शिक्षक राष्ट्र निर्माता बनें !

 – वासुदेव प्रजापति

आज शिक्षक से राष्ट्र निर्माता बनने की अपेक्षा करना भले ही आतिश्योक्त्तिपूर्ण लगता होगा, किन्तु वास्तविकता यही है कि भारत राष्ट्र को आज इसकी नितांत आवश्यकता है। हमारे यहाँ शिक्षक सदैव राष्ट्र की भावी पीढ़ी का निर्माता रहा है। और यह मान्यता रही है कि जैसा भावी पीढ़ी का निर्माण होगा, वैसा ही राष्ट्र बनेगा। अत: इस विषय में आगे बढ़ने से पूर्व हम ‘शिक्षक’ एवं राष्ट्र इन दोनों अवधारणाओं को भारतीय दृष्टिकोण से समझना होगा।

तमसो मा ज्योतिर्गमय : आज सम्पूर्ण विश्व में अज्ञान जनीत समस्याएं फैली हुई है। अर्थात् सभी समस्याओं की जड़ में अज्ञान विद्यमान है। इस अज्ञान तक जाने के लिए हमें भारतीय सृष्टि निर्माण की प्रक्रिया को समझना होगा। सृष्टि निर्माण हेतु परब्रह्म परमात्मा जो अब तक एक था, वह दो भागों में विभक्त हुआ। अर्थात् एक से दो बना, एक युग्म हुआ। विद्वान इस युग्म को भिन्न-भिन्न नामों से परिभाषित करते हैं। कोई उन्हें भ्रम और माया कहता है, कोई उन्हें पुरुष और प्रकृति बताता है, तो कोई उन्हें जड़ और चेतन कहकर समझता है। सृष्टि उत्पत्ति के समय ही एक और युग्म बना, ज्ञान और अज्ञान का यह युग्म कैसा है यह युग्म परस्पर जुड़ा हुआ है, पूरक है किन्तु स्वभाव में बिलकुल विपरीत है। युग्म के दोनों पक्ष एक दुसरे के बिना अधूरे हैं, दोनों मिलकर ही पूर्ण होते हैं। एक के कारण ही दुसरे का अस्तित्व है। इसलिए पुरे विश्व में ज्ञान और अज्ञान दोनों ही विद्यमान हैं। शंकराचार्य जी सृष्टि युग्म में एक को सत्य और दुसरे को असत्य बताते हैं या मिथ्या मानते हैं। उनके अनुसार भ्रम सत्य है और माया मिथ्या है। ठीक इसी तरह हमें ज्ञान और अज्ञान को देखना चाहिए। ज्ञान सत्य है और अज्ञान असत्य  है। हमारे पूर्वजों ने हमें जीवन यात्रा का एक सूत्र दिया है – ‘तमसो मा ज्योतिर्गमय’ अर्थात् हमे अन्धकार से प्रकाश की और बढ़ना है। असत्य से सत्य की ओर, अज्ञान से ज्ञान की यात्रा करनी है। यही जीवन यात्रा का लक्ष्य है। इस लक्ष्य को पाने के लिए ज्ञान की साधना आवश्यक है। शिक्षक इस ज्ञान साधना का साधक है।

शिक्षक की भारतीय अवधारणा : इस जीवन यात्रा को सुगम बनाना शिक्षा का काम है। शिक्षा देने वाला कारक तत्व शिक्षक  है। शिक्षा में शिक्षक की भूमिका सर्वाधिक महत्वपूर्ण होती है। शिक्षा एक अमूर्त संकल्पना है, उसे मूर्त रूप शिक्षक ही देता है। शिक्षक को  ही हम गुरु भी कहते हैं। हमारी यह मान्यता है कि बिना गुरु के ज्ञान नहीं मिलता – “बिन गुरु ज्ञान न होए गोपाला” इस अर्थ में गुरु अज्ञानी को ज्ञान हस्तांतरित कर उसे ज्ञानी बनाते हैं। अर्थात्त शिक्षक शिक्षा क्षेत्र का अधिष्ठाता है। इस लिए शिक्षक का स्थान सर्वोपरि है। हमारे यहाँ गुरु रूपी शिक्षक को भगवान से भी पहले का स्थान दिया गया है –

गुरु गोबिंद दोउ खड़े काके लागू पाय

बलीहारी गुरु आपने गोबिंद दियो बताये  । ।

इसलिए भारत में शिक्षक नर को नारायण बनाने वाला है। ऐसे शिक्षक से यह अपेक्षा की गयी है कि वह विद्यार्थी के प्रति अपनत्व रखने वाला हो अर्थात् विद्यार्थी को अपना मानसपूत्र माने। अपने जीवन में ज्ञान को सर्वोपरि स्थान दे अर्थात् ज्ञान की साधना करे। शिक्षक विद्यार्थी को आचार्य बन अपने आचरण से सिखावे। साथ में धर्म व संस्कृति को जीवन में उतारे। शिक्षक के जीवन में ये सभी गुण आवे इसकी चिंता राष्ट्रनायकों को आवश्यक रूप करनी चाहिए।

