सद्ज्ञान व उल्लास के साथ शौर्य का भी अनूठा पर्व है वसंत पंचमी

 – पूनम नेगी

जानना दिलचस्प हो कि वसंत पंचमी का पावन दिन जहां हमें ज्ञान की अधिष्ठात्री देवी मां सरस्वती के विशेष पूजन अर्चन के लिये प्रेरित करता है वहीं यह पर्व भारत माता के कई महान रणबांकुरे वीरों के शौर्य व बलिदान को भी नमन करता है।

वसंतोत्सव भारत की सर्वाधिक प्राचीन और सशक्त परम्पराओं में से एक है। सद्ज्ञान, उल्लास, प्रेम, उमंग और उत्साह के समन्वय के इस रंगबिरंगे पर्व का अभिनंदन प्रकृति अपने समस्त श्रृंगार के साथ करती है। ऋतुराज वसंत के स्वागत में प्रकृति का समूचा सौंदर्य निखर उठता है। इस पर्व को सद्ज्ञान की अधिष्ठात्री मां सरस्वती के जन्मोत्सव के रूप में मनाये जाने के विस्तृत उल्लेख हमारे पुरा साहित्य में मिलते हैं।

ब्रह्मपुराण में वर्णित कथानक के अनुसार ब्रह्मा जी ने सृष्टि के आरम्भ में पंचतत्वों के समायोजन से नदी, पहाड़, तालाब वृक्ष वनस्पतियों समेत समस्त चर-अचर जीवधारियों की रचना के उपरान्त भगवान विष्णु की आज्ञा से मनुष्यों की रचना की। पर वे अपने इस मनमोहक सर्जन से संतुष्ट नहीं हुए। उन्हें अपनी रची सृष्टि मौन व उदास प्रतीत हुई। तब जगत पालक श्रीहरि विष्णु के कहने पर ब्रह्मा जी ने अपने कमण्डल के जल को अंजुरी में भर कर उसे अभिमंत्रित कर भूमि पर छिड़का पृथ्वी पर जलकण बिखरते ही उसमें कंपन होने लगा। इसके बाद वृक्षों के बीच से एक अद्भुत शक्ति का प्राकट्य हुआ। यह प्राकट्य एक चतुर्भुजी सुंदर स्त्री का था जिसके एक हाथ में वीणा तथा दूसरा हाथ वर मुद्रा में था। अन्य दोनों हाथों में पुस्तक एवं माला थी। ब्रह्मा ने देवी से वीणा बजाने का अनुरोध किया। जैसे ही देवी ने वीणा का मधुरनाद किया, संसार के समस्त जीव-जन्तुओं को वाणी प्राप्त हो गई। जलधारा में कोलाहल व्याप्त हो गया। पवन चलने से सरसराहट होने लगी। अपनी मूक सृष्टि को मुखर हुआ देख ब्रह्मा जी के आनंद का पारावार न रहा। उन्होंने उस देवी को वाणी की देवी सरस्वती के नाम से सुशोभित किया। शास्त्र कहता है कि जिस शुभ दिन ब्रह्मा के आह्वान पर वीणा, पुस्तक के साथ वरमुद्राधारी मी सरस्वती ने अवतरित होकर सृष्टि को वाणी का वरदान दिया था वह तिथि माघ मास के शुक्ल पक्ष की पंचमी तिथि थी जिसे वसंत पंचमी के नाम से जाना जाता है। इस पर्व को वाग्देवी जयंती के रूप में भी मनाया जाता है। ऋग्वेद में भगवती सरस्वती का वर्णन करते हुए कहा गया है-

प्रणो देवी सरस्वती वाजेभिर्वजिनीवती धीनामणित्रयवत्।

अर्थात ये परम चेतना है। सरस्वती के रूप में ये हमारी बुद्धि, प्रज्ञा तथा मनोवृत्तियों की संरक्षिका है। हममें जो आचार और मेघा है उसका आधार मां सरस्वती ही हैं।

