पुनरुत्थान विद्यापीठ द्वारा प्रकाशित भारतीय शिक्षा ग्रंथमाला के लोकार्पण हेतु दिनांक 09 सितम्बर 2017 को केदारनाथ साहनी सभागार, नई दिल्ली में आयोजित समारोह में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प0 पू0 सरसंघचालक माननीय डॉ मोहन भागवत जी के उद्बोधन के संपादित अंश…
भारतीय ज्ञान परम्परा में ग्रंथ लेखन की परम्परा अति प्राचीन है । दीर्घ तपस्या के अनुभव से उपजे विचार, ‘भद्रमिच्छन्ति ऋषयः’ वैदिक उद्घोष के रूप में अगली पीढ़ियों के उपयोग के लिए संजोने का कार्य ग्रंथों के ही माध्यम से होता रहा है । उनके परामर्श के बिना किसी क्षेत्र में आगे बढ़ना संभव नहीं।
वर्तमान समय में दुनिया भर में शिक्षा के विषय में चर्चा होती है तो उसका एक ही स्वरूप सबके ध्यान में आता है, वह है स्कूलिंग अर्थात विद्यादान के औचारिक केन्द्र। भारत की प्राचीन शिक्षा व्यवस्था में 25 वर्ष की जिस आयु को ब्रह्मचर्य आश्रम का नाम देकर उसमें विद्याध्ययन का कर्तव्य सुनिश्चित किया गया उसमें स्कूलिंग का भाग आधा ही था। शेष शिक्षा प्रक्रिया परिवार और आश्रम के वातावरण से होती थी।
राजनीतिज्ञों-शिक्षाविदों-शिक्षा विभाग के अधिकारियों से छात्रों-अभिभावकों तक सभी शिक्षा में परिवर्तन की बात कहते हैं। समाज जीवन की सारी विकृतियों का दोष भी शिक्षा व्यवस्था पर लगाया जाता है। अभिभावकों के व्यवहार का, परिवार और समाज के वातारण का प्रभाव भी बालक पर होता है, उसकी चिंता नहीं होती। समय के साथ समाज जीवन में जो परिवर्तन आ रहे हैं, उनकी ओर ध्यान नहीं जाता। पहले समाचार पत्र पढ़ना या रेडियो-टी0वी0 पर समाचार सुनना बडों का काम माना जाता था। आज मोबाईल और सोशल मीडिया के उपयोग से बच्चे दिन-दुनिया के बारे में बड़ों से अधिक जानने लगे हैं। आज से 125 वर्ष पूर्व लोकमान्य तिलक ने तरुणों के जागरण और लोक शिक्षा के उद्देश्य से सार्वजनिक गणेशोत्सव प्रारम्भ किया था। आज उसका व्याप महाराष्ट्र से बाहर देशभर में भले ही फैल गया हो किन्तु उस मूल उद्देश्य की पूर्ति अब नहीं होती है। संस्कार और जीवन के प्रति दृष्टि नई पीढ़ी को देने का दायित्व बोध यदि पिछली पीढ़ी को विस्मरण हो जायेगा तो शिक्षा व्यवस्था स्कूलिंग का भाग कितना परिणामकारी हो सकेगा विचारणीय है।
वर्तमान शिक्षा प्रणाली दोषयुक्त है, ऐसा कहते समय हम अभी अंग्रेजों द्वारा इस देश में लाई गई मैकॉले शिक्षा पद्धति को दोष देते हैं। यदि शिक्षा व्यवस्था और स्कूलिंग के अंश में मात्र दोष ही होते तो स्वतंत्रता आन्दोलन ही इस देश में न हुआ होता। गाँधी, अरविन्द, विवेकानन्द, रवीन्द्रनाथ आदि समाजशिल्पी और स्वतंत्रता आन्दोलन की पूरी पीढ़ी ही तो आखिर उसी मैकाले-प्रणीत शिक्षा पद्धति से निकली थी। किन्तु उन सब का समाज के प्रति दायित्व बोध अधिक प्रखर था जिसके कारण वे इस प्रकार सोच और कर सके।
