विवेकानन्द शिला स्मारक – एक अद्भुत राष्ट्रीय स्मारक

अलकागौरी, जीवनव्रती, विवेकानन्द केन्द्र कन्याकुमारी

आज से 50 वर्ष पूर्व इसी महीने में एक अद्भुत स्मारक का राष्ट्रार्पण हो रहा था। एक ऐसा स्मारक जो आधुनिक भारत के इतिहास का ऐसा पहला भव्य निर्माण था जो एक राष्ट्रभक्त संन्यासी के लिए बनाया गया था। यह एक ऐसा स्मारक था जिसके निर्माण के लिए पूरा भारत एक हुआ था। एक ऐसा स्मारक जिसकी निर्माण की कथा असंभव को संभव करने का पाठ पढ़ाती है। जी हाँ – बात हो रही है भारत के अंतिम छोर – कन्याकुमारी में तीनों सागरों के संगम स्थान पर स्थित श्रीपाद शिला पर बने विवेकानन्द शिला स्मारक की !

भारत के इतिहास में और विशेष रूप से स्वामी विवेकानन्द के जीवन में उस शिला की बहुत ही महत्त्वपूर्ण भूमिका रही है। गुरु श्री रामकृष्ण परमहंस ने अपने शिष्य स्वामी विवेकानन्द को बताया था कि तुम्हें माँ की सेवा करनी है । अब जिसकी सेवा करनी है, उस भारत माँ को समझना पहले आवश्यक था; इसलिए स्वामी विवेकानन्द भारत परिक्रमा करते हुए अंत में कन्याकुमारी पहुंचे। भारतभूमि के अंतिम छोर पर खड़े होकर सामने समुद्र के मध्य श्रीपाद शिला को देख कर सोचा कि ‘जिस शिला पर देवी कन्याकुमारी ने शिव की प्राप्ति के लिए तपस्या की थी’ उसी शिला पर ध्यान करने से मुझे भी मेरे जीवन लक्ष्य की – शिवत्व की प्राप्ति हो सकती है। शिला पर जाने का मन परन्तु संन्यासी के पास पैसे न होने के कारण कोई नाव से ले जाने तैयार नहीं था । पर उनके मन में उठा तूफान रुकने वाला नहीं था । अपनी धोती बांधकर स्वामी विवेकानन्द सागर में कूद पड़ें और तैरकर शिला पर पहुंचे । तीन दिन और तीन रात शिला पर ध्यान करते हुए गुजारी। अपने उस ध्यान का अनुभव वह अपने गुरुभाई को लिखते है –

“भारत के अंतिम छोर पर स्थित शिला पर बैठकर – मेरे मन में एक योजना का उदय हुआ – मान लें कि कुछ निस्वार्थ संन्यासी, जो दूसरों के लिए कुछ अच्छा करने की इच्छा रखते हैं, गाँव-गाँव जायें, शिक्षा का प्रसार करें और सभी की, अंतिम व्यक्ति की भी दशा को सुधारने के लिए विविध उपाय खोजें – तो क्या अच्छा समय नहीं लाया जा सकेगा ? एक राष्ट्र के रूप में हम अपना स्वत्व खो चुके हैं और यही भारत में व्याप्त सारी बुराइयों की जड़ है। हमें भारत को उसका खोया हुआ स्वत्व लौटाना होगा और जनसामान्य को ऊपर उठाना होगा।”

(स्वामी रामकृष्णानन्द को 19 मार्च 1894 में लिखित पत्र से)

