– गोपाल महेश्वरी
देशधर्म पर बलि हो जाना बचपन से जो सीख चुके।
अत्याचार-क्रूरता-पशुता झेल गए पर नहीं झुके।।
1857 का स्वतंत्रता संग्राम सब देशभक्तों ने मिलकर लड़ा था। अंग्रेज़ इस क्रांति से तिलमिला उठे थे। उन्होंने भोले-भाले भारतीयों का धर्म नष्ट करने की चालें चलना आरम्भ किया। उन्हें माँसाहार की ओर आकर्षित करने हेतु पवित्र नगरों में माँस बिक्री की दुकानें सजने लगी, बूचड़खाने खोले गए जिनमें गाय का माँस भी खुलेआम बिकता था।
उस समय पंजाब की जनता में गुरु रामसिंह जी का बहुत प्रभाव था उनके अनुयायी ‘नामधारी’ कहलाते। ‘नाम दीक्षा’ पाकर वे भगवान का नाम रटने की सरलतम एवं साधन रहित साधना में रम जाते। उनके अनुयायी जब प्रेम से गुरु रूप ईश्वर को पुकारते तो उनके कंठों से ‘वाहेगुरु’ का नाम ‘कूक’ (कोयल के स्वर को कूक कहते हैं) जैसा मधुर स्वर गूंज उठता। यह बात इतनी प्रिय हो चली कि लोग उन्हें ‘कूका’ ही कहने लगे।
गुरु रामसिंह की दृष्टि केवल ईश्वर भक्ति की न थी। राष्ट्र और समाज की दशा पर भी उनकी गहरी दृष्टि थी। लाहौर अंग्रेज़ों ने हड़पा, पंजाब को ग्रहण लगाया। अमृतसर जैसा पावन नगर गौमाँस की मण्डी बनता जा रहा था। उनकी भगवद्भक्ति में से भारत मुक्ति की चिंगारियाँ निकलने लगीं- देश बचा तो धर्म बचेगा, स्वतंत्रता प्रथम आराधना, स्वतंत्रता परम साधना, विदेशी वस्तुओं का प्रयोग बन्द करो तो विदेशी भागने पर विवश होंगे, स्वदेशी अपनाओ तो अपने लोग मजबूत होंगे आदि।
1863 तक यह ‘कूका आन्दोलन’ अंग्रेज़ों की चिन्ता का बड़ा कारण बन गया गुप्तचरों के जाल बिछे, दमन की रणनीति अपनाई गई। गुरु रामसिंह जी उनके निवास स्थान ‘भैणी’ में ही रोक दिए गए।
आग में घी तब पड़ गया जब पवित्र ‘दरबार साहिब’ के सामने ही गायें काटने के लिए कसाई घर खोलने की तैयारी कर ली गई। परंतु अंग्रेज़ों की कल्पना के परे दो नामधारी कूके गए और कसाइयों को मारकर गौमाताएँ मुक्त करवा लीं।
गुरुजी चाहते थे कि क्रांति पूरी योजना बनाकर हो, पर अंग्रेज़ों की कुचालों से लोग बहुत उत्तेजित थे। 13 जनवरी 1872 को भैणी में माघ मेला चल रहा था कि एक गौवंश (बैल) को मारने पर विवाद ने धैर्य का बांध तोड़ दिया और क्रांति का बिगुल समय पूर्व ही बज गया।
154 कूका संन्यासियों ने मलौंध के किले पर अधिकार कर अगले ही दिन मलेरकोटला का महल भी छीन लिया। अंग्रेज़ों की फौजी पलटनें इन देशभक्तों पर टूट पड़ीं। 86 कूके बलिदान हो गए। शेष 68 अंग्रेज़ों के बंदी हुए। लुधियाना का अंग्रेज़ डिप्टी कमिश्नर कॉवन उन सभी बंदियों को तोपों के मुँह से बंधवाकर उड़ा देने का आदेश देकर जनता पर अपना आतंक जमाना चाहता था।
जनता की उपस्थिति में पंक्तिबद्ध खड़ी अंग्रेज़ी तोपों ने 49 बंदियों के चीथड़े उड़ा दिए। कॉवन की पत्नी भी वहाँ थी। इन कूकों में अब बारी थी एक तेरह वर्षीय वीर बालक बिशन सिंह की। कॉवन की पत्नी के मन में दया जागी, उसने कॉवन से इस बच्चे को छोड़ देने की प्रार्थना की। कॉवन रूपी पशु-मानव ने पहले तो गुरु रामसिंह को गाली दी फिर बिशन सिंह को अपने गुरु का साथ छोड़ देने की शर्त पर मुक्त कर देंगे, यह प्रस्ताव रखा।
बिशन सिंह भारत की उस माटी का बना था जिसमें गुरु को ईश्वर से भी बड़ा माना जाता है। वह 13 साल का निर्भीक बालक रस्सी तुड़ाकर ऐसे उछला मानो तोप का गोला ही दगा हो। सीधे उस धूर्त अंग्रेज़ की दाढ़ी पकड़ कर झूल गया। वह पीड़ा से चीत्कार उठा। सैनिक दौड़े, पर जैसे-जैसे बिशन सिंह से अपने अफसर की दाढ़ी छुड़ाने का प्रयत्न करते, दाढ़ी पर पकड़ और पक्की हो जाती। कॉवन बिलबिला उठा। एक सैनिक ने बिशन सिंह के हाथ ही काट दिए। कटे हुए हाथों से भी क्षण भर तो दाढ़ी मुक्त न हुई।
धरती पर गिरे इस घायल शेर जैसे बच्चे पर खचाखच तलवार के वार हुए और उसका अंग-अंग मातृभूमि की रज में मिल गया। शेष 18 कूके अगले दिन फाँसी पर चढ़ा दिए गए। बालक बिशन सिंह कूका का बलिदान अद्भुत दृढ़ता व साहस का अमर उदाहरण बन गया।
(लेखक इंदौर से प्रकाशित ‘देवपुत्र’ सर्वाधिक प्रसारित बाल मासिक पत्रिका के संपादक है।)
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