ग्रन्थ लेखक का अर्थ कुछ जानकारियों को पोथीबद्ध कर लेना मात्र ही नहीं। पुरानी बातों को जानना, पहले के समय में क्या हुआ, उसको जानना और विषय की व्याप्ति को जानना, यह उद्देश्य प्रमुख है। इसीलिए कोई भी ग्रंथ ज्ञानधारा का अंतिम पढ़ाव नहीं हो सकता। गन्तव्य तक पहुँचने की दिशा में प्रस्थान बिन्दु से कितना आगे बढ़ सके, यह देखना विकास के क्रम को जारी रखने के लिए आवश्यक होता है। ग्रंथों में संग्रहित ज्ञान इस प्रक्रिया को सुगम बनाता है।
भूतकाल को भूल जाने वालों का भविष्य नहीं होता। भूतकाल में ही बैठे रहने वालों, उसी का चिन्तन करते रहने वालों का भी भविष्य नहीं होता है। भविष्य उनका होता है जो भूत का चिंतन करते हैं, उससे प्राप्त अनुभवों का लाभ लेकर वर्तमान में उपस्थित परिस्थितियों का अनुकूलन करके भविष्य के लिए प्रयत्नशील रहते हैं।
मानव जाति के लिए शिक्षा सार्वजनिक विषय है। मनुष्य जीवन केवल शारीरिक नहीं होता, पशुओं का होता है। मेंढक-मच्छर सब देशों-स्थानों में एक जैसी क्रियाएँ करते हैं। इसके विपरित मनुष्य की, समूह और समाज की अपनी विशेषताएँ होती हैं, उसी पर आधारित उनके क्रिया-कलाप होते हैं। उसी प्रकार उनकी आकांक्षाएँ भी विशिष्ट होती हैं, जिन्हे पूर्ण करने वे धन्यता का अनुभव करते हैं। जीवन के प्रयोजन की कल्पना में भी इन्ही विशिष्टताओं, क्रियाकलापों, आकांक्षाओं के आधार पर अन्तर होता है। दुनिया भर में आज ज्ञान-विज्ञान की प्रगति की गति कुछ मंद रही। अन्य देश कुछ क्षत्रों में तेजी से आगे बढे़। ऋग्वेद में कहा – ‘आ नो भद्रा कृतवो यन्तु विश्वतः’ अर्थात् सभी दिशाओं से श्रेष्ठ विचारों को आने देना स्वीकार करना। आवश्यकता होने पर सब कुछ अच्छा सीखने को तैयार रहना है। सर्वत्र अवलोकन करना विकास के लिए आवश्यक है। सम्पूर्ण तिरस्कार (Rejection) करना समझदारों का काम नहीं होता।
आज फिनलैंड की शिक्षा प्रणाली को विश्व में सर्वश्रेष्ठ माना जा रहा है। वहाँ के विद्यार्थी अन्तर्राष्ट्रीय स्पर्धाओं में सर्वोत्तम स्थान लाते हैं। किन्तु वहाँ के शिक्षाविद् कहते हैं कि वे विद्यार्थियों को किसी स्पर्धा की तैयारी कराते ही नहीं। वे जीवन के लिए तैयार करते हैं। उनकी पद्धति का अध्ययन करने पर कुछ विशेषताएँ ध्यान में आती हैं। यह कुछ-कुछ हमारी प्राचीन गुरुकुल पद्धति से मिलती-जुलती है। प्रथम चार कक्षाओं तक 10 छात्र एक शिक्षक के संरक्षण में जंगल से बाजार तक साथ में जाते हैं, प्रकृति से जीवन व्यवहार तक की बातों को ध्यान से देखते-सीखते हैं। नियमित कक्षाएँ नहीं लगाई जाती हैं, अंक ज्ञान-अक्षर ज्ञान उसी भ्रमण आदि के माध्यम से कराया जाता है। चौथी से आठवीं कक्षा तक के विद्यार्थी आधा पुस्तकों से सीखते हैं, शेष आधा अवलोकन से। 8वीं कक्षा के उपरान्त ही नियमित कक्षाओं में आज की प्रचलित पद्धित की पढ़ाई Schooling होती है। 12वीं कक्षा तक अध्यापन का माध्यम मातृभाषा है इसीलिए विभिन्न भाषा-भाषी समुदाय होने के कारण 15-20 भाषाएँ चलती हैं। शिक्षकों को तैयार करने के लिए पृथक विश्वविद्यालय हैं, जहाँ शिक्षक प्रशिक्षण के उपरांत ही उन्हें शिक्षा के क्षेत्र में आने दिया जाता है।