इस प्रकार अपने जीवन का लक्ष्य स्वामी विवेकानन्द को इसी शिला पर प्राप्त हुआ। अपनी पुनीत साधना की दिशा में भारत का खोया हुआ गौरव उसे पुनः प्राप्त कराने हेतु वे अमरीका गए। शिकागो की सर्व धर्म परिषद में 11 सितम्बर 1893 को “Sisters & Brothers of America”  के संबोधन से पूरे विश्व को जीत लिया। हिन्दू धर्म पर उनके व्याख्यान के पश्चात तो वहाँ चर्चा शुरू हुई कि “हमें (अमरीकावासियों को) भारत में ईसाई धर्मगुरु भेजने की कोई आवश्यकता नहीं है; हमें भारत से धर्म सीखना होगा”। भारत के इतिहास ने एक नयी करवट ले ली थी जिसका साधन बना था स्वामी विवेकानन्द द्वारा शिला पर किया गया ध्यान। इसलिए इस ऐतिहासिक शिला पर स्वामी जी के सम्मान में भव्य स्मारक निर्माण की योजना बनी।

परन्तु योजना बनाना आसान है पर उसे प्रत्यक्ष में उतारना कठिन। कन्याकुमारी के ईसाई समुदाय के कुछ लोग विरोध में हिंसक आन्दोलन करने लगे, और वहां धारा 144 लगा दी गयी । उस समय के मुख्यमंत्री श्री भक्तवत्सलम शिला पर कुछ भी बनाने के विरोध में थे। भारत के तत्कालीन पर्यावरण मंत्री भी श्री हुमायूँ कबीर भी विरोध में थे। विरोधियों को नहीं, परन्तु उनके विरोध को खत्म करने वाले कर्मकुशल संगठक माननीय एकनाथजी रानाडे के मजबूत कधों पर इस कार्य का दायित्व आया । परिणामत: 15×15 चौ. फीट के छोटे से  स्मारक की जगह केवल मुख्य सभामंड़प ही 130 x 56 चौ. फीट बन गया और एक भव्य दिव्य स्मारक अस्तित्व में आया ।

माननीय एकनाथ जी ने दिल्ली जाकर उस समय दिसंबर 1963 में दिल्ली में उपथित सभी 323 सांसदों के -जो अलग अलग पार्टी के थे – हस्ताक्षर इस के शिला स्मारक के पक्ष में एकत्रित किये । भारत के संसदीय इतिहास में ये ऐसा एकमेव उदाहरण होगा कि जब कोई युद्ध या किसी के मृत्यु पर शोक सन्देश के अलावा किसी प्रस्ताव पर सभी सांसदों का इस प्रकार का एकमत हुआ होगा ।

विशेष बात यह है कि इस स्मारक के शिल्पी भी किसी महाविद्यालय से पढ़े हुए आर्किटेक्ट या इंजिनियर नहीं थे। श्री एस के आचारी शिल्पवेद (4 उपवेदों में से एक) के गाढ़े अभ्यासक थे । तमिल और संस्कृत ये दो ही भाषाएँ उन्हें आती थी । माननीय एकनाथ जी ने उन्हें भारत के विभिन्न शिल्पों का अध्ययन करने भेजा और उसके पश्चात विविध शिल्प पद्धतियों का सम्मिलित उपयोग इस विवेकानन्द शिला स्मारक में उन्होंने किया है ।

इतना बड़ा स्मारक बनाने के लिए धन की आवश्यकता भी बड़ी ही होती है। माननीय एकनाथ जी का दृढ़ संकल्प, अद्भुत कार्यकुशलता और संगठन कौशल्य जानकर कुछ बड़े उद्योगपति पूरा खर्च वहन करने तैयार थे पर एकनाथ जी केवल उन पर निर्भर रहना नहीं चाहते थे। राष्ट्र-धर्म के इस पुनीत कार्य में उन्हें समूचे राष्ट्र का योगदान अपेक्षित था। इसलिए ऐसी योजना बनायी गयी कि जिसमें भारत के एक प्रतिशत वयस्क से अपेक्षा की गयी कि प्रत्येक कम से कम 1 रुपये का योगदान दे और इस प्रकार से 30,000 से अधिक भारतीयों से 85,000/- रुपये एकत्रित किये। सारी राज्य सरकारों ने भी एक-एक लाख रुपये का योगदान दिया। सबसे पहला योगदान स्वामी चिन्मयानन्द जी ने 10,000 रुपये का दिया था। उनके आशीर्वाद से शुरू होकर इस प्रकार से कुल 1,35,000 रुपये एकत्रित हुए और सही अर्थ में यह  राष्ट्रीय स्मारक बना ।

