अंग्रेजों का न्यायपूर्ण शासन? – 1

 – प्रशांत पोळ

ज्ञात इतिहास में भारत पर आक्रांताओं के रूप में आने वालों में शक, हूण, कुषाण, मुसलमान, डच, पोर्तुगीज़, फ्रेंच, अंग्रेज़ आदि प्रमुख हैं। इनमें से सबसे ज्यादा समय तक भारत के विभिन्न हिस्सों पर शासन किया, विभिन्न मुस्लिम वंशों ने। ये लोग अत्यंत क्रूर तथा विभत्स थे। इन्होंने भारतीयों को जो यातनाएं दी हैं, उसकी मिसाल कहीं अन्य मिलना कठिन है। विजयनगर के सम्राट राजा रामराय का सर काटकर उसे बहती नाली के मुहाने पर लगाने वाले यही हैं। छत्रपति संभाजी महाराज की आंखें फोड़कर, उनकी चमड़ी उधेड़कर, उनको बर्बरतापूर्वक मारने वाले भी यही हैं। भाई मतिदास जी को आरी से चीरकर मारने वाले और गुरु तेग बहादुर जी का सर कलम करने वाले भी यही हैं। गुरु गोविंद सिंह जी के पुत्रों को दीवार में चुनवाकर मारने वाले भी यही हैं।

इसलिए जब अंग्रेज़, व्यापारी के रूप में आए और शासक बन गए, तो भारतीयों को वह मुस्लिम शासकों की तुलना में अच्छे लगे। प्रारंभ में अंग्रेज़ शासकों ने मुस्लिम शासकों जैसी क्रूरता और पाश्विकता नहीं दिखाई, इसलिए ‘अंग्रेज़ अच्छे’ यह धारणा बनती गई। उस पर, अंग्रेजों ने जो शिक्षा व्यवस्था बनाई, उससे अंग्रेजों का गुणगान होता रहा। ‘भारत जैसे पिछड़े देश को सुधारकर अंग्रेज़ उसका भला ही कर रहे हैं’, यह धारणा निर्माण की गई। दुर्भाग्य से स्वतंत्रता के बाद भी जो पाठ्यक्रम बनाया गया, उसने इसी धारणा को बल दिया!

किन्तु, अंग्रेज़ क्या वास्तव में भारत को सुधारने का उच्चतम ध्येय लेकर आए थे? क्या अंग्रेज़ सच्चे लोकतंत्र को मानने वाले, न्याय के पुजारी थे?

क्या अंग्रेज़ न्यायप्रिय थे, शांतिप्रिय थे, सभ्य थे, सुसंस्कृत (कल्चर्ड) थे? ऐसा उनके बारे में लिखा गया है। अनेकों बार कहा गया है।

किन्तु सच क्या है?

अंग्रेजों का असली चेहरा कौन सा था?

अंग्रेजों की इस गढ़ी हुई प्रतिमा के बिलकुल विपरीत।

सन् १७५७ में प्लासी के युद्ध में जीत के बाद, अंग्रेजों का बंगाल पर राज करने का रास्ता खुल गया। १७६५ के बक्सर युद्ध के बाद अधिकृत रूप से, ईस्ट इंडिया कंपनी बंगाल से राजस्व वसूल करने लगी।

अगले चार वर्षों में ही बंगाल में भीषण अकाल पड़ा। उस समय की बंगाल की जनसंख्या का लगभग एक तिहाई हिस्सा, अर्थात् एक करोड़ भारतीय, इस अकाल में मारे गए। ये मृत्यु भुखमरी से और अंग्रेजों की ज़्यादतियों के कारण हुई थी। इस अकाल में जनता को बचाने या बाहर निकालने के कोई प्रयास अंग्रेजों ने नहीं किए। उलटे, जो गरीब किसान जीवित थे, उनके साथ बड़ी ही सख्ती से, राजस्व की वसूली की गई।

अमेरिका के एक लेखक हैं, माइक डेविस। लेखक के साथ ही वे राजनीतिक कार्यकर्ता भी हैं। अनेक सम्मान प्राप्त डेविस, यूनिवर्सिटी ऑफ केलिफोर्निया में क्रिएटिव राइटिंग विभाग में प्रोफेसर हैं। इनकी एक चर्चित पुस्तक है – ‘लेट विक्टोरियन होलोकॉस्ट : अल निनो फेमाइन्स एंड द मेकिंग ऑफ द थर्ड वर्ल्ड’। सन २००१ में प्रकाशित पुस्तक में उन्होंने भारत में पड़े अकाल के बारे में भी लिखा है। वे लिखते हैं, “सन १७७० से १८९० के बीच के एक सौ बीस वर्षों में भारत में ३१ बड़े अकाल पड़े। और उसके पहले, पूरे दो हजार वर्षों में, बड़े अकालों की संख्या है मात्र १७ !”

