निवेदिता (उपाध्यक्ष), विवेकानन्द केन्द्र, कन्याकुमारी
मूल अंग्रेजी – अनुवाद प्रा. सुधीर गर्ग, सोनीपत
इस वर्ष 11 सितम्बर का दिन एक अति-विशेष दिन है क्योंकि 50 वर्ष पहले इसी दिन 2 सितम्बर, 1970 को विवेकानन्द शिला स्मारक का उद्घाटन हुआ था, वह दिवस जब स्वामी विवेकानन्द ने शिकागो धर्म महासभा के भाषणों में विश्व बंधुत्व का सन्देश दिया था। हमें स्वामी जी द्वारा दिये गए भाषणों के संदेश की सूक्ष्म बारीकियों को समझने की आवश्यकता है।
विश्व धर्म संसद में स्वामी विवेकानन्द जी के भाषणों का जो स्वागत हुआ और जो प्रशंसा प्राप्त हुई, इससे यह स्पष्ट हुआ कि विश्व को भारत के सन्देश की आवश्यकता है। धर्म महासभा का आयोजन, कोलंबस द्वारा अमेरिका की खोज के 400 वर्ष पूर्ण होने के उपलक्ष्य में किये जाने वाले आयोजनों का ही एक भाग था। महासभा का उद्देश्य, ईसाइयत (Christianity) को ही विश्व का ‘एकमात्र सच्चा धर्म घोषित करना था।
विशिष्ट दृष्टिकोण (exclusive approach) के कारण कोई भी व्यक्ति अपने धर्म को ही एकमात्र सच्चा धर्म मानता है। एक बार जब इस प्रकार का विशिष्ट दृष्टिकोण व्यक्ति के अंतर में बैठ जाता है, तो उसे दूसरे धर्म सहन नहीं होते। यह असहिष्णुता किसी विशिष्ट धर्म का पालन करने वालों को बल और छल से, दूसरों का प्रचुर मात्रा में धर्मांतरण के लिए प्रेरित करती है। स्वामी विवेकानन्द जानते थे कि सेमिटिक धर्म जैसे ईसाई और इस्लाम, मानव इतिहास में भयंकर रक्तपात और मानव हत्या के लिए जिम्मेदार हैं। यह विशिष्ट होने का, विशिष्ट धर्म का दृष्टिकोण ही मानव जाति के लिए बन्धुत्व प्राप्त करने में सबसे बड़ी बाधा है। यह प्रसिद्ध है कि जब स्वामी जी ने शिकागो में श्रोताओं को, ‘मेरे अमेरिकावासी बहनों और भाइयो’ कह कर सम्बोधित किया; तब इसका श्रोताओं पर विद्युतीय प्रभाव पड़ा। यह केवल सम्बोधन की विधा नहीं थी बल्कि इन शब्दों के पीछे भारत की आध्यात्मिक शक्ति थी, जिसके बल पर 5000 वर्षों से भी अधिक इतिहास में भारत ने विश्व बन्धुत्व का निर्वाह किया है। इस बात पर गर्व करते हुए स्वामी विवेकानन्द ने कहा, ‘मैं उस देश का नागरिक होने में गर्व करता हूँ जिसने इस धरती के सभी राष्ट्रों के सताए हुए लोगों और शरणार्थियों को आश्रय दिया है। हिन्दुओं का व्यवहार सार्वभौमिक हो सका, क्योंकि हिन्दू यह दावा नहीं करते कि, ‘जिस भगवान की मैं पूजा करता हूँ’ वही ‘एकमात्र सत्य भगवान है’। बल्कि वह कहते हैं कि ‘केवल भगवान’ ही है और हम सब उसी एक की अभिव्यक्ति हैं।
हम यह नहीं कहते कि हमारा भगवान ही वास्तविक है और बाकी भगवान गलत हैं। हम दूसरों के भगवान को भी ‘भगवान का प्रकार’ ही मानते हैं। यह हमारा समष्टि दृष्टिकोण है और ‘वह भी’ दृष्टिकोण है। विशिष्ट दृष्टिकोण कहता है कि ‘केवल यह’ है जबकि समष्टि दृष्टिकोण कहता है, कि ‘यह भी’ है। इसी समष्टि दृष्टिकोण के कारण हिंदुओं ने कभी दूसरे धार्मिक विश्वासों का खण्डन नहीं किया। इस विश्व बंधुत्व को प्रारम्भ करने के लिए यह आवश्यक है कि सभी धर्म भगवान के प्रति इस समष्टि दृष्टि-‘वह भी’ दृष्टिकोण को मानें।