अनुमति मिलने के बाद केवल 6 वर्षों में यह स्मारक बन कर पूर्ण हुआ यह भी अपने आप में एक विश्व रिकोर्ड है। प्रत्यक्ष स्मारक निर्माण के कार्य में प्रतिदिन लगभग 600 कामगारों ने भाग लिया। निर्माण के दौरान ऐसा भी समय आया जब पैसे न होने के कारण उन्हें वेतन न दे सके फिर भी केवल भात (चावल) खाकर उन्होंने काम किया। ऐसी भावना से काम करने वाले कामगार इस महान कार्य में जुटे थे। बाद में जब समाज के दान आदि से पैसे की व्यवस्था हो गयी तब एकनाथ जी ने उनका वेतन बढ़ा दिया ।

स्मारक का मानचित्र निश्चित करते समय कांची कामकोटि के परमाचार्य – शंकराचार्य श्री चंद्रशेखरेंद्र सरस्वती जी ने बताया कि यह कोई मंदिर नहीं है बल्कि यह तो एक महान व्यक्ति का स्मारक है इसलिए मंदिर से अलग इसकी रचना होगी और उन्होंने स्वयं मानचित्र में आवश्यक परिवर्तन किये। इस प्रकार यह स्मारक विश्व में स्थापत्यशास्त्र का उत्तम उदाहरण बना। विवेकानन्द सभामंड़प के साथ साथ देवी कन्याकुमारी का पदचिन्ह जहाँ है वहां श्रीपाद मंडप और ओंकार के सामने ध्यान कर सकें, ऐसा ध्यानमंडप भी स्मारक का महत्वपूर्ण अंग है। इस स्मारक से लेकर दक्षिण ध्रुव तक पानी ही पानी है और उत्तर ध्रुव तक जमीन ही जमीन है। हिमालय सहित भारत के सभी पर्वतों से उद्गम होने वाली सभी नदियों का जल तीनों सागरों के माध्यम से वहां एकत्रित होता है। सागर से होने वाला सूर्योदय और सागर में ही होने वाला सूर्यास्त यहाँ से देख सकते है।

समाज में बहुत से लोगों की इच्छा थी कि स्मारक में स्वामी जी की ध्यानस्थ मूर्ति लगाई जाये परन्तु इस विषय  में एकनाथ जी स्पष्ट थे। स्वामी जी ने इस शिला पर ध्यान किया और अपने जीवन का ध्येय-लक्ष्य तय किया।   अपने लक्ष्य को प्राप्त करने की दिशा में अपने कदम उस ध्येयमार्ग पर आगे बढ़ाये, इसी आविर्भाव में वह मूर्ति  है।  स्मारक देखने आने वाले दर्शकों को स्वामी जी की उस भव्य तेजस्वी मूर्ति के दर्शन से उनके दिखाए हुए ध्येयमार्ग पर चलने की प्रेरणा मिलती है ।

इसकी और एक विशेषता यह है कि इस विवेकानन्द शिला स्मारक का उद्घाटन समारोह भी 2 महीनों तक चला  था। प्रत्येक राज्य को 5 दिनों का समय था जिसमें उस राज्य के लोग कार्यक्रम करते थे। 2 सितम्बर 1970 को यह स्मारक राष्ट्रार्पित हुआ था, उसे वर्ष 2020 में इस महीने 50 वर्ष पूरे हुए । इसके बाद विवेकानन्द केन्द्र के रूप में स्वामी विवेकानन्द का जीवंत स्मारक भी स्थापित हुआ और स्वामी विवेकानन्द के आदर्शों पर भारत माता को उसके जगद्गुरू के स्थान पर पुनःस्थापित करने हेतु विविध उपक्रमों के माध्यम से भारत भर कार्यरत है।

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