेम आम लोगों से अव्यक्त था। उस प्रेम सुधा को वे छिपाए रहते थे। उसे प्रगट करना प्रभु को अभीष्ट था। भरत प्रेम सुधा के गंभीर पयोधि हैं, उनके व्यक्तित्व का मंथन करने के लिए इस “विरह मन्दिर” की सृष्टि की गयीं यह निश्चित है कि यदि वह वन गमन की घटना न होती तो भरत जी के अगाध प्रेम को संसार नहीं जान पाता। राम वन को जाते हैं तो बहुत सी दुर्घटनाएँ अयोध्या में घटित हो जाती हैं। राज्याभिषेक के अवसर पर कैकेयी की कुबुद्धि का प्राकट्य होता है।
विनाशकारी दो वरदानों की याचना, भगवान राम का वन गमन और अवध नरेश का प्राणोत्सर्ग। तभी तुरन्त गुरु वशिष्ठ जी भरत को ननिहाल में बुलाने के लिये दूत भेज देते हैं। अयोध्या का सारा वातावरण उन्हें अमंगल सूचक लगा। वे कैकेयी अंबा के भवन में गए।
जब उन्होंने वहां पहुंचकर देखा कि न तो वहां पिताजी है, न माताएँ, न श्री राघवेन्द्र और न लक्ष्मण ही, तो उनके मुख से बात निकली –
कंह कहूँ तात कहाँ सब माता ।
कहँ सिय राम लखन प्रिय भ्राता । (2 /158 /8)
कैकेयी ने राम के वन-गमन तथा दशरथ के प्राण त्याग तक की सारी घटनाएं सुनायी। सुनते ही भरत जी कुछ क्षण के लिए स्तब्ध रह गये। वाणी मूक हो गयी और जब बोलना शुरू किया, तो माता के प्रति ऐसे कठोर निर्मम शब्द निकले कि उन्हें सुनकर आश्चर्य होता है कि क्या भरत जी जैसे व्यक्ति भी ऐसे कठोर निर्मम शब्दों का प्रयोग कर सकते हैं? उनके शब्द थे –
वर मागत मन भइ नहिं पीरा । गरि न जीह मुहँ परे न कीरा ।।
भुंप प्रतीति तोरी किमि किन्हीं । मरन काल विधि मति हरि लीन्ही ।।
जो हसि सो हसि मुंह मसि लाई । आँखि ओट उठि बैठहि जाई ।।
जो हो गया सो हो गया, अब मेरी आँखों के सामने कभी मत आना। यह श्री भरत नहीं, उनके ह्रदय की व्याकुलता बोल रही है। इतना ही नहीं वह पिताजी को भी दोष देने से नहीं चुकते, यद्यपि वह पिता के बड़े भक्त थे परन्तु उनके लिए भी कठोर शब्द कहने से नहीं चुके –
मरन काल बिधि मति हर लीन्हीं । (2 /161 /3)
भरत जी ने ज्यों ही यह प्रस्ताव रखा कि हम लोग चित्रकूट चलकर प्रभु को लौटा लें आएँ, तो लोग बोल उठे –
अवसि चलिय बन रामु जहँ भरत मंत्रु भल कीन्ह ।
सोक सिंधु बुड़त सबहि तुम्ह, अवलंबनु दीन्ह ।। (2 /184)
“हे भरत जी! वन को अवश्य चलिए, जहाँ श्रीराम जी हैं। आपने बड़ी अच्छी सलाह दी, जो शोक सागर में डूबते हुए लोगों को उबार दिया।”
अयोध्या का प्रत्येक व्यक्ति भरत जी के प्रेम की सराहना करने लगा ।
भरत जा रहे हैं अयोध्या वासियों, माताओं, गुरु वशिष्ठ जी के साथ राम को वापस लाने। मेरे राम बिना पद त्राण के वन में विचरण कर रहे हैं तो मैं भी पैदल ही जाऊंगा। उनके कोमल चरणों में छाले पड़ गए हैं। ऐसा लगता था कि कमल की कली पर ओस के कण चमक रहे हों।
झलका झलकत पायन्ह कैसे