हिन्दू ‘यह भी’ दृष्टिकोण रखते हैं क्योंकि उनकी दृष्टि सम्पूर्ण अस्तित्व के एकत्व की है। क्योंकि हिन्दू इस जागतिक अस्तित्व की प्रत्येक वस्तु को ‘एक’ की ही अभिव्यक्ति मानते हैं, जिसके अंतर्गत अन्य सभी अभिव्यक्तियाँ मानी और पूजी जाती हैं। यहाँ अनेकता का सम्मान है। क्योंकि सभी वस्तुएँ उस एक की ही अभिव्यक्ति हैं, मानव भी पापी नहीं, बल्कि अजर-अमर है, अव्यक्त दैवी अवतार है। यह संदेश है जो भारत, विश्व को देना चाहता है।
पहली बार पाश्चात्य जगत को, जो धार्मिक सत्य के बारे में विशिष्ट दावे के आदी था, स्वामी विवेकानन्द ने बताया, ‘धार्मिक एकता की साँझी धरा के बारे में बहुत कुछ कहा जा चुका है… परन्तु यहाँ उपस्थित कोई भी यह आशा करता है कि यह एकता किसी एक धर्म की विजय से और दूसरों के विनाश से आएगी, तो इसे मैं कहता हूं, ‘भाई, तुम्हारी आशा असम्भव है’.. यदि धर्म महासभा ने दुनिया को कुछ दिखाया है तो यह है: जिसने यह सिद्ध किया है कि पवित्रता, शुद्धता और दयालुता, दुनिया के किसी एक गिरिजाघर की विशिष्ट सम्पत्ति हैं, और प्रत्येक धार्मिक प्रणाली ने सर्वोच्च चरित्र वाले स्त्री-पुरुष पैदा किये हैं। इस प्रमाण के चलते, यदि कोई अपने धर्म के बचने और दूसरों के विनाश का स्वप्न देखता है, मैं इस पर अपने हृदय की गहराइयों से दया करता हूँ, और उसे बताता हूँ कि जल्दी ही प्रत्येक धर्म के ध्वज पर प्रतिरोध के बावजूद लिखा जाएगा, “लड़ाई नहीं तो सहयोग”, ” विनाश नहीं तो समन्वय”, ” कलह नहीं तो शांति और सामंजस्य।”
पाश्चात्य श्रोताओं को पहली बार विश्व बंधुत्व का सन्देश और इसका उचित अर्थ स्वामी विवेकानन्द द्वारा समझाया गया। इसलिये विवेकानन्द शिला स्मारक के शिल्पकार और विवेकानन्द केन्द्र के निर्माता माननीय एकनाथ जी रानाडे चाहते थे कि यह दिवस ‘विश्व बंधुत्व दिवस’ के रुप में मनाया जाए। मानवता में एकरूपता लाने से, जैसा कि कुछ विशिष्ट ‘रिलिजन’ या मत चाहते हैं, विश्व बन्धुत्व नहीं ला सकेंगे; परन्तु इससे झगड़े और विनाश बढ़ेंगे। विभिन्न मतों को इकट्ठा करना और ‘दूसरों’ के मतों को भी मानना उनके लिए अच्छा होगा, और यह विश्व बन्धुत्व लाएगा। एकरूपता के द्वारा पहचान और समाज के परम्परागत मूल्यों का नाश हो जाता है जबकि एकीकरण करना और सामंजस्य बैठाना विभिन्न समाजों की पहचान बनाए रखता है और उन्हें बन्धुत्व के बन्धन से परस्पर बाँधता है। इसलिए विश्व-बंधुत्व का संदेश उनके लिए भी है जो अपने आपको विशिष्ट मानते हैं और विभिन्न जनजातियों और समाजों में धर्मांतरण करके उनके विश्वास और संस्कृति का विनाश कर रहे हैं।
यह हिन्दूओं के भाग्य में है कि वह अपने समष्टि दृष्टिकोण के दर्शन एवं प्रथा के साथ विश्व बन्धुत्व का सन्देश मानवता तक पहुंचाएं। परन्तु ऐसा करने के लिए हिन्दूओं को अपने धर्म की एकीकरण और सम्मिलन की प्रकृति की समझना होगा। धर्म महासभा में स्वामी विवेकानन्द ने भी हिन्दू धर्म के एकीकरण के सिद्धांत बताए। भगिनी निवेदिता ने बहुत सुन्दरता से कहा है, “स्वामी जी के धर्म महासभा में भाषण के विषय में यह कहा जा सकता है कि जब उन्होंने बोलना प्रारम्भ किया तो यह, “हिन्दूओं के धार्मिक विचार” थे, परन्तु जब उन्होंने समापन किया तो हिंदुत्व स्थापित हो चुका था… तब यह दो मानसिक सैलाब थे, सोच की दो बड़ी सरिताएं, जैसे कि पूर्वी और आधुनिक, जिसे एक क्षण में धर्म महासभा में एक भगवा कपड़े पहने परिव्राजक ने संगम के बिन्दू पर ला दिया। हिन्दू धर्म के सर्वग्राही और सांझे आधार की प्रस्तावना उनके संपर्क के प्रभाव का एक अवश्यम्भावी परिणाम था। यह उनका अपना अनुभव भी नहीं था जो उस समय स्वामी विवेकानन्द जी के मुख से उच्चरित हुआ और दुनिया को सुनाई दिया । इस अवसर का लाभ स्वामी जी ने अपने गुरु की कथा बताने के लिए भी नहीं किया। बल्कि, यह भारत की आध्यात्मिक चेतना थी जो उनके माध्यम से मुखरित हुई, उनके सम्पूर्ण लोगों का संदेश जिसको उनके पूर्ण भूतकाल ने तय किया।” इस प्रकार, विश्व बन्धुत्व दिवस पर हमें स्वामी विवेकानन्द द्वारा धर्म महासभा में दिए गए सन्देश का अध्ययन करना है, आत्मसात करना है और उभारना है। केवल मात्र वह भाषण नहीं जो उन्होंने प्रथम दिवस पर दिया, जो कि विश्व प्रसिद्ध है, परन्तु वह “हिन्दू धर्म पर निबन्ध” नामक मुख्य भाषण जो उन्होंने धर्म महासभा में दिया, उसका अध्ययन करने की आवश्यकता है। उस भाषण में जो उन्होंने पाश्चात्य जगत से कहा, वह उन्होंने हमें अपने लाहौर में दिए प्रसिद्ध भाषण, “हिन्दुत्व के सामान्य आधार” में बताया। यह इन भाषणों का अध्ययन और इन पर अमल करना ही है, जो हमें विश्व को विश्व बन्धुत्व का सन्देश देने के योग्य बनाएगा।
विशिष्ट ईश्वरवाद के अनुयायियों का शान्ति की तलाश में वृथा तुष्टिकरण केवल विशिष्ट शक्तियों को सबके अहित में बलवती करता है। साथ ही साथ यह भी याद रखना चाहिए कि जब हम विशिष्ट शक्तियों के विरुद्ध कार्य करते हैं तो हम जीसस, अल्लाह या मुस्लिम तथा क्रिस्चियन समाज के विरुद्ध नहीं हैं। हमें इन समाजों के कुछ खराब तत्त्वों के कार्य स्वरूप, पूरे समाज को ही खराब कहने की आदत नहीं डालनी चाहिए। ऐसा करने से उन समाजों के भले व्यवहार करने वाले लोग भी विशिष्ट अथवा अतिवादी मोड में धकेले जाते हैं।
इस प्रकार न तो किसी की अस्वीकृति और न ही तुष्टिकरण, परन्तु आत्म-स्थापन एवं सभी की भलाई के लिए कार्य और प्राणी मात्र में सामंजस्य ही विश्व-बन्धुत्व लाएगा। जैसे स्वामी विवेकानन्द ने कहा कि हमारा प्रयास होना चाहिए, “लड़ाई नहीं तो सहयोग”, ” विनाश नहीं तो समन्वय”, ” कलह नहीं तो शांति और सामंजस्य।” यह एक कठिन लक्ष्य है, लेकिन अप्राप्य नहीं और यदि विश्व में कोई ऐसी सभ्यता है जिसमें इस ओर कार्य करने का दर्शन और भीतरी शक्ति है, वह यह है, हमारी हिन्दू सभ्यता।
भारत का अस्तित्व इन विचारों को मानवता की भलाई के लिये प्रदान करने के लिए है। इसीलिए भारत का अस्तित्व उसके राष्ट्र जीवन में इतने सारे आक्रमणों के बावजूद भी बना रहा। जब-जब इस प्रारब्ध को विस्मृत किया गया, तब-तब पतन हुआ। इस प्रकार, धर्म महासभा में स्वामी विवेकानन्द का संदेश हालांकि विश्व बन्धुत्व का था, यह भारत का राष्ट्रीय भाग्य है। यह हिन्दू राष्ट्र के पुनरुत्थान के लिए आह्वान बन गया।
विवेकानन्द शिला स्मारक उस हिन्दू पुनरुत्थान का द्योतक है जो 11 सितम्बर, 1893 को प्रारम्भ हुआ। विवेकानन्द शिला स्मारक सैंकड़ों वर्षों बाद बना। यह पहला मन्दिर जैसा भवन है जो किसी महापुरुष को सम्मानित करने के लिए बना। हाँ, कुछ मन्दिर अवश्य बनवाए गए, परन्तु विवेकानन्द शिला स्मारक पहला नव-निर्मित भव्य स्मारक है। हिन्दू सभ्यता का पहला कठोर अभिकथन, एक वास्तविक स्मारक! हम समझ सकते हैं कि इसने समाज को कितने गर्व से भर दिया। जिस प्रकार स्वामी जी के संदेश से स्वतन्त्रता संग्राम को प्रेरणा मिली उसी प्रकार विवेकानन्द शिला स्मारक से एक आध्यात्म प्रेरित सेवा विवेकानन्द केंद्र को गति मिली।
विवेकानन्द शिला स्मारक के निर्माण में माननीय एकनाथ जी ने विश्व-बन्धुत्व के विचारों का ही पालन किया है। विश्व-बन्धुत्व के लिए कार्य करने का अर्थ यह नहीं है कि हम अपने मार्ग को त्याग दें और केवल समझौता करें या अपने विचारों को दूसरों पर लादें, वरन यह उस पर दृढ़ रहना है जो उपयुक्त है परन्तु सब को साथ लेकर चलने का प्रयास भी है। स्थानीय स्तर पर और सरकारी स्तर पर भी स्मारक के नाम पर घोर विरोध था। एकनाथजी को किनारे पर स्मारक बनाने के लिए सरकार ने भूमि का एक टुकड़ा देने की पेशकश की। जिस शिला पर स्वामी विवेकानन्द जी ने ध्यान किया था, उसी शिला पर विवेकानन्द स्मारक बनाने के मिशन से एकनाथजी हटें नहीं। परन्तु उन्होंने यह भी ध्यान रखा कि इस सारे कार्य में कोई भी नाराज़ न हो। जब सारा निर्माण कार्य पूर्ण होने को था, वहां किसी ने देशी बम फेंकने का प्रयास किया, परन्तु उन्होंने सारे समाज को इसके लिए जिम्मेदार नहीं माना। उन्होंने इस बात का ध्यान रखा यह अवांछनीय कार्य सीमित रहे और इसे अधिक महत्व न दिया जाय। स्वामी विवेकानन्द के संदेश के अनुरूप चलते हुए एकनाथजी ने यह सुनिश्चित किया कि विशाल स्मारक शिला पर ही बने और यह देश भर की सृजनात्मक शक्तियों का, बिना किसी जाति, धर्म, समाज और क्षेत्र के भेदभाव के, एकत्रीकरण का बिंदु बने।
भारत को (विश्व पटल पर) अपना सुयोग्य स्थान स्थापित करना है, और एक सुदृढ़ राष्ट्र बन कर उभरना है। उसकी शक्ति दूसरों के विनाश अथवा प्रभुत्व प्राप्त करने में नहीं, परन्तु यह मानवता में आशीष और शान्ति लाने में है। भारत ने विश्व की सभ्यताओं को अपने कृतित्व से सिखाया कि अस्तित्व की एकात्मता को केंद्र में रखते हुए कैसे विविधता का सम्मान किया जाता है। भारत का यह कार्य विश्व-बन्धुत्व की स्थापना का सूत्रपात करेगा जिसके लिए हम सब अनवरत कार्य कर रहे हैं।
और पढ़ें : विवेकानन्द शिला स्मारक – एक अद्भुत राष्ट्रीय स्मारक