राष्ट्र की भारतीय अवधारणा : शिक्षक की अवधारणा के साथ-साथ राष्ट्र की अवधारणा स्पष्ट होना अति आवश्यक है। हम पश्चिमी प्रभाव के कारण राष्ट्र को देश कहने लगे हैं। देश एक राजनैतिक इकाई है, जबकि राष्ट्र संस्कृति इकाई है। प्रत्येक देश में निवास करने वाली एक प्रजा होती है। उस प्रजा का अपना जीवन दर्शन होता है। वह प्रजा जीवन तथा जगत को जिस दृष्टि से देखती है, वह उस प्रजा का जीवन दर्शन कहलाता है। भिन्न-भिन्न देशों की प्रजाओ का जीवन दर्शन भिन्न-भिन्न होता है। उदाहरण के लिए भारत की प्रजा जन्म-जन्मान्तर को मानती है और अनेक जन्मो में जीवन एक होता है, इस तथ्य में विश्वास करती है। जबकि इंग्लैंड की इसाई प्रजा  जन्म-जन्मान्तर को नही मानती। भारतीय प्रजा इस सचराचर सृष्टि के मूल में एकत्व को देखती है। जबकि इंग्लैंड की प्रजा उसमें भिन्न्तव को देखती है। इस भिन्न जीवन दर्शन के कारण ही एक देश दुसरे देश के भिन्न होता है। अत: राष्ट्र के मूल में जीवन दर्शन ही मुख्य घटक है।

भोगोलिक दृष्टि से अलग-अलग भूभाग देश कहलाते हैं। समुद्रों के कारण जो भूभाग एक दुसरे से अलग होते हैं, वे महाद्वीप कहलाते हैं। जो भूभाग पर्वतों के कारण अलग होते है वे देश कहे जाते हैं। उदाहरण  के लिए ऑस्ट्रेलिया एक महाद्वीप है जबकि भारत एक देश है। यह उसकी भोगोलिक पहचान है। भारत एक सर्वभोमिक लोक-तांत्रिक देश है, यह उसकी राजनैतिक व सांस्कृतिक पहचान है। यह पहचान ही उसे राष्ट्र बनाती है। एक राष्ट्र के रूप में भारत एक  भू-सांस्कृतिक  इकाई है। अर्थात् भारत का भू भाग, भारत की प्रजा और उसका जीवन दर्शन मिलकर भारत एक राष्ट्र बनता है।

राष्ट्र के भू-भाग और जीवन दर्शन में जीवन दर्शन का होना आवश्यक है। भू-भाग तो कम-अधिक होता रहता है। भारत का भू-भाग एक समय में इरान और इराक तक था। आज वह जम्मू-कश्मीर और पंजाब तक सिमट गया है। हो सकता है आने वाले समय में वह फिर से बढ़ जाए। किन्तु जब तक जीवन दर्शन रहता है, तब तक राष्ट्र भी रहता है। जीवन दर्शन के लुप्त होते ही राष्ट्र भी लुप्त हो जाता है। जबकि भू-भाग होने पर भी अगर जीवन दर्शन और उसके अनुसरण में बनी संस्कृति बदल जाती है तो वह राष्ट्र भी बदल जाता है। जैसे आज यूनान, मिश्र, रोम का भू भाग तो है परन्तु उनकी संस्कृति बदल जाने से वे प्राचीन राष्ट्र नहीं रहे।

हमारी कठिनाई यह है कि हम राजकीय इकाई और सांस्कृतिक इकाई को एक ही मानते हैं। हम केवल राजकीय इकाई को ही जानते हैं सांस्कृतिक इकाई को जानते ही नहीं। जबकि सांस्कृतिक इकाई ही युगों तक टिकी रहती है, राजकीय इकाई तो बदलती रहती है। सार रूप में यही कहा जा सकता  है कि राष्ट्र एक ऐसा भू-भाग है, जहाँ प्रजा का उसके लिए मातृत्व स्नेह होता है। वह प्रजा की मातृभूमि होती है यही उस राष्ट्र की सांस्कृतिक पहचान है।

शिक्षा का संदर्भ राष्ट्रीय : शिक्षा केवल व्यक्ति के लिए नहीं होती, वह राष्ट्र के लिए भी होती है। शिक्षा का संदर्भ सदैव राष्ट्रीय होता है। शिक्षा व्यक्ति निर्माण के द्वारा राष्ट्र निर्माण के लिए होती है। जब तक राष्ट्र सुरक्षित होता है तब तक व्यक्ति भी सुरक्षित रह सकता है। अत: राष्ट्र के जिन-जिन क्षेत्रों में प्रजा जन निवास करते हैं उन सबके सन्दर्भ में विचार होना चाहिए। जैसे – ग्रामों, वनों, गिरी-कन्दराओं तथा झुग्गी-झोपड़ियों में निवास करने वाले सभी प्रजा जनों की शिक्षा पर विचार नहीं होगा, तब तक शिक्षा राष्ट्र के लिए नहीं होगी।