पंकज कोस ओस कन जैसे (2 / 204 / 1)
फिर भरद्वाज मुनि के वचनानुसार भरत चित्रकूट गए और राम निवासित आश्रम का दर्शन होते ही वह दौड़ कर राम के चरणों में गिर पड़े। अत: जब चित्रकूट में भरत जी आये, तो प्रभु ने कहा – “भरत! मैं एक निर्णय पर पहुँचा हूँ कि तीनों कालों और लोकों में तुम्हारे जैसा पुण्यवान न दुसरा कोई पैदा हुआ, न है और न होगा।” भरत जी ने यह सुनकर सिर झुका लिया। राम ने पुन: कहा –
तीनि काल तिभुअन मत मोरें । पुन्यसिलोक तात तर तोरें ।। (2 /282 / 6)
मेरे मत में तीनों कालों तथा लोकों के सब पुण्यात्मा पुरुष तुमसे नीचे हैं। राम के वेश धारण को देख भरत अत्यन्त दु:खित हो उठे। मुहँ से कोई बात नकल न पाई। वे राम की ओर देख न सके। जटाचीर धारण किये राम को देखकर “मेरे कारण ही राम इस प्रकार दु:खमय जीवन बिता रहे हैं” भावना से वे शोक विचलित हुए।
इसी प्रकार भरत के वेष को देखने पर राम भी दुःख विचलित हुए ।
जटिल चीर वसनं प्रांजलिं पतितं भुवि ।
ददर्श समो दृर्दर्श युगान्ते भास्करं यथा ।।
राम ने यथाशीघ्र आकर भरत का आलिंगन किया और गोद में बैठा लिया। भरत ने पिता जी की मृत्यु का समाचार सुनाया तो राम द्रवित हो उठे। फिर सीता-राम ने स्नानादि कर्मकाण्ड पुरे किये। भरत ने राम के अयोध्या लौटकर राज्याभिषेक प्राप्त कर राज्य का शासन भार वहन करने की प्रार्थना की –
एभिश्च सचिवैस्सार्थ शिरसा चाचितोमया ।
भ्रातुशिष्यस्य दासस्य प्रसादं कर्तुमर्हसि ।।
यह भरत का सिद्धान्त था। “भाई के नाते, शिष्य के रूप में, दास के रूप में मन्त्रिमण्डली सहित याचना कर रहा हूँ।” कहते हुए भरत ने राम के चरणों को पकड़ लिया। आखिर राम के बदले वे वनवास करने के लिए तैयार हुए।
भरत का निवेदन राम पर कोई प्रभाव डाल न सका। भरत के लिए कोई दिशा-निर्देश न रहा। भरत ने अपने द्वारा लाई हुई पादुकाएँ राम के चरणों में रख दीं और राम ने उनका स्पर्श कर वे भरत को लौटा दीं। भरत ने कहा, “भैया आपके लौटने तक इन पादुकाओं का राज्याभिषेक मान कर इन पादुकाओं की अर्चना करते हुए आपकी राह देखता रहूँगा। चौदह वर्ष होने पर आपका आना एक दिन भी विलम्ब से होगा तो मैं अग्नि में प्रवेश करूँगा।”
चतुर्दशे हि सम्पूर्ण वर्षेsहनि रघूत्तम ।
न द्रशयामि यदि त्वा तु प्रवेक्ष्यामि हुताशनम् ।।
“चौदह साल पूरा होने के साथ ही मैं आकर तुम को दिखाई दूँगा।” राम ने वचन दिया। चौदह साल बीतने के साथ ही राम का अवश्य अयोध्या लौट आना निश्चित हुआ – यह भरत के चित्रकूट आने का प्रयोजन था।