अर्थात अंग्रेजों ने अकाल से लड़ने के लिए प्रबंध तो किए ही नहीं थे, उलटे भारतीयों की परंपरागत पद्धतियों को नष्ट किया, जो प्रकृति पर आधारित थी, और अकाल पड़ने से बचाने का काम करती थी। ऊपर से ऐसी विषम परिस्थिति में भी अंग्रेजों की क्रूरता सामने आ रही थी। गरीबों से, किसानों से बड़ी ही बेरहमी के साथ राजस्व वसूला जा रहा था।

माइक डेविस के अनुसार १८७६ से १८७८, के तीन वर्षों में बॉम्बे और मद्रास प्रेसीडेंसी में पड़े अकाल में ६० से ८० लाख भारतीयों की मौत हुई। कुछ ही वर्षों बाद, १८९६-१८९७ में फिर बॉम्बे, मद्रास प्रेसीडेंसी के साथ संयुक्त प्रांत और बंगाल में भी अकाल पड़ा। उसमें पचास लाख से ज्यादा लोग मारे गए। यही कहानी १८९९-१९०० के बॉम्बे प्रेसीडेंसी और सी पी – बेरार के अकाल में दोहराई गई।

संक्षेप में, अंग्रेजी शासन में अकाल पड़ने का क्रम चलता रहा। किन्तु अंग्रेजों ने अपनी पाश्विक नीति में कोई बदलाव नहीं किया। ईस्ट इंडिया कंपनी से शासन की बागडोर सीधे रानी विक्टोरिया के हाथों में आ गई। लेकिन अंग्रेजों की क्रूरता कम होने के बजाय, बढ़ती ही गई।

१९४३ के आने तक परिदृश्य काफी बदल चुका था। द्वितीय विश्वयुद्ध अपने चरम पर था। तीस लाख से ज्यादा भारतीय सैनिक, अंग्रेजों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर दुनिया के विभिन्न स्थानों पर दुश्मनों से लड़ रहे थे। यह बंगाल के अकाल का वर्ष था। यह भीषण अकाल था। लोग दाने-दाने को मोहताज हो रहे थे। उन दिनों विंस्टन चर्चिल इंग्लैंड के प्रधानमंत्री थे। उन्होंने बंगाल का बचा-खुचा अनाज, जहाज भर-भर कर युगोस्लाविया पहुंचाया, अपने सैनिकों के लिए! इस अकाल में तीस लाख से ज्यादा भारतीयों की मृत्यु हुई थी। इस पर चर्चिल की ने कहा था, “मैं भारतीयों से घृणा करता हूँ। वे जानवरों जैसे लोग हैं, जिनका धर्म भी पशुओं जैसा ही है। अकाल उनकी अपनी गलती थी, क्योंकि वे खरगोशों की तरह जनसंख्या बढ़ाने का काम करते रहे।”

इंग्लैंड में पार्लियामेंट के सदस्य रहे, इतिहासकार विलियम टॉरेन (William Torren) ने एक पुस्तक लिखी है, ‘एम्पायर इन एशिया’ (Empire in Asia)। इस पुस्तक में अवध के नवाब शुजाऊद्दोला के मरने के बाद (अर्थात सन १७७५ के बाद), अंग्रेजों ने उसकी बेगमों को कितनी पाश्विकता से लूटा, उसका चित्रण है। (पृष्ठ १२६-१२८)। मजेदार बात यह, कि शुजाऊद्दोला ने अपनी इन बेगमों की व्यवस्था, बड़े ही विश्वास के साथ अंग्रेजों पर सौंपी थी। इसलिए इस लूट/डकैती को संवैधानिक चोला पहनाने के लिए, अंग्रेजों ने तत्कालीन प्रधान न्यायाधीश, सर एलाइजाह इंपे को भी इसमें शामिल किया। इन न्यायाधीश महोदय ने, कलकत्ता से आकर, फैजाबाद की विधवा बेगमों पर, काशी नरेश चेत सिंह के साथ मिलकर, अंग्रेजों के विरोध में युद्ध छेड़ने का झूठा आरोप लगाया। फिर फैजाबाद के महलों को अंग्रेजों ने घेर लिया। बेगमों से कहा गया, “आप कैदी हैं। अपने तमाम जेवर, सोना, चांदी, जवाहरात हमें दे दीजिये।” बेगमों के मना करने पर उनके नौकरों को तड़पा-तड़पाकर मारा गया और उन्हें भूखा रखा गया। भयंकर यातनाएं दी गई। बेगमों को पानी तक पीने की इजाजत नहीं थी।

अपने नौकरों की क्रूरतापूर्ण मृत्यु देखकर, फैजाबाद की बेगमों ने, पिटारे भर-भर कर रखा हुआ अपना सारा खजाना अंग्रेजों को सौंप दिया। उन दिनों उसकी कीमत एक करोड़ बीस लाख रुपयों से भी ज्यादा आंकी गई थी। पूरे भारत में, ऐसी सैंकड़ों घटनाएँ मिलती हैं, जिनमें अंग्रेजों की लूट और डकैती के प्रत्यक्ष प्रमाण उपलब्ध हैं। ये सारी घटनाएं अंग्रेजों की न्यायप्रियता की धज्जियां उड़ाती हैं।

