– रवि कुमार
नारनौल (महेंद्रगढ़) हरियाणा-राजस्थान की सीमा पर स्थित एक नगर है। आसपास किस भी दिशा में चलेंगे तो अधिकतम 15-20 किलोमीटर के बाद राजस्थान आ जाता है। मैं 2003 में वहां संघ प्रचारक के नाते गया। कार्यकर्ताओं-परिचितों के यहां सुख के प्रसंग होने पर निमंत्रण मिलता ही है। सभी स्थानों पर सम्पन्न कार्यक्रमों में भोजन आदि करवाने की पद्धति एक जैसी थी जिसकी आज कल्पना करना कठिन है। वह पद्धति थी – भोजन पंगत में बैठकर होगा और खाद्य पदार्थों के वितरण क्रम में मीठा सबसे पहले परोसा जाएगा। भोजन के मेन्यू में एक समान और सीमित संख्या के खाद्य पदार्थ सभी के यहां मिलते थे। अब यह प्रश्न मन में खड़ा होता है कि मीठा सबसे पहले क्यों परोसा जाता है? जबकि आजकल मीठा डेजर्ट के रूप में सबसे अंत में परोसा जाता है। दूसरा एक जैसे और सीमित संख्या के पदार्थ क्यों? जबकि आजकल सभी जगह प्रकारांतर रहता है और खाद्य पदार्थों की संख्या असीमित रहती है। वो सही था या आज वाला सही है इस प्रश्न पर विचार करेंगे तो बहुत कुछ ध्यान में आएगा। आइए विचार करते हैं …
आहार का कई प्रकार से वर्गीकरण किया जा सकता है। पहला प्रकार है – रसों के आधार पर। भारतीय आहार व्यवस्था में षडरस (छह रस) भोजन का वर्णन है। ये छह रस है – मधुर, अम्ल, लवण, कटु, तिक्त व कषाय। स्वाद की दृष्टि से – मधुर-मीठा, अम्ल-खट्टा, लवण-नमकीन, कटु-कडवा, तिक्त-तीखा एवं कषाय-कसैला। यह छह रस शरीर के पंच महाभूतों के परमाणुओं से मिलकर शरीर की धातुओं व अग्नियों विशेषकर जठराग्नि को प्रभावित करते हैं जोकि पाचन के लिए अति आवश्यक है। भारतीय आहार व्यवस्था में रसानुसार खाद्य पदार्थों को ग्रहण करने का क्रम है। सबसे पहले मधुररस (मीठे पदार्थ) का सेवन, भजन के मध्य में अम्ल, लवण रस युक्त द्रव और भोजन के अंत में तिक्त-कषाय द्रव्यों का सेवन करना चाहिए। प्रथम घन पदार्थ (रोटी-सब्जी) और बाद में द्रव पदार्थ (दाल-चावल) का सेवन हितकर होता है। मधुर रस जठराग्नि को प्रदीप्त करता है अतः सबसे पहले लेना चाहिए। भोजन के पश्चात डेजर्ट के नाम से खाए जाने वाले मीठे पदार्थ पाचन शक्ति को मंद करते है। अतः मीठे पदार्थ भोजनान्त में लेना हानिकारक है।
आहार के पाचन के लिए दो बातें महत्वपूर्ण है – एक है पाचन शक्ति और दूसरी है आहार की पाचकता। इन दोनों का मेल बिठाकर भोजन बनना चाहिए। इसी आधार पर महर्षि चरक के अनुसार मनुष्य के आहार के चार प्रकार बताए गए है –
१ खादित ( खाया जा सकने वाला)
२ प्राशय (प्राशन किया जाने वाला)
३ लेह्य (चाटकर लिया जा सकने वाला)
४ पेय ( पिया जाने वाला)
खादित आहार को दांत से जोर देकर चबाकर खाना पड़ता है। इसके दो प्रकारों में भक्ष्य आहार (लड्डू, मोदक आदि) को दांतों से कुतर कर और चर्व्य आहार (चिवड़ा, चने, मूंगफली आदि) को दाढ़ के दांतों से चबा कर खाया जा सकता है। प्राशय आहार (खिचड़ी, दलिया आदि) को अति अल्प प्रयत्न से चबाकर खाया जा सकता है। लेह्य आहार (श्रीखंड, मट्ठा आदि) को सीधा ही खाया जा सकता है, उसके लिए विशेष श्रम की आवश्यकता नहीं होती। पेय आहार को सरलता (दूध, विविध शरबत, कढ़ी, दाल आदि) से पी सकते हैं। उपरोक्त प्रकारों में पंच महाभूत तत्व अग्नि कम व अधिक मात्रा में होती है। उसी अनुसार उसका पाचन होता है। मनुष्य की आयु, स्वास्थ्य की स्थिति, पाचन की स्थिति, रोगावस्था के अनुसार उपरोक्त चार प्रकार के आहार देने का क्रम है। शिशु की पाचन शक्ति कम होती है और दांत पूर्ण विकसित नहीं होते है। अतः शिशुओं को अन्न-फल प्राशन करवाना ही उचित है। रोगी व्यक्ति की पाचन शक्ति कम होती है अतः उन्हें पेय आहार हितकर रहता है। आयु, स्वास्थ्य, पाचन स्थिति व रोगावस्था में विपरीत प्रकार का आहार हानिकारक व सही प्रकार का आहार हितकर रहता है।