भरत ने शपथ खाई, “आपके लौटने तक मैं जटाचीर धारण कर कन्दमूल, फल आदि खाते हुए अध:शयन के साथ ब्रह्मचर्य जीवन बिताऊंगा।” भरत ने राम की पादुकाएँ सिर पर रख ली, तो शत्रुध्न ने पादुकाओं पर छत्र धारण किया। उसी स्थिति में रथ पर बैठे भरत अयोध्या पहुंचे। अयोध्या में वास करना प्राय: राम-पादुकाओं की इच्छा न रही होगी। भरत नदीग्राम पहुंचे। वहाँ राम पादुकाओं का राजतिलक मनाकर भरत जीवन बिताने लगे। नगर में विविध राज-भोगों को अनुभव करने के स्थान पर वल्कल धारण करके तापसिक जीवन बिताने वाले भरत की महत्ता अनन्त है।
श्री भरत को ऐसा लगा कि पादुका के रूप में श्री सीता जी और भगवान राम ही उनके साथ लौट रहे हैं। मानो प्रभु ने कहा – भरत, एक रूप में मैं वन में रहूँगा। दूसरे पादुका के रूप में मैं तुम्हारे साथ रहूँगा। श्री भरत ने पादुका को भगवान का एक चिन्ह मात्र नहीं माना, उनके लिए तो वह वह श्री सीता जी और भगवान् राम का प्रत्यक्ष स्वरूप था। उसके प्रति उनकी सेवा-भावना भी कैसी थी –
नित पूजत प्रभु पांवरी प्रीति ना ह्रदयं समाति ।
मागि मागि आयसु करत राज काज भू भांति ।। (2 /325)
परीक्षा की घडियां समाप्त हुई। “चौदह वर्ष पूरा होने पर अग्नि में प्रवेश करूँगा।” भरत के वचन स्मरण करते हुए उन्हें भूले बिना सारे शरीर में रोमांच हो आया, आँखों से आँसू बरस पड़े, अपने लाड़ले भाई भरत का स्मरण करके भरत को अग्नि-प्रवेश से रोकने के लिए राम ने हनुमान को नन्दिग्राम भेजा। हनुमान के पहुंचने तक भरत अग्नि प्रवेश के लिए सन्नद्ध हो रहे थे।
ददर्श भरतं दीनं कुशमाश्रमवासिनम् ।
जटिलं मलदिग्धांज भ्रातृब्यसन कर्मितम् । ।
आज अवधि का अन्तिम दिवस है। राम के ह्रदय में बड़ी उत्कण्ठा है कि कहीं मेरा प्राण प्रिय भाई यह सोचकर कि अवधि बीतने पर भी भैया राम नहीं आए, प्राण उत्सर्ग न कर दे, इसलिए हनुमान जी से निवेदन किया कि “समाचार ले तुम चलि आयउ।”
हनुमान जी नन्दीग्राम पहुंचे तो देखा कि –
बैठे देखा कुसासन जटा मुकुट कृसगात ।
राम राम रघुपति जपत स्रवत नयन जलजात । (7.1)
शरीर सूख गया है। आँखों से निरन्तर जल धारा बह रही है। राम राम रट रहे हैं। मेरे राम अवधि पूरी होने पर आ रहे होंगे। श्री हनुमान जी ने सोचा कि यदि मैं केवल इतना ही समाचार दूँ – राम आ रहे हैं तो कहीं भरत भैया को भ्रम न हो जाए कि लक्ष्मण भैया मुर्छित पड़े थे जब मैने इनको समाचार दिया था वह कहीं समरांगण में शहीद तो नहीं हो गए। माता जानकी रावण के बन्दी गृह में थी। कहीं उन्होंने अपने प्राण तो विसर्जित नहीं कर दिए। इसलिए इस प्रकार समाचार दूँ कि भरत के ह्रदय को आघात न पहुँचे। हनुमान जी तो ज्ञानियों में अग्रगण्य हैं, उन्होंने बड़ी सावधानी से भाव भरे शब्दों में समाचार सुनाया –
जासु बिरहँ सोचहु दिन राती । रटहु निरंतर गुन गन पाँती ।।
रिपु रन जीति सुजस सुर गावत । सीता अनुज सहित प्रभु आवत ।।
यह अमृत से भी मधुर वाणी जैसे ही भरत जी के कानों में पड़ी, वे आनन्द मग्न हो गए। अहा! आज मेरी साधना, मेरी तपस्या सफल हो गयी। भरत के सभी दु:खों का अन्त हो गया। भरत तुरन्त भागते हुए जाते हैं, आज चौदह वर्ष बाद अयोध्या में प्रवेश कर रहे हैं। सबसे पहले उन्होंने ही गुरु वशिष्ठ को यह मंगलमय समाचार सुनाया और फिर महलों में माताओं को शुभ समाचार पहुँचाया –
हरषि भरत कोसलपुर आए । समाचार सब गुरहि सुनाए ।।
पुनि मंदिर महं बात जनाई । आवत नगर कुसल रघुराई ।।
प्रत्येक अयोध्यावासी के अंग में उल्लास, उत्साह की तरंग और उमंग फूट पड़ी। सरयु भी आज हर्ष से समुज्ज्वला हो गई है। हर और हर्ष छा गया हैं तभी पुष्पक यान भूमि पर उतरा और भगवान राम ने पृथ्वी पर चरण रखे तो अवध की पावन भूमि आनन्दमग्न हो गई। धर्म धुरीन राम पहले गुरु चरणों की ओर गमन करते हैं और उनके चरणों में लिपट जाते हैं। फिर वहीं पधारे हुए विप्रवृन्द की सादर अभ्यर्थना करते हुए भरत भाई के पास पहुँचते हैं तो भरत आनन्द अतिरेक में चरणों से लिपट जातें है। राघवेन्द्र उनको उठाकर ह्रदय से लगाने का प्रयास करते हैं, भैया तुम्हारा स्थान तो यहाँ है मेरे ह्रदय में परन्तु भरत चरणों को छोड़ते नहीं। कहते हैं भैया मेरा स्थान तो यहीं है यहीं रहने दो। मैं इनको नहीं छोडूंगा। न जाने मुझे पुन: विरह अग्नि में छोड़ कर फिर कहीं को प्रस्थान न कर दें।
गहे भरत पुनि प्रभु पद पंकज । नमत जिन्हहि सिर मुनि संकर अज ।।
परे भूमि नहिं उठत उठाए । बर करि कृपासिन्धु उर लाए ।।
राघव ने अपनी दोनों विशाल भुजाएँ पसार कर भरत का आलिंगन किया। छाती से लगा लिया, मानो उसे आश्वस्त कर रहें हैं कि तेरे जैसे निष्ठावान भाई को छोड़कर अब मैं जीवनभर कहीं नहीं जाऊंगा, ऐसी कल्पना भी मेरे मन में नहीं उठेगी। दोनों के नेत्रों से अनवरत अश्रुधारा बह रही है, मानो अमृत बरस रहा है, जिससे सारी अयोध्या और सारा नभमंडल भीग रहा है, आनन्दमग्न हो रहा हैं भूतल का गौरव है भरत जैसा भाई –
नियतं भावितात्मानं बह्मर्षिसम तेजसम् ।
पादुके ते पुरस्कृत्य प्रशासन्तं वसुंधराम् ।।
राम के प्रति भक्ति के लिए भरत से इससे बढ़कर और क्या साक्ष्य चाहिए। भरत के लिए राम एंव राम की पादुकाएँ अपने प्राणों से बढ़कर प्रीति थीं। राम की पादुकाओं पर कोशल साम्राज्य का भार छोड़कर राम का स्मरण करते हुए अग्नि प्रवेश के लिए उद्युक्त होने वाले भरत की भ्रातृभक्ति अनुपम है, अगाध है और अवर्णनीय है।
निष्कर्षत: कवि शिरामणि गोस्वामी तुलसीदास जी कहते हैं –
भरत चरित करि नेमु तुलसी जो सादर सनहिं,
सीय राम पद प्रेमु अवसि होई भव रसविरति ।
(लेखक कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय से प्रोफेसर सेवानिवृत है और विद्या भारती संस्कृति शिक्षा संस्थान कुरुक्षेत्र में शोध निदेशक है।)
और पढ़ें : रामचरित मानस में पर्यावरण चेतना – रामनवमी विशेष