ऋग्वेद में विभिन्न स्थलों पर सरस्वती को पवित्रता, शुद्धता, समृद्धता और शक्ति की देवी माना गया है। हमारा जीवन सद्ज्ञान और विवेक से संयुक्त होकर शुभ भावनाओं की लय से सतत संचरित होता रहे, इन्हीं दिव्य भावों के साथ की गयी माँ सरस्वती की भावभरी उपासना हमारे अंतस में सात्विक भाव भर देती है। हमारे समूचे वैदिक वांग्यमय में सरस्वती को बागीश्वरी, भगवती, शारदा, वीणावादनी और वाग्देवी सहित अनेक नामों से विद्या और बुद्धि प्रदाता देवी के रूप में पूजा गया है। ये कला और संगीत की देवी भी कहलाती है। हमारा जीवन सद्ज्ञान और विवेक से संयुक्त होकर शुभ भावनाओं की लय से सतत संचरित होता रहे, इन्हीं दिव्य भावों के साथ की गयी माँ सरस्वती की भावभरी उपासना हमारे अंतस में सात्विक भाव भर देती है। वासंती उल्लास प्रकृति के साथ मानव के अंतस में घुलकर सतत प्रवाहमान होता रहे, यही इस पर्व का मूल दर्शन है। सोलह कलाओं के पूर्णावतार योगेश्वर श्रीकृष्ण को वसंत का अग्रदूत माना जाता है। ब्रह्मवैवर्त पुराण के अनुसार सर्वप्रथम श्रीकृष्ण ने ही सरस्वती पूजन किया था-

आदो सरस्वती पूजा श्रीकृष्णेन् विनिर्मितः,

यत्प्रसादान्मुति श्रेष्ठो मूर्खो भवति पण्डितः।

भगवान श्रीकृष्ण की ही तरह मर्यादा पुरुषोत्तम प्रभु की भी पुनीत स्मृतियां वसंत पंचमी की महत्ता को रेखांकित करती है। राम कथा के उद्धरण कहते हैं कि रावण द्वारा माँ सीता के हरण के बाद श्रीराम जब उनकी खोज में दक्षिण की ओर जब दंडकारण्य पहुंचे तो वहां उनकी भेंट बनवासी भीलनी शबरी से हुई। वसंत पंचमी के दिन शबरी की कुटिया में पधार कर और उनके हाथ से उनके जूठे बेर खाकर उनको नवधा भक्ति का उपदेश देकर श्रीराम ने सामाजिक समरसता का अप्रतिम उदाहरण प्रस्तुत किया था।

ज्ञात हो कि वसंत ऋतु का शुभारम्भ बसंतपंचमी से होता है और होलिकोत्सव पर उल्लास की चरम परिणति के साथ करतोत्सव का आनन्द परिपूर्ण होता है। चूंकि वसंत ऋतु का मौसम अपने आप में एक अजब-सी खुमारी लिए होता है। इस अवधि में मन में काम भाव प्रेम की उमंगें जागृत होती है। नयी आशाओं एवं कामनाओं का जन्म होता है। ऐसे कामोद्दीपक काल में हमारे मनों में उमड़ती भावनाएं अनियंत्रित उच्छृंखल न हों, उन पर विवेक का अंकुश लगा रहे, सम्भवतः इसलिए हमारे मनीषियों ने इस पर्व पर ज्ञान व विवेक की देवी मां सरस्वती की आराधना का विधान बनाया। प्राचीनकाल से आज तक वसंत का यही तत्वदर्शन भारत की देवभूमि को अपनी भावधारा से आबाध रूप से सिंचित करता आ रहा है। देश के जाने माने आध्यात्मिक विचारक व मनीषी डॉ. प्रणव पांड्या जी कहते हैं, “जहां एक ओर सरस्वती विलुप्त नदी के रूप में भारत की गौरवशाली जन संस्कृति की प्रतीक है तो दूसरी ओर हमारी देवभूमि की सांस्कृतिक चेतना के विकास की भी ज्ञान ध्यान, संयम व विवेक के साथ सरस्वती पूजन का यह पर्व कला संस्कृति के रूप में जनमानस की आध्यात्मिक जिज्ञासा की प्यास तो बुझाता ही है, हर्षोल्लास के साथ मन की कोमल भावनाओं को भी तरंगित करता है।”

वसंत पंचमी से जुड़े ऐतिहासिक शौर्य प्रसंग

जानना दिलचस्प हो कि वसंत पंचमी का पावन दिन जहां हमें ज्ञान की अधिष्ठात्री देवी मां सरस्वती के विशेष पूजन अर्चन के लिये प्रेरित करता है वहीं यह पर्व भारत माता के कई महान रणबांकुरे बीरों के शौर्य व बलिदान को भी नमन करता है।