इसी प्रकार राष्ट्र के समस्त प्रजा-जनों  अभ्युदय और नि:श्रेयस का विचार भी शिक्षा में नहीं होगा तथा राष्ट्र की सुरक्षा, समृधि व संस्कृति की शिक्षा नही दी जाएगी तब तक शिक्षा राष्ट्र निर्माण करने वाली नहीं बन पाएगी। आज की शिक्षा तो एकांगी है, वह मात्र विद्यार्थी के कैरिएर को बनाने वाली है अथवा बेरोजगारों की भीड़ बढ़ाने वाली है। ऐसी शिक्षा राष्ट्रीय शिक्षा बनाती है। जब शिक्षा राष्ट्र के लिए होगी, तभी शिक्षक भी राष्ट्रनिर्माता की भूमिका को अपनाएंगे।

यह सच है कि आज का शिक्षक राष्ट्र निर्माता की मानसिकता नहीं रखता। उसे तो केवल अपने वेतन से लेना-देना है। वह केवल अर्थ का शिक्षक है, समाज या राष्ट्र का शिक्षक नहीं है। उसे राष्ट्र का शिक्षक बनने के लिए कुछ आधारभूत कार्य करने होंगे :-

  1. आज के शिक्षक को अपने पाठ्यक्रम से ऊपर उठाना होगा। उसे ज्ञान की उपासना करनी होगी, ज्ञान साधक बनना होगा और ज्ञान की परम्परा को आगे बढ़ाना होगा।
  2. अंग्रेजों के षड्यंत्र पूर्वक भारतीय ज्ञान निधि को कक्षा-कक्ष की शिक्षा से बाहर कर दिया था, उसे पुन: शिक्षा की मुख्यधाराओं में लाना होगा और उसे दैनदिन के अध्ययन का अध्यापन का विषय बनाना होगा। शिक्षक के द्वारा कक्षा कक्ष में जो पढ़ाया जाता है, उससे ही विद्यार्थी का मानस व दृष्टिकोण बनता है। आज कक्षा कक्षों में मानव पाश्चात्य ज्ञान पढ़ाया जाता है, इसलिए उनका मानस व दृष्टिकोण पाश्चात्य बनता है। उसके स्थान पर जब भारतीय ज्ञान पढ़ाया जायेगा तो विद्यार्थियों का मानस व दृष्टिकोण स्वत:ही भारतीय बनने लगेगा।
  3. आज की शिक्षा व्यक्तिवादी चिंतन को पुष्ट करने वाली है। समष्टि, सृष्टि व परमेष्ठी से दूर का भी सम्बन्ध नहीं है। वह मात्र व्यक्ति का विकास करने की बात करती है। जबकि वास्तविकता यह है कि व्यक्ति चाह कर भी अकेला नहीं रह सकता, विकास करना तो बहुत दूर की बात है। व्यष्टि, समष्टि के मध्य रह कर, सृष्टि के प्रति कृतज्ञ बनकर ही वह परमेष्ठी की ओर अग्रसर हो सकता है। अत:शिक्षक को विद्यार्थियों में समष्टि, सृष्टि व परमेष्ठी के साथ सहयोग व समन्यव बनाने की शिक्षा देनी होगी तभी वह व्यक्तिवादी चिंतन से उपर उठकर “वसुधैव कुटुम्बकम्” का वाहक बन सकेगा।
  4. श्रेष्ठ समाज के मन में अपने देश के प्रति गौरव का भाव होता है। शिक्षा गौरव जगाने वाली होने चाहिए। जब शिक्षक अपने विद्यार्थियों को जीवन मूल्यों की शिक्षा देगा तो उनमें यह भाव जागृत होगा। अपने धर्म व संस्कृति के प्रति निष्ठा, गौ माता को अवध्य मानना, अन्न को ब्रह्मस्वरुप मानना, भूमि को माता मानना, कण-कण में ईश्वर की अनुभूति जगाना जैसे मूलभूत मूल्यों को शिक्षा के माध्यम से विद्यार्थियों के जीवन में लाना होगा।
  5. इसी प्रकार शिक्षक को राष्ट्र की भावी पीढ़ी में बचपन से स्त्री मात्र का सम्मान करने के संस्कार, सत्य व अहिंसा को सर्वभोम महाव्रत मानने का संस्कार, पंच महाभूतों को देवता स्वीकारने के संस्कार तथा संघर्ष नहीं समन्वय को धर्म का अंग मानने के संस्कार देने होंगें। ये सभी वे तत्व हैं जिनके न रहने पर भारत भारत नहीं रहेगा। अत: इन श्रेष्ठ तत्वों की रक्षा के लिए सदैव तत्पर रहने तथा कोई भी कीमत चुकाने का भाव जागृत करना होगा। तभी शिक्षक राष्ट्र निर्माता की भूमिका निभाने योग्य बन पायेगा।

(लेखक शिक्षाविद् है और विद्या भारती संस्कृति शिक्षा संस्थान, कुरुक्षेत्र के सह सचिव है।)

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