ईस्ट इंडिया कंपनी के एक अफसर, हेनरी थॉमस कोलब्रुक (Henry Thomas Colebrook) ने २८ जुलाई, १७८८ को एक पत्र अपने इंग्लैंड में रहने वाले पिता को लिखा है। ‘भारत में अंग्रेजी राज’ यह पुस्तक लिखने वाले सुंदरलाल जी ने इस पत्र को, अपनी पुस्तक में उद्धृत किया है। कोलब्रुक लिखते हैं, – “मिस्टर हेस्टिंग (गवर्नर जनरल वॉरेन हेस्टिंग) ने इस देश को ऐसे कलेक्टर और जजों से भर दिया है, जिनके सामने एकमात्र लक्ष्य धन कमाना है। ज्यों ही ये गिद्ध मुल्क के ऊपर छोड़े गए, उन्होंने कहीं कोई बहाना बनाकर और कहीं बिना बहाने के, भारतवासियों को लूटना शुरू कर दिया।”

बाद में संस्कृत के विद्वान बने कोलब्रुक आगे लिखते हैं, “वॉरेन हेस्टिंग की कूटनीति और उसके निर्लज्ज विश्वासघात का प्रभाव केवल राजाओं और बड़े लोगों पर ही नहीं पड़ा। जमींदारों की जमींदारियां छिन लेना, बेगमों को लूटना, रूहेलों का निर्वंश कर डालना, ये सब तो एक बार भूले जा सकते हैं। पर जो अत्याचार उसने गोरखपुर में किए, वे सदा के लिए ब्रिटिश जाति के नाम पर कलंक रहेंगे।”

सुंदरलाल जी ने अपने ‘भारत में अंग्रेजी राज’ इस पुस्तक में, इस विषय पर विस्तार से लिखा है।

गोरखपुर के अत्याचारों के विषय में ‘हिस्ट्री ऑफ ब्रिटिश इंडिया’ पुस्तक में इतिहासकार जेम्स मिल लिखता है कि सन् १७७८ में वॉरेन हेस्टिंग ने, अपने एक अफसर, कर्नल हैनेवे (Col। Hanaway) को कंपनी की नौकरी से निकालकर अवध के नवाब के यहां भेज दिया। नवाब पर दबाव डालकर, बहराइच और गोरखपुर जिलों का दीवानी और फौजी शासन, कर्नल हैनेवे के आधीन कर दिया। जेम्स मिल आगे लिखता है, “यह पूरा क्षेत्र, नवाब के शासन में खूब खुशहाल था। किन्तु कर्नल हैनेवे के अत्याचारों के कारण तीन साल के अंदर यह पूरा क्षेत्र वीरान हो गया।”

इस घटना का विस्तार से वर्णन किया है, सैयद नजमूल रझा रिजवी ने, ‘Gorakhpur Civil Rebellion in Persian Historiography’ पुस्तक में। कर्नल हैनेवे के विरोध में गोरखपुर में बड़ा जनांदोलन खड़ा हुआ, जिसे अंग्रेजों ने ‘विद्रोह’ का नाम दिया और बाद में इसे बड़ी नृशंसता से कुचला गया।

गोरखपुर जिले का राजस्व, पूरा वसूलने पर, उन दिनों छह से आठ लाख रुपये वार्षिक होता था। किन्तु कर्नल हैनेवे ने सन् १७८० में, बड़ी निर्दयता से इस जिले से १४,५६,०८८ रुपये वसूले। अर्थात प्रतिवर्ष के राजस्व से लगभग दोगुना! किस बर्बरता के साथ, गरीब किसानों को यातनाएं देकर उसने इतने रुपये वसूले होंगे, यह हम समझ सकते हैं। जमींदारों को राजस्व का २०% मिलता था, अपने क्षेत्र में व्यवस्थाएं बनाए रखने के लिए। यह लगभग डेढ़ लाख रुपये होता था। किन्तु कर्नल हैनेवे ने साढ़े चौदह लाख वसूल कर, जमींदारों के हाथों टिकाये मात्र पचास हजार रुपये!

ये पूरा राजस्व ईस्ट इंडिया कंपनी के खाते में नहीं गया। इन अधिकारियों ने आपस में मिल बांट कर खा लिया।

गोरखपुर की यह घटना अपवाद नहीं है। पूरे देश में यही चित्र था। पहले बंगाल, और सन् १८१८ के बाद सारे देश में अंग्रेजों का प्रशासन कमोबेश ऐसा ही रहा। इस अन्याय पर कोई सुनवाई नहीं थी। और यदि बार-बार न्याय के लिए अर्जी लगाई, तो सुनवाई का नाटक होता था, और सारे अंग्रेज़ अफसरों को निर्दोष करार दिया जाता था।

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