– वासुदेव प्रजापति
भारत विश्व का प्रथम राष्ट्र है। विश्व के अनेक राष्ट्र जब पशुवत जीवन जीते थे, तब भारत ने ही उन्हें सभ्यता व संस्कृति का पाठ पढ़ाया था। इसलिए वे सभी देश भारत को अपना गुरु मानते थे। भारत के लिए कहा गया है-
एतद्देश प्रसूतस्य शकासाद अग्र जन्मन:।
स्वं स्वं चरित्र शिक्षेरन पृथिव्या सर्व मानवा:।
इस देश में उत्पन्न पूर्वजों के चरित्रों से शिक्षा ले पृथ्वी के सभी लोगों ने अपने-अपने जीवन को संवारा है। यही कारण है कि भारत विश्व गुरु था। उसी विश्वगुरु भारत ने दीर्घकाल काल तक चले संघर्ष एवं सदगुण विकृति के फलस्वरूप अपना गुरुत्व खो दिया। अपना गुरुत्व खो देने से भारत कमजोर हुआ। भारत की इस कमजोरी का लाभ उठाकर पहले मुगलों ने और बाद में अंग्रेजों ने इस पर अपना आधिपत्य स्थापित कर लिया। केवल अधिकार ही नहीं अंग्रेजों ने इसके श्रेष्ठ वेद ज्ञान को गड़रियों के गीत अर्थात् मिथक घोषित कर शिक्षा की मूल धारा से बाहर कर दिया।
विद्या भारती शिक्षा क्षेत्र में क्यों आई?
भारत की स्वाधीनता से पूर्व अर्थात् अंग्रेजी काल में ही स्वदेश प्रेमियों के ध्यान में यह बात आ गई थी कि यह अंग्रेजी शिक्षा भारतीय नवयुवकों में भारतीयता के संस्कार मिटाकर उनमे अंग्रेजीयत भर रही है, जो आगे चलकर देश के लिए घातक सिद्ध होगी। इस अंग्रेजी शिक्षा के विरोधस्वरूप सबसे पहले रवीन्द्रनाथ ठाकुर के नाना राज बसु ने राष्ट्रीय शिक्षा का बीडा उठाया। उनके बाद महर्षि अरविन्द, रवीन्द्र नाथ ठाकुर, स्वामी विवेकानंद, भगिनी निवेदिता, स्वामी दयानंद सरस्वती, लाल-बाल-पाल तथा गांधीजी ने राष्ट्रीय शिक्षा की ज्योति को प्रज्जवलित रखा।
स्वाधीनता के पश्चात् सारा देश चाहता था कि अब देश स्वाधीन हो गया है, अंग्रेज चले गए हैं इसलिए अंग्रेजी शिक्षा को हटाकर पुन: भारतीय शिक्षा प्रतिष्ठित करनी चाहिए। जब भारत स्वतंत्र हुआ तब एक पत्रकार ने विनोबा भावे से पूछा था कि स्वतंत्र भारत में आप कैसी शिक्षा चाहते हैं? विनोबा जी ने स्पष्ट शब्दों में कहा था, “अब भारत में भारतीय शिक्षा लागू होनी चाहिए। भारतीय शिक्षा को लागू करने के लिए यदि छ: माह का समय लगे तो छः महीने तक देश के सभी विद्यालय बंद कर देने चाहिए। जब छः महीने बाद विद्यालय खुले तब उनमें भारतीय ज्ञान ही दिया जाए।” किन्तु उस समय के नेतृत्व ने विनोबा जी की बात नहीं मानी और वही अंग्रेजी शिक्षा चलने दी। इतना ही नहीं देश की शिक्षा उन लोगों के हाथों में सौंपी जो अभारतीय मानस के थे। इस प्रकार स्वतंत्र भारत में भी जब अभारतीय शिक्षा ही दी जाती रही, तब विद्या भारती ने शिक्षा क्षेत्र में आना आवश्यक समझा। सन् 1952 में विद्या भारती योजना का पहला सरस्वती शिशु मंदिर, गोरखपुर में प्रारम्भ हुआ। आज तो विद्या भारती के लगभग 25 हजार शिक्षा केन्द्र चल रहे हैं, जिनमें व्यक्ति निर्माण से लेकर राष्ट्र निर्माण की शिक्षा दी जा रही है।
विद्या भारती क्या चाहती है?