यह ऋतु पर्व विदेशी इस्लामिक आक्रमणकारी मोहम्मद गोरी को 16 बार पराजित कर उदारता दिखाते हुए हर बार जीवनदान दे देने वाले हिन्द शिरोमणि पृथ्वीराज चौहान के शौर्य व बलिदान से जुड़ा है। ऐतिहासिक तथ्यों के अनुसार 16 बार हारने के बाद जब 17वीं बार मोहम्मद गोरी ने पृथ्वीराज चौहान को छल के पराजित कर बंदी बनाकर काबुल (अफगानिस्तान) की, जेल में डालकर उन पर चर्चर अत्याचार करते हुए उनकी आंखे फुड़वा दी पर उनके हौसलों को नहीं डिगा पाया। कैदखाने में पृथ्वीराज की दयनीय हालत देखकर उनके अनन्य मित्र चंद्रबरदाई के हृदय को गहरा आघात लगा और उन्होंने पृथ्वीराज के साथ मंत्रणा कर गोरी से बदला लेने की पूरी योजना बना ली।

योजना के तहत चंद्रबरदाई ने मोहम्मद गोरी के सामने प्रस्ताव रथा कि उनके सम्राट शब्दभेदी बाण चलाने में पारंगत हैं। नेत्रहीन होने के बाद भी आप उनकी इस क्षमता का प्रदर्शन भरे दरबार में देख सकते हैं। गोरी को उसकी बात पर भारी आश्चर्य हुआ और वह पृथ्वीराज का कौशल देखने को तैयार हो गया। सभी प्रमुख ओहदेदारों व नागरिकों को आयोजन में आमंत्रित किया गया। निश्चित तिथि को दरबार लगा और गोरी एक ऊंचे स्थान पर अपने मंत्रियों के साथ बैठ गया। चूंकि पृथ्वीराज की आंखें निकाल दी गयी थीं, अतः उनको नियत स्थान पर लाकर उनकी बेड़ियां खोल उनके हाथों में धनुष बाण थमा दिया गया। पूर्व निर्धारित योजना के अनुसार ज्यों ही चंद्रबरदाई ने पृथ्वीराज का गुणगान करते हुए गोरी के बैठने के स्थान को चिन्हित करते हुए यह पंक्तिया उच्चारित की “चार बास, चौबीस गज, अंगुल अष्ठ प्रमाण, ता ऊपर सुल्तान है, चूको मत चौहान” पृथ्वीराज को गोरी की दिशा मालूम हो गयी और उन्होंने तुरंत बिना एक पल की भी देरी किये अपने एक ही बाण से गोरी को मार गिराया। चारों और भगदड़ और हाहाकार मच गया, इस बीच पृथ्वीराज और चंद्रवरदाई ने पूर्व निर्धारित योजना के अनुसार एक-दूसरे को कटार मास्कर अपने प्राण त्याग दिये। ऐतिहासिक दस्तावेजों के अनुसार यह तिथि 1192 ई. की बसंत पंचमी की थी।

इसी तरह लाहौर निवासी वीर बालक हकीकत राय का भी बसंत पंचमी का गहरा संबंध है। कहते हैं कि एक दिन मदरसे में पढ़ाई के दौरान जब कुछ देर के लिए शिक्षक कक्षा से बाहर गये तो हकीकत को छोड़ बाकी बच्चे शोरगुल मचाते हुए खेलने लगे। किसी बात पर कक्षा के मुस्लिम बच्चों ने दुर्गा मां की हंसी उड़ा दी। इस पर हकीकत को क्रोध आ गया और उसने कहा कि यदि मैं तुम्हारी बीबी फातिमा के बारे में कुछ कहूं, तो तुम्हें कैसा लगेगा? फिर क्या था, मुल्ला शिक्षक के वापस आते ही उन शरारती छात्रों ने शिकायत कर दी कि हकीकत ने फातिमा बीबी को गाली दी है। बात बढ़ते हुए काजी तक जा पहुंची मुस्लिम शासन में वही निर्णय हुआ, जिसकी अपेक्षा थी। आदेश हुआ कि हकीकत इस्लाम कबूल करे या मृत्युदंड। हकीकत ने मुसलमान बनना स्वीकार नहीं किया। परिणामतः उसे तलवार के घाट उतारने का फरमान जारी हो गया। कहते हैं उसके भोले मुख को देखकर जल्लाद के हाथ से तलवार गिर गयी। हकीकत ने तलवार उसके हाथ में दी और कहा कि जब मैं बच्चा होकर अपने धर्म का पालन कर रहा हूँ, तो तुम बड़े होकर अपने धर्म से क्यों विमुख हो रहे हो और वीर हकीकत राय वसंत पंचमी के दिन स्वधर्म के लिये बलिदान हो गये।

(साभार पांचजन्य)

और पढ़ें :स्वामी भारती कृष्ण तीर्थ और वैदिक गणित

Facebook Comments

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *