– प्रशांत पोळ
पारे की खोज किसने की? इस प्रश्न का निश्चित एवं समाधान कारक उत्तर कोई नहीं देता। पश्चिमी दुनिया को सत्रहवीं शताब्दी तक पारे की पहचान भी नहीं थी। अर्थात् मिस्र के पिरामिडों में ईस्वी सन् 1800 वर्ष पूर्व पारा रखा जाना पाया गया है।
पारा जहरीला होता है, इस बारे में सभी एकमत हैं। इसीलिए 140 से अधिक देशों ने पारे का समावेश करने वाली भारतीय आयुर्वेदिक औषधियों पर तीन वर्ष पहले प्रतिबंध लगा दिया था, जो आगे चलकर हटा लिया गया।
मजे की बात यह है कि जहरीला माना जाने वाला पारा, ईसा से ढाई हजार वर्षों पहले तक भारतीय ऋषियों एवं चिकित्सकों द्वारा भिन्न-भिन्न क्षेत्रों में उपयोग किया जाता रहा। ईसा से पाँच सौ वर्षों पूर्व इसका उपयोग आयुर्वेद में किया जाता था, यहाँ तक कि खाने के माध्यम से ली जाने वाली औषधियों में भी! अर्थात् पश्चिमी दुनिया जिस पारे से तीन सौ वर्ष पहले तक पूर्ण रूप से अनजान थी, ऐसे जहरीले पारे का उपयोग ढाई-तीन हजार वर्षों पूर्व भारत के लोग औषधि के रूप में करते थे, यही अपने-आप में एक बड़ा आश्चर्य है। और इस प्रकार औषधि के रूप में पारे का उपयोग करते समय उसे पूरी तरह से ‘प्रोसेसिंग’ करके काम में लिया जाता था, यह भी बहुत महत्वपूर्ण है।
हिन्दू संस्कृति के अनुसार जन्म से लेकर मृत्यु तक मनुष्य पर सोलह संस्कार किए जाते हैं, ठीक इसी प्रकार पारे पर भी अठारह प्रकार के संस्कार करने के बाद ही वह औषधि के रूप में सेवन करने योग्य निर्मित होता है। यह अठारह संस्कार निम्नलिखित हैं –
१. स्वेदन, २. मर्दन, ३. मूर्च्छन, ४. उत्थापन, ५. पातन, ६. रोधन, ७. नियामन, ८. संदीपन, ९. गगनभक्षणमान, १०. संचारण, ११. गर्भद्रुति, १२. बाह्यद्रुति, १३. जारण, १४. ग्रास, १५. सारण, १६. संक्रामण, १७. वेध, १८. शरीरयोग।
वाग्भट्ट आचार्य द्वारा लिखित ‘रस रत्न समुच्चय’ नामक ग्रन्थ में पारे से औधधि का उपयोग करने के बारे में विस्तार से लिखा गया है। सामान्यतः यह ग्रन्थ ईस्वी सन् 1300 के आसपास लिखा हुआ माना जाता है। अर्थात् जो ज्ञान पहले से ही ज्ञात था, उसे तेरहवीं/चौदहवीं शताब्दी में वाग्भटाचार्य ने शब्दांकित करके, विस्तार से समझाकर हमारे समक्ष रखा है। (ये वाग्भट्ट अलग हैं, पाँचवी शताब्दी में ‘अष्टांग ह्रदय’ नामक आयुर्वेद से परिपूर्ण ग्रन्थ लिखने वाले वाग्भट्ट दूसरे हैं)।
इस ग्रन्थ में विभिन्न प्रकार की प्रक्रियाओं, विधियों के बारे में विस्तारपूर्वक लिखा गया है। अर्थात् आज से लगभग दो – ढाई हजार वर्ष पहले तक भारतीयों को यह ‘रसायनशास्त्र’ बड़े ही विस्तार से मालूम था एवं हमारे पूर्वजों ने व्यवस्थित पद्धति से इस ज्ञान का विकास किया था।
‘रस रत्न समुच्चय’ में दी गई जानकारी के अनुसार दोला यंत्र, पातना यंत्र, स्वेदनी यंत्र, अधःपतन यंत्र, कच्छप यंत्र, जारणा यंत्र, विद्याधर (उर्ध्वपातन) यंत्र, सोमानल यंत्र, बालुका यंत्र, लवण यंत्र, हंसपाक यंत्र, भूधर यंत्र, कोष्टी यंत्र, वलभी यंत्र, तिर्यकपातन यंत्र, पालिका यंत्र, नाभी यंत्र, इष्टिका यंत्र, धूप यंत्र, स्वेदन (कंदुक) यंत्र, तत्पखाल यंत्र… ऐसे अनेक यंत्रों का उपयोग ‘रसशाला’ में किया जाता था। इन तमाम यंत्रों द्वारा पारद (पारे), गंधक इत्यादि पर रासायनिक प्रक्रिया करते हुए औषधियों का निर्माण किया जाता था।
नागार्जुन ने ‘रस रत्नाकर’ ग्रन्थ में सिनाबार नामक खनिज से पारद (पारा) निकालने हेतु उसकी आसवन विधि का विस्तार से उल्लेख किया है। ऐसी ही विधि ‘रस रत्न समुच्चय’ एवं आगे चलकर चरक/सुश्रुत की संहिताओं में भी देखी जा सकती हैं। इसमें आसवन प्रक्रिया के लिए ‘ढेकी’ यंत्र का उपयोग करने के बारे में बताया गया है। मजे की बात यह है कि आज जिस आधुनिक पद्धति से पारे का निर्माण किया जाता है, वह विधि ठीक इसी ग्रन्थ में दी गई विधि के समान है, अंतर केवल इतना है कि साधन आधुनिक हैं, लेकिन प्रक्रिया आज भी वही है!
यह बहुत ही महत्वपूर्ण है। ईसा से पांच-छह सौ वर्ष पहले हमारे पूर्वजों ने अत्यंत व्यवस्थित, well defined, systematic ऐसी अनेक रासायनिक प्रक्रियाओं का उपयोग करना आरम्भ कर दिया था, जिसका मानकीकरण (standardization) उसी कालखंड में हो चुका था।
आचार्य सर प्रफुल्लचंद्र राय (सन् 1861 से 1944) को आधुनिक समय का आद्य रसायनशास्त्रज्ञ कहा जाता है। इन्हीं के द्वारा भारत की पहली औषधि निर्माण कम्पनी ‘बेंगाल केमिकल्स एंड फार्मास्युटिकल’ की स्थापना की गई थी। अंग्रेजों के श्रेष्ठी वर्ग में भी इनका बहुत सम्मान किया जाता था। इन्हीं प्रफुल्लचंद्र राय ने एक बहुत ही उत्तम पुस्तक लिखी है – ‘हिन्दू केमिस्ट्री’। इस पुस्तक में उन्होंने स्पष्ट रूप से यह तथ्य रेखांकित किया है कि रसायन शास्त्र के निर्माण में हमारे हिन्दू पूर्वज बहुत ही उन्नत थे। इसी पुस्तक में उन्होंने वेदों में लिखे हुए भिन्न-भिन्न रसायनों का उल्लेख, अणु/परमाणु का विस्तृत विवेचन, चरक एवं सुश्रुत ऋषियों द्वारा रसायनों के बारे में किये गए विस्तृत प्रयोगों के बारे में विस्तार से लिखा है। उस कालखंड में उपलब्ध बालों को रंगने की कला से लेकर पारे जैसे घातक रसायन पर किए गए प्रयोगों तक के अनेक सन्दर्भ इस पुस्तक में प्राप्त होते हैं। धातुशास्त्र के बारे में भी इस पुस्तक में उन्होंने लिखा है।
1904 में लिखी गई इस पुस्तक ने आयुर्वेद एवं प्राचीन भारतीय रसायन शास्त्र की ओर पश्चिमी शोधकर्ताओं के देखने का दृष्टिकोण ही बदलकर रख दिया।
हमारे वेदों में रसायन शास्त्र संबंधी अनेक उल्लेख प्राप्त होते हैं। आयुर्वेद में अश्म्न, मृत्तिका (मिट्टी), सिकता (बालू, रेत), अयस (लोहा अथवा कांसा), श्याम (तांबा), सीस (सीसा) की मदद से किए गए विभिन्न प्रयोगों के उदाहरण मौजूद हैं।
तैत्तिरीय संहिता के भाष्यकार, ‘सायण’ ने श्याम का अर्थ काला लोहा के रूप में किया है। यजुर्वेद के एक मंत्र में अयस्ताप (Iron Smelter) का भी उल्लेख है। लोहे के खनिज को लकड़ी /कोयले की सहायता से कैसे गर्म करके लोहा धातु तैयार की जाती है, इसका वर्णन किया गया है। अथर्ववेद में भी सीसा नामक धातु पर ‘दघत्यम सीसम’ नामक एक पूरा सूक्त लिखा गया है। इसके माध्यम से सीसे के बने हुए छर्रे युद्ध में उन दिनों उपयोग किए जाते थे, यह भी ध्वनित होता है।
प्राचीन काल में यज्ञशाला यही इस देश की मूल रसायन शाला हुआ करती थीं। तैत्तिरीय संहिता में यज्ञशाला/रसायनशाला में उपयोग किए जाने वाले विभिन्न उपकरणों की सूची दी गई है –
ईष्य – ईंधन
बर्ही – फुँकनी अथवा Straw
वेदी / घिष्ण्य – आग उत्पन्न करने का स्थान, जहाँ से रासायनिक प्रक्रिया के लिए लगने वाली भट्टियों का निर्माण हुआ।
स्रुक – चमचे
चमस – गिलास / पात्र
ग्रावस – इमाम-दस्ते का लोहे का दस्ता
द्रोण, कलश – रसायन रखने वाले लकड़ी का पात्र
आघवनीय – रसायनों का मिश्रण करने वाले पात्र
यह सूची बहुत ही लंबी-चौड़ी है। परन्तु इससे यह स्पष्ट होता है कि उस वैदिक काल में शास्त्रीय पद्धति से तैयार की गई रसायन शालाएं बड़ी संख्या मौजूद थी, जहाँ कौन सी वस्तुएँ, कौन से बर्तन होने चाहिए यह निश्चित होता था। इसी प्रकार रसायन तैयार करने की प्रक्रिया भी एकदम निश्चित एवं तय रहती थी।
शतपथ ब्राह्मण, ऋग्वेद, यजुर्वेद, अथर्ववेद इत्यादि ग्रंथों में विभिन्न रसायनों एवं उनके विविध क्षेत्रों में होने वाले उपयोग संबंधी विवेचन स्पष्ट दिखाई देता है।
जरा विचार कीजिए, कि उस कालखंड में विश्व के किसी भी क्षेत्र में, किसी भी देश में रसायन शास्त्र के सम्बन्ध में सुस्पष्ट, व्यवस्थित एवं सम्पूर्ण प्रक्रिया सहित किया गया विवेचन कहीं दिखाई-सुनाई देता है? उत्तर नकारात्मक ही है। हालाँकि मिस्र में कुछ-कुछ उल्लेख जरूर प्राप्त होते हैं, तथा चीन में भी चीनियों द्वारा अनेक रसायनों पर उस कालखंड में काम किया गया है। परन्तु इन दो उदाहरणों को छोड़कर अन्य किसी भी देश में रसायन शास्त्र विषय में भारत के समान उन्नत अवस्था दिखाई नहीं देती है।
ग्यारहवीं शताब्दी में चक्रपाणि दत्त ने ‘चक्रदत्त’ नामक ग्रन्थ लिखा है। इस ग्रन्थ में वे प्राचीन जानकारियों को शब्दबद्ध करके सुसूत्र तरीके से हमारे सामने लाते हैं। इस ग्रन्थ में उन्होंने ताम्र-रसायन बनाने की विधि दी हुई है। पारा, तांबा और अभ्रक पर रासायनिक प्रक्रिया करते हुए उस पर गंधक की परत चढ़ाकर ताम्र-रसायन कैसे तैयार किया जाता है, यह विस्तारपूर्वक समझाया गया है। इसी पद्धति से बनाए जाने वाले ‘शिलाजीत-रसायन’ का भी विवरण दिया गया है।
चक्रपाणि के दो सौ वर्षों पश्चात शारंगधाराचार्य द्वारा लिखी गई, ‘शारंगधर संहिता’ में अनेक रसायन प्रक्रियाओं का उल्लेख किया गया है। हालांकि उन्होंने प्रारंभ में ही लिख दिया है कि प्राचीन ऋषि-मुनियों ने अपनी-अपनी संहिताओं में जो श्लोक दिए हुए हैं, एवं अनेक शोधकर्ताओं ने जिनके माध्यम से सफलता प्राप्त की है, ऐसे सभी श्लोकों का इसमें संकलन किया गया है। इस संहिता में आसव, काढ़ा इत्यादि बनाने की रासायनिक प्रक्रिया का अत्यंत विस्तारपूर्वक विवरण दिया गया है।
ये, अथवा ऐसे अनेक ग्रंथों में कणाद ऋषि के अणु/परमाणु सिद्धांत का उल्लेख भी किया हुआ दिखाई देता है। कणाद ऋषि ने कहा है कि एक प्रकार के दो परमाणु संयुक्त होकर ‘द्विनूक’ का निर्माण हो सकता है। द्विनूक का अर्थ वही है, जो आधुनिक वैज्ञानिकों ने ‘बाइनरी मॉलिक्यूल’ के रूप में परिभाषित किया है।
प्राचीन भारत में रासायनिक प्रक्रिया के सम्बन्ध में बहुत सी जानकारी थी। इसी लेखमाला में ‘अदृश्य स्याही का रहस्य’ नामक लेख में, भूर्जपत्र को पानी में डालने पर दिखाई देने वाली स्याही का वर्णन किया गया है। इस प्रकार की अदृश्य स्याही का निर्माण करते समय उस प्राचीन काल में अनेक प्रयोग, अनेक रासायनिक प्रक्रियाओं का पालन किया गया होगा। वातावरण में मौजूद आर्द्रता, ऑक्सीजन, अनेक अम्लीय/क्षारीय पदार्थों के साथ धातु का संपर्क होने के बाद होने वाली प्रक्रियाओं, एवं उससे विभिन्न धातुओं के संरक्षण के उपाय… ये सारी महत्त्वपूर्ण जानकारियाँ उस समय भी ऋषियों को पता थीं।
‘याज्ञवल्क्य स्मृति’ में धातुओं को शुद्ध करने की प्रक्रिया दी गई है। ‘रसार्णव’ में कहा गया है कि सीसा, लोहा, तांबा, चाँदी एवं स्वर्ण जैसी धातुओं में स्व-संरक्षण की प्रवृत्ति इसी क्रमानुसार कम होती जाती है, और मजे की बात यह कि यह बात आज के आधुनिक रसायन शास्त्र के अनुसार भी सही है।
चूँकि भारतीय लोगों ने कभी अपने संपन्न रसायन शास्त्र की विरासत को आग्रह से दुनिया के सामने नहीं रखा, इसलिए अब कोई भी आता है, और रसायनशास्त्र की खोज का दावा करता है। मुस्लिम वेब साईट्स से इन दिनों यह प्रचार किया जा रहा है कि जाबिर बिन हियान यह रसायन शास्त्र के सबसे पहले जनक थे। सन् 733 में जन्मे व्यक्ति को मुस्लिम जगत, ‘रसायन शास्त्र का पिता’ कह रहा है।
यह सच है कि आज आधुनिक कालखंड में रसायन शास्त्र ने अत्यधिक प्रगति की है। परन्तु आज से लगभग दो-ढाई हजार वर्ष पूर्व रसायन शास्त्र के मूलभूत सिद्धातों को प्रतिपादित करते हुए, अत्यंत व्यवस्थित एवं परिपूर्ण तरीके से डॉक्युमेंटेड सिस्टम भारत में कार्यरत थी, जिसके माध्यम से अनेक क्षेत्रों में रासायनिक प्रक्रियाओं द्वारा अनेक कार्य किए जाते थे। औषधि शास्त्र, खनिज शास्त्र, धातुशास्त्र जैसे अनेक क्षेत्र थे, जिनमें रासायनिक प्रक्रिया अति-आवश्यक थीं। खास बात यह कि सभी महत्वपूर्ण रसायन, जैविक स्रोतों से प्राप्त किए जाते थे। यह प्रक्रिया पूर्णतः प्राकृतिक पद्धति से चलती थीं।
विशेष यह कि हमारे पूर्वजों ने इतनी महान विरासत हमारे लिए रखी हुई है कि आज भी उनमें से अनेक प्रक्रियाओं का सटीक अर्थ निकालना हमारे लिए संभव नहीं हो पाया है। अर्थात् यह सिद्ध है कि प्राचीन रसायन शास्त्र का गंभीर अध्ययन किया जाना आज के समय की नितांत आवश्यकता है…!!
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It is unthinkable for the world that our ancestors were so cultured with such unfathomable depth of knowledge. But we are so unfortunate that the truth was kept away from us for such a long period of time intentionally which is unpardonable. . The truth must come out through hi story so that our next generation will not be mislead like their fathers and forefathers. Really it is unfortunate and painful for us.