विद्या भारती ने शिक्षा क्षेत्र का वरण तो कर लिया, किन्तु उसने शिक्षा को ही क्यों चुना? यह जानना भी आवश्यक है। विद्या भारती ने देश के शिक्षा क्षेत्र की चुनौती को स्वीकार किया है और भारत की वर्तमान शिक्षा प्रणाली में आमूलचूल परिवर्तन कर उसका विकल्प विकसित करने का संकल्प लिया है। इस संकल्प की पूर्ति हेतु विद्या भारती ने अपना लक्ष्य निर्धारित किया है। उसने अपने लक्ष्य में जो-जो करना चाहती है, उसे स्पष्ट शब्दों में कहा है।
विद्या भारती का लक्ष्य
विद्या भारती इस प्रकार की राष्ट्रीय शिक्षा प्रणाली का विकास करना चाहती है, जिसके द्वारा ऐसी युवा पीढ़ी का निर्माण हो सके जो हिन्दुत्वनिष्ठ एवं राष्ट्रभक्ति से ओत-प्रोत हो, शारीरिक, प्राणिक, मानसिक, बौद्धिक एवं आध्यात्मिक दृष्टि से पूर्ण विकसित हो तथा जो जीवन की वर्तमान चुनौतियों का सामना सफलतापूर्वक कर सके और उसका जीवन ग्रामों, वनों, गिरिकन्दराओं एवं झुग्गी-झोपडियों में निवास करने वाले दीन-दुखी, अभावग्रस्त अपने बान्धवों को सामाजिक कुरीतियों, शोषण एवं अन्याय से मुक्त कराकर राष्ट्र जीवन को समरस, सुसम्पन्न, एवं सुसंस्कृत बनाने के लिए समर्पित हो।
विद्या भारती का यह लक्ष्य अपने आप में इतना स्पष्ट है एवं इतना सुविचारित है कि कुछ और कहना शेष नहीं रहता। लक्ष्य साफ-साफ बताता है कि हमारे देश में विदेशी नहीं राष्ट्रीय शिक्षा प्रणाली हो, जिससे हिन्दुत्वनिष्ठ युवा पीढ़ी निर्मित हो जो राष्ट्र के उत्थान हेतु समर्पित हो। मैं समझता हूं इससे बढ़कर व्यक्ति और राष्ट्र हित का विचार नहीं हो सकता। इसी लक्ष्य की पूर्ति में विद्या भारती प्रयत्नरत है और अपने प्रयत्नों में उसे सफलता भी मिल रही है।
विद्या भारती का शैक्षिक विचार क्या है?
विद्या भारती की मान्यता है कि केवल किताबी ज्ञान जानकारी बढ़ा सकता है किन्तु जीवन निर्माण नहीं कर सकता। इसी प्रकार पर्सनालिटी विकास से आकर्षक व्यक्तित्व बनाया जा सकता है, परन्तु व्यक्तित्व की मूलभूत सम्भावनाओं का विकास नहीं हो सकता। हमारा तैत्तिरीय उपनिषद कहता है कि व्यक्तित्व पंच कोशात्मक है। ये पंच कोश हैं- अन्नमय कोश, प्राणमय कोश, मनोमय कोश, विज्ञानमय कोश तथा आनन्दमय कोश। इन पांचों कोशों का विकास करने से अर्थात् शरीर, प्राण, मन, बुद्धि तथा चित्त जब विकसित होते हैं, तभी सर्वांगीण विकास हुआ माना जाता है। केवल इतना ही नहीं तो जब तक विकसित व्यक्ति का समष्टि के साथ समायोजन नहीं होता, अर्थात मेरा जीवन केवल मेरे लिए नहीं है, वह परिवार, समाज, देश एवं विश्व के लिए भी है, जब तक इस बात का भान नहीं होता तब तक व्यक्ति में और मेरा परिवार तक ही सीमित रहता है। इसी प्रकार व्यक्ति का सृष्टि के साथ समायोजन करते हुए जब उसे परमेष्ठी की ओर अग्रसर किया जाता है, तभी वह ‘सा विद्या या विमुक्तये’ इस उक्ति को सार्थक करने की योग्यता अर्जित करता है।
विद्यार्थी को शिक्षा केवल परीक्षा उत्तीर्ण कर अधिक अंक लाने के लिए नहीं दी जाती, वह तो जीवन की चुनौतियों का डटकर मुकाबला करते हुए कुलदीपक बनाने के लिए समाजसेवी बनाने के लिए देशभक्त निर्माण करने के लिए तथा सम्पूर्ण मानवता के लिए जीवन खपाने हेतु दी जाती है। ऐसा जीवन केवल पुस्तकें पढ़ने से नहीं बनता अपितु क्रिया, अनुभव, विचार, विवेक तथा दायित्व बोध आधारित शिक्षा देने से बनता है। यही भारतीय शिक्षा है, इसी शिक्षा से योग्य एवं निष्ठावान नागरिक निर्माण होते हैं, यह विद्या भारती का अनुभूत मत है। भारतीय शिक्षा से ही हमारा देश पुनः एक बार जग सिरमौर बनेगा।
विद्या भारती के विविध उपक्रम कौन-कौन से हैं?
विद्या भारती के आयाम: भारतीय शिक्षा के माध्यम से भारत को पुनः जग सिरमौर बनाने में रत विद्या भारती ने अनेक उपक्रम खड़े किए है। विद्या भारती के चार आयाम हैं- देश की विद्वत् शक्ति को इस ज्ञान यज्ञ में आहुति देने के लिए विद्वत परिषद है। शिक्षा में क्रिया शोध कर उसे और अधिक उपयोगी बनाने के लिए शोध विभाग है। भारतीय संस्कृति मय जीवन बनाने हेतु संस्कृति बोध परियोजना है और अपने पूर्व छात्रों में दिए गए संस्कार अमिट रहें, इसके लिए पूर्व छात्र परिषद है। अत्यन्त हर्ष का विषय है कि विद्या भारती के पूर्व छात्र परिषद ने अपने पोर्टल में आठ लाख से अधिक पूर्व छात्रों को जोड़ा है, जो विश्व कीर्तिमान बना है।
आधारभूत विषय: विद्या भारती यह मानती है कि व्यक्ति निर्माण में आधारभूत विषयों की भूमिका सर्वाधिक महत्वपूर्ण है। ये विषय हैं शारीरिक, योग, संगीत, संस्कृत, नैतिक तथा आध्यात्मिक शिक्षा। शारीरिक व योग शिक्षा से शरीर व प्राण का विकास होता है। संगीत शिक्षा मन को साधती है। संस्कृत शिक्षा उच्चारण एवं बुद्धि विकास करती है, वहीं नैतिक व आध्यात्मिक शिक्षा हमारे धर्म और संस्कृति से जोड़कर उसके चित्त को निर्मल करती है। इस प्रकार इन पांचों आधारभूत विषयों की शिक्षा विद्या भारती का वैशिष्ट्य है।
गुणात्मक विकास के उपक्रम: विद्या भारती ने शिशुओं के विकास के लिए भारतीय पद्धति ‘शिशु वाटिका’ विकसित की है। बाल आयु के विद्यार्थियों के लिए क्रिया व अनुभव आधारित प्रारम्भिक शिक्षा के द्वारा उनमें गुण विकसित किए जाते हैं। ‘सबके लिए खेलकूद’ विद्या भारती का प्रमुख उपक्रम है। भारत सरकार ने एस.जी.एफ. आई. में विद्या भारती को एक प्रान्त माना है। इसलिए विद्या भारती के खिलाड़ी भैया-बहिन विद्यालय से जिला स्तर पर प्रान्त स्तर पर और राष्ट्रीय स्तर पर खेलते हुए विजयी होते हैं और एस.जी.एफ.आई. में भाग लेते हैं। विद्यालय से लेकर एस. जी. एफ.आई में प्रतिवर्ष खेलने वाले खिलाड़ियों की संख्या लगभग 3.5 लाख है।
विद्या भारती के विशेष विषयः बालिका शिक्षा, ग्रामीण एवं जनजाति की शिक्षा विज्ञान एवं वैदिक गणित की शिक्षा, आचार्य प्रशिक्षण तथा कौशल विकास ऐसे विषय है जो भैया-बहिनों में वैज्ञानिक सोच का निर्माण करते हुए उनके कौशलों का विकास करते है। साथ ही साथ शिक्षा से वंचित रह जाने वाले बालक-बालिकाओं में शिक्षा व संस्कार की अलख जगाने के लिए विद्या भारती सेवा बस्तियों में संस्कार केन्द्र भी चलाती है। देश भर में ऐसे हजारों केन्द्र है।
विद्या भारती के कार्य की संख्यात्मक स्थिति क्या है?