ज्वर (बुखार) एक सामान्य बीमारी है। सामान्य जनजीवन में इसका अनुभव सभी मनुष्यों को होता हैं। एक प्राकृतिक चिकित्सक से सामान्य ज्वर के विषय में चर्चा हुई। कुछ मनुष्यों को वर्ष के एक या दो बार अथवा ऋतु परिवर्तन पर ज्वर होता ही है। ज्वर की यह नियमितता क्या ठीक है? चिकित्सक का उत्तर था कि यदि एक क्रम से ज्वर आता है तो अच्छा है। अब चिकित्सक ही यह कहे कि ज्वर आना अच्छा है तो मन में प्रश्न अवश्य आएगा। चिकित्सक से यह प्रश्न किया कि ज्वर आना अच्छा है, आप ऐसा क्यों कहा रहे है? इस पर चिकित्सक का उत्तर सभी के लिए विचारणीय है।
प्राकृतिक चिकित्सक का उत्तर था – “मनुष्य जल, वायु व आहार रूप में खाद्य पदार्थ ग्रहण करता है उसके साथ कुछ विषैले पदार्थ शरीर में जाते रहते हैं। इन विषैले पदार्थों की साथ-साथ सफाई होती रहती हैं। परंतु शरीर में जब विषैले पदार्थों की मात्रा अधिक हो जाती हैं तो शरीर उन्हें बाहर निकलना चाहता हैं और अपना तापमान बढ़ा देता है। उस दौरान पसीने में बदबू, मूत्र पीला, शौच में दुर्गंध, जीभ में अजीब सा स्वाद आदि अनुभव होता है। अर्थात शरीर से बाहर निकलने के जितने मार्ग हैं, विषैले पदार्थ उनसे बाहर निकलते रहते हैं। हम पीसीएम (Paracetamol) लेकर तापमान कम कर लेते हैं और विषैले पदार्थ निकलने से रह जाते हैं। ऐसी अवस्था में यदि विश्राम किया जाए और द्रव्य पदार्थ यानि गर्म पानी, नींबू, शहद, खिचड़ी, दलिया आदि का अधिक सेवन किया जाए तो बिना कोई औषधि लिए दो-तीन दिन में आप स्वस्थ हो जाएंगे।” बाद में यह प्रयोग मैंने स्वयं के ज्वर ग्रसित होने पर करके देखा तो उचित परिणाम मिला।
इसी क्रम में सात्त्विक, राजसी एवं तामसिक आहार का वर्णन भी भारतीय शास्त्रों में मिलता है। सामान्य जीवन में भी सात्त्विक भोजन की चर्चा सर्वत्र होती है। जो सरलता से पाचन योग्य हो, जिससे अधिकतम रस बनता हो, जो स्थिरता प्रदान करता है और जो मन को प्रसन्न बनाता हो उसे सात्त्विक आहार कहा जाता है। जिस भोजन में अत्यधिक मिर्च-मसालों का उपयोग हो, तीखा, चटपटा, खट्टा, खारा, भूत गर्म, रुखा, आँख व नाक में पानी लाने वाला राजसी आहार है और जो भोजन बासी, बिगड़ा हुआ, अपवित्र, जूठा और अधपका हो उसे तामसिक आहार कहा जाएगा। तामसिक आहार ठीक से पाचन तो होता ही नहीं है बल्कि पाचन शक्ति को भी नुक्सान पहुंचाता है। आजकल जंक फ़ूड, फ़ास्ट फ़ूड एवं आहार के सामान्य नियमों को बिगाड़ कर बनाया हुआ भोजन तामसिक आहार की श्रेणी में आता है।
सामान्य प्रचलित कहावत है कि ‘जैसा खाए अन्न, वैसा हो मन’। सात्त्विक आहार का सेवन करने से आयु, बल, बुद्धि, सुख और प्रसन्नता में वृद्धि होती है। राजसी आहार से दुःख, शोक और अस्वास्थ्य बढ़ता है। तामसिक आहार से जड़ता, मूढ़ता, आलस्य और प्रमाद बढ़ता है।
सन्दर्भ – चरक संहिता, आहार शास्त्र (पुनरुत्थान प्रकाशन सेवा ट्रस्ट)
(लेखक विद्या भारती हरियाणा प्रान्त के संगठन मंत्री है और विद्या भारती प्रचार विभाग की केन्द्रीय टोली के सदस्य है।)
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