विद्या भारती यह संगठन का संक्षिप्त नाम है। इसका पूरा नाम विद्या भारती अखिल भारतीय शिक्षा संस्थान है। इस संस्थान ने अपने नाम को सार्थक किया है। सभी दृष्टि से विद्या भारती एक अखिल भारतीय शिक्षा संस्थान है। उत्तर में लेह से लेकर, दक्षिण के रामेश्वरम तक तथा पश्चिम में पाकिस्तान की सीमा से लगे मुनाबाव से लेकर पूर्वोत्तर में हाफलांग तक विद्या भारती के विद्या मंदिर हैं। बड़े-बड़े महानगरों की समृद्ध कालोनियों से लेकर गिरिकन्दराओं में बसी छोटी-छोटी बस्तियों तक विद्या भारती के शिक्षा केन्द्र राष्ट्र निर्माण के इस महत्वपूर्ण कार्य में लगे हुए है।
विद्या भारती ने संगठनात्मक दृष्टि से पूरे देश को ग्यारह क्षेत्रों में बाटा हुआ है। प्रत्येक क्षेत्र में एक क्षेत्रीय समिति है, जिसके निर्देशन में प्रान्तीय समितियां अपने-अपने प्रान्त के कार्यों की देखभाल करती है। इन प्रान्तीय समितियों के अन्तर्गत जिला समिति एवं विद्यालय समिति प्रत्यक्ष कार्य करती है। ये सभी ग्यारह समितियां केन्द्रीय समिति के मार्गदर्शन में कार्य करती है। केन्द्रीय समिति का प्रधान कार्यालय देश की राजधानी दिल्ली में है।
सम्पूर्ण देश में विद्या भारती के कार्य की स्थिति
- देश में कुल जिले 711, इनमें कार्ययुक्त जिले 632 है।
- कुल औपचारिक विद्यालय 12,830, कुल अनौपचारिक केन्द्र 11,353
- कुल शैक्षिक इकाइयां 24,183, देशभर में अध्ययनरत छात्रों की संख्या 34 लाख 47 हजार 856, कुल आचार्य 1.5 लाख
उपर्युक्त सांख्यिकी के आधार पर कहा जा सकता है कि गैर सरकारी स्तर पर विद्या भारती देश का सबसे बड़ा शिक्षा संस्थान है। विद्या भारती अ सरकारी होते हुए भी सर्वाधिक असरकारी शिक्षा संस्थान भी है।
विद्या भारती का शिक्षा जगत को योगदान क्या है?
स्वाधीनता पूर्व से संपूर्ण देश में राष्ट्रीय शिक्षा स्थापना के जो प्रयास चल रहे थे, विद्या भारती ने उस ज्योति को बुझने नहीं दिया। देश में दी जा रही शिक्षा अभारतीय है, हमारे देश को भारतीय शिक्षा चाहिए। स्व की शिक्षा और स्व के तंत्र से ही देश समृद्ध व सुसंस्कृत बनेगा। यह विचार देशवासियों के मानस में बिठाकर उन्हें पश्चिम का अंधानुकरण न करने तथा अपनी आत्म विस्मृति को हटाते हुए स्वाभिमान जगाने की प्रेरणा देने का महती कार्य किया है।
इसी प्रकार शिक्षा का माध्यम अंग्रेजी नहीं, मातृभाषा होना चाहिए, इसकी चर्चा देश भर में चलाते हुए मातृभाषाओं के महत्त्व को बढ़ाया है। देश में समय-समय पर बनी राष्ट्रीय शिक्षा नीति में शिक्षा को राष्ट्र की जड़ों से जोड़ने की संस्तुतियां देकर भारत सरकार को शिक्षा में आमूलचूल परिवर्तन के लिए दिशा प्रदान की है। राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 में विद्या भारती की अनेक संस्तुतियों को स्थान मिला है।
इस प्रकार विद्या भारती देश में भारतीय शिक्षा की पुनर्प्रतिष्ठा करने के कार्य में अग्रसर है। विद्या भारती की मान्यता है कि भारतीय शिक्षा की पुनर्प्रतिष्ठा से भारत आत्मनिर्भर तो होगा ही, अपनी ज्ञान विरासत के बल पर पुनः एक बार ‘कृणवन्तो विश्वमार्यम्’ की भूमिका निभाते हुए जग सिरमौर बनेगा। विद्या भारती, राष्ट्र के इस ज्ञान यज्ञ में आप भी आहुति दें, यह अपेक्षा रखती है।
(लेखक शिक्षाविद् है, भारतीय शिक्षा ग्रन्थमाला के सह संपादक है और विद्या भारती संस्कृति शिक्षा संस्थान के सह सचिव है।)
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