भारत की शिक्षा पद्धति आत्मगौरव का जागरण करने वाली नहीं है। यहाँ तक कि हमारे शिक्षाविद् भी मानते हैं कि भारत में तो शिक्षा अँग्रेजों आने के बाद ही प्रारम्भ हुई। इस आत्महीनता को समाप्त किए जाने की आवयश्कता है।
अपने देश में चिंतन और विचार की कमी नहीं है। प्रत्येक विद्वान के पास अनेक सुझाव हैं। किन्तु विचार के साथ प्रयोग भी चाहिए। उसकी क्षमता हमें विकसित रही होगी। केवल तर्क या बहस करने से आज काम नहीं चलेगा।
करीयर में टॉप पर पहुँचने वाले सम्मान के पात्र होते हैं। सत्ताधारी, धनवान, जीवन के किसी भी क्षेत्र में उत्तम विश्लेषण उसी के लिए प्रयुक्त होता है जिसने अधिकतम अर्जित किया हो। भारत का विचार प्रेय और श्रेय दोनों की सम्यक् प्राप्ति को ही शिक्षा की सफलता मानता है।
संस्कृति के प्रवाह की परम्परा के अनुरूप शिक्षा यह सफलता प्रदान कर सकती है। समाज विषयों में व्यक्तियों का पुरुषार्थ भी उसी से सफल माना जाता है। दूसरों की नकल करके केवल प्राप्त सफलता भी अनन्तः नकल ही होती है। इसलिए अपने मूल को जानना-समझना आवश्यक होता है।
इस दृष्टिकोण से भारत की शिक्षा परम्परा विशिष्ट है। इसमें कुछ भी त्याज्य नहीं। भौतिक विषयों में सामर्थ्य विकास यह लक्ष्य न रखते हुए भी आवश्यकता पूर्ति तो चाहिए ही । इसलिए ‘अविद्यया मृत्युं तीत्वां विद्ययाsमृतमश्नुते’- सूत्र वाक्य दिया गया। शान्ति चाहिए – तृप्ति की, मृत्यु की नहीं। भोगों को भी समुचित स्थान दिया गया – अर्थ और काम भी पुरुषार्थ का ही अंग है। जिन देशों ने Struggle for existence के सिद्धांत को माना, Survival of the fittest को आधार माना, वह उनका अनुभव रहा होगा। भारत में तो ‘विद्ययाsमृतमश्नुते’ कह कर मृत्यु से पार हो जाने की शिक्षा दी गई।
विद्या-अविद्या का विचार रहने पर भी दोनों को जीवन के लिए आवश्यक माना गया, केवल अविद्या को प्राप्त करने वाले घोर यातना पाते हैं, यश्स्वी हो जाये तो जीवन सरल नहीं रहता है। केवल विद्या के भी भरोसे जीवन नहीं चलता क्योंकि जीवन केवल तुम्हारा नहीं है। दोनों में प्रवीणता प्राप्त करो और दोनो extremes टालों, यह मध्यम मार्ग ही धर्म कहा गया।
जो था और होना चाहिए के स्थान पर आज, क्या और उससे वांछित दिशा में कैसे आगे बढ़ेगें यह विचार करना आज अधिक महत्वपूर्ण हो गया है। भारत को ज्ञान की थाती मिली है। उसे संजो-संवार कर अगली पीढ़ी को सौंपना और कल्याण का मार्ग प्रशस्त करना यह भारत का ही दायित्व है। इस बड़े उद्देश्य को पाने में सम्पूर्ण समाज को साथ लगाना पड़ेगा। एक संस्था या संगठन परिवर्तन का वाहक बनने का प्रयास तो कर सकता है किन्तु अकेले सारा परिवर्तन करना सम्भव नहीं। पिछले एक हजार वर्षो में भारत में शिक्षा का प्रचार-प्रसार तो हुआ। किंतु उसे अधिक शिक्षा का बाजारीकरण हुआ। बाजार के आँकड़े बताते हैं कि भारत में शिक्षा का क्षेत्र तीन ट्रिलियन अमेरिकी डॉलर वार्षिक का है।
शिक्षा ने अंक-ज्ञान, अक्षर-ज्ञान तो दिया, डिग्री-डिप्लोमा दिया किन्तु नैतिकता और जीवन मूल्य नहीं सिखाया। अनीति के कारण उपजे अपराध में शिक्षित व्यक्ति ही अधिक लिप्त पाये जा रहे हैं। यह बिमारी बाहर से आई है। भारत की मूल प्रकृति कभी वैसी नहीं रहीं। इसलिए विचार का विषय भी है और आश्चर्य का भी, कि विज्ञान और तकनीक के क्षेत्र में इतना विकास करने वाले, अस्तित्व की विविधता देखने वाले आज के विकसित माने जाने वाले देश ऐसे कैसे हो गए? और उससे भी अधिक विस्मय और चिन्ता इस बात की होनी चाहिए कि अस्तित्व की एकता को मानने वाले हम कैसे प्रभावित हो गए?
इस सबको ध्यान में रखकर मूल से अपने विचारों का शोधन करना पड़ेगा। अनेक संगठन-संस्थाएँ प्रयोग और प्रयास कर रहे हैं। प्रयोग सभी करें, जिनका प्रयास सफल और परिणामकारी होगा सब मिलकर साथ चलेंगे, इस मानसिकता से आगे बढ़ना होगा।
भारत में परिणामकारी शिक्षा किसे माना गया? मनीषियों ने कहा है-‘ विद्या ददाति विनयं’ और उसके परिणाम स्वरुप ‘विनयात्याति पात्रताम्’ और फिर इसी क्रम में धन, धर्म, सुख प्राप्त होते हैं। पश्चिम में विद्या से सीधे पात्रता और धन का विचार सुख प्राप्ति के लिए हुआ, विनय और धर्म का स्पर्श नहीं हुआ। मेरा प्रभुत्व, अधिकार आदि चर्चा ही अधिक हुई। परिणामतः प्रयोजन ही मूलतः बदल गया।
जब सी0एस0आर0 (Corporate Social Responsibility) का प्रावधान नहीं था तब भी सड़क, तलाब, विद्यालय, चिकित्सालय, धर्मशालाएँ बनीं। भारत की शिक्षा एकान्त में ध्यान साधना और लोकान्त में सामाजिक सेवा साधना के लिए तैयार करने वाली रही है। शील-चारित्र्य-भक्ति-आत्मविश्वास-आत्मीयता का विकास करने वाली रही है। सम्पूर्ण सृष्टि में अस्तित्व की एकात्मता की दृष्टि देने वाली रही है। प्रत्येक घटक को इसी दृष्टि से विचार करना पड़ेगा, यह केवल विद्यालयों की जिम्मेदारी या मात्र उनके द्वारा सोचे जाने वाला विषय नहीं है।
देश के विकास की कुछ पूर्व शर्तें (Pre requisites) होती हैं। भारत की अगली पीढ़ी को भारत की शिक्षा घर-विद्यालय-समाज से मिले और आज की देश-काल परिस्थिति के अनुरूप इस का उपयोग करने की क्षमता का विकास हो, यह हमारी प्रगति की पूर्व शर्त है। शिक्षाविद् और समाज के नेतृत्वकर्ता के रूप में इस चुनौती को हमें स्वीकार करना ही होगा। परमात्मा हम सबकों सामर्थ्य प्रदान करें।
भारतीय शिक्षा की पश्चिमीकरण से मुक्ति कैसे हो? वर्तमान शिक्षा पद्धति के सम्मुख सर्वाधिक चुनौतीपूर्ण प्रश्न है – इसकी पश्चिमीकरण से मुक्ति कैसे हो? दुर्योंग से हमने आज की परभिाषाओं में आधुनिकीकरण और पश्चिमीकरण को पर्यावाची मान लिया है। इसका दुष्परिणाम यह हुआ कि आधुनिकीकरण के नाम पर अनेक अनुपयोगी बातों को भी स्वीकार करना और पश्चिमीकरण के भय से उपयोगी बातों को भी नकारना शुरू कर दिया ।
भारत में गौरव बोध को नष्ट कर हीनता का भाव उत्पन्न करना शिक्षा के माध्यम से प्रारम्भ हुआ। भारत की मूल बातों को, इतिहास, ग्रंथों को, ज्ञान परम्परा को अँग्रेजो ने उनकी दृष्टि से परिवर्तित और व्याख्यायित करने का प्रयास किया। उन ग्रंथों के अनुवाद यूरोपीय भाषाओं में कराये गए जिनसे भारत के ज्ञान-विज्ञान के बजाय कमजोरियों का उजागार किया जा सके। प्रारम्भ शिक्षा से हुआ किन्तु शनैः प्रभाव सम्पूर्ण समाज के मानस पर पड़ा।
स्वतंत्रता के पश्चात् शिक्षा के प्रचार-प्रसार, विशेषकर साक्षरता का स्तर बढ़ाने के प्रयास प्रारम्भ हुए। परिणामस्वरूप विद्यालयों की संख्या बढ़ी किन्तु यह भी केवल स्कूलिंग ही है। स्कूल के अलावा घर-परिवार-समाज में भी शिक्षा होती है, यह विचार समाप्त हो गया। वास्तव में समाज में यह आकर्षण शिक्षा के प्रति नहीं, प्रमाण-पत्र, डिग्री के प्रति था। नौकरी पाने के साधन के प्रति था क्योंकि नौकरी पाने के लिए डिग्री-डिप्लोमा की पूँछ जुड़ी हुई होनी आवश्यक है। देश में उच्च शिक्षा प्राप्त ग्रेजुएट पोस्टग्रेजुएट की संख्या बढ़ी किन्तु उनमें गुणवत्ता, Employability दिखाई नहीं देती। इस सारी परिस्थिति में जीवन और शिक्षा की दिशा अलग-अलग हो गई, जो कि एक दूसरे के साथ ही चलनी चाहिए। आज युवा के पास उपाधि तो है, उन्नयन नहीं। अध्ययनशीलता, संस्कार आदि के कारण आज भारतीय छात्र दुनिया के अन्य विकसित देशों में जाकर भी उच्च स्थान बना पा रहे हैं। दूसरे यदि कुछ बातें यथा – आज के पाठ्यक्रम में कमी की बातें हम सभी के ध्यान में आ रही है तो स्वाध्याय, अतिरिक्त अध्ययन, सत्य, पाठ्यवस्तु की जानकारी, इतिहास तथा संस्कृति के ज्ञान के लिए क्या सप्ताह में एक-दो अतिरिक्त कालांश की व्यवस्था करके उस कमी को दूर किया जा सकता है।
छठा महत्त्वपूर्ण अंग है शिक्षा में अपेक्षित परिवर्तन के लिए शोध। शिक्षा की वर्तमान पद्धति में हमारा गौरव बोध विस्मृत हो गया इसलिए शोध की प्रवृत्ति भी कम हुई। जो कुछ पश्चिम में हो रहा है, उसी की नकल या भाषान्तर करके उसे शोध का नाम दिया जाने लगा। इसलिए आवश्यक है कि अपनी शोध पद्धति लागू करना, शोधक खोजना, उन्हे दृष्टि देना, व्यवस्थाएँ देना। पश्चिम में और कॉर्पोरेट जगत में सिद्धांत चलता है – हम आपकी व्यवस्था करेंगे, हमें आप लाभ कमा कर देना। यह नहीं चाहिए। सरकार के तंत्र में भी न्यूनाधिक यही चलता है, इसलिए समाज आधारित शोध की आवश्यकता है।
अपने यहाँ आदर्श समाज व्यवस्था मानी गई –धर्मेणैव प्रजा सर्व रक्षन्ति स्म परस्परम्। परन्तु यह आदर्श स्थिति निर्मित नहीं हो पाने तक तो राज्य भी रहेगा, राजा भी और उसका नियंत्रण भी, दंडात्मक व्यवस्था भी। शिक्षा क्षेत्र के विषय में सभी शिक्षाविद् यही कहते हैं कि शिक्षा सरकार के नियंत्रण से पूर्णतः मुक्त होनी चाहिए किन्तु ऐसा आज की परिस्थितियों में कितना और कब संभव होगा, मालूम नहीं। इसीलिए इसी में से एक अच्छी बात दिखाई देती है कि सारी की सारी शिक्षा व्यवस्था सरकार के हाथों में नहीं है। ऐसे ही शिक्षा जगत की नेटवर्किंग करने की आवश्यकता है। उनके साथ सम्पर्क कैसे बढ़ाना, उन्हें अपने साथ कैसे जोड़ना, उनके साथ व्यवहार करने में कौन से विचारों पर सहमति बनाना, कौन सी मर्यादाएँ रखना, इस सब का विचार करके हमें आगे कदम बढ़ाना होगा। हमें अनुयायी तैयार करने की आवश्यकता नहीं है कि हम सबको अपनी बात से सहमत ही करायें। अपनी अच्छी बातों से उन्हें परिचित कराके और उनकी अच्छी बातों को देख-सीखकर हमें व्यापक शिक्षा क्षेत्र के हित में अपने सहयात्री तैयार करने हैं। विचार और कार्य की दिशा समान रहे, विचारों का आदान-प्रदान चलता रहे तो सभी की गुणवत्ता का विकास होगा। इसके लिए पहल अपने से करनी होगी। गुणवत्ता दिखाई देती है तभी समाज आकृष्ट होता है।
शिक्षा की पहली सीढी है अभिभावक। बालक जो देखता है, वही सीखता है। माता प्रथम गुरु। उनका आचरण व्यवहार कैसा है, इसी आधार पर बालक का भी जीवन व्यवहार विकसित होता है।
हम सबने उपमन्यु की कथा सुनी है। गुरु की आज्ञा से भिक्षा में प्राप्त अन्न, फिर गौ का दूध, फिर बछड़े के मुँह से गिरने वाला दुग्ध-फैन क्रमशः छोडता गया। भूख से व्याकूल होकर आक के पत्ते खा लिए तो अन्धा हो गया, कुएँ में गिर गया। अश्विनीकुमारों ने अन्धत्व समाप्त कर स्वस्थ करने वाली पायस दी तो उसने कहा कि मेरा नियम है कि गुरु को अर्पण करने के उपरान्त जो वे देते हैं, वही मैं खाता हूँ। समझाने पर भी नहीं माना। यह संकल्प की परीक्षा थी, जिसमें वह सफल हुआ।
प्रत्यक्ष देखे जाने वाला जीवन व्यवहार ही सीखा जाता है। जीवन जीने का उदाहरण कोई उपकरण, तकनीकी या गुगल नहीं बन सकते।
दूसरी कड़ी है शिक्षक। शिक्षक के मानस को तैयार करना, ठीक रखना, उसमें अपने प्रति और अपने कार्य के प्रति गौरव के भाव का जागरण करना आवश्यक है। उसके योगक्षेम की चिन्ता भी उतनी ही आवश्यक है। शिक्षा की गुणवत्ता के लिए दोनों बातें आवश्यक हैं – योग्य शिक्षक और उसकी योग्य व्यवस्था।
शिक्षा का विचार आज विद्यालय के बिना प्रायः नहीं किया जा सकता। विद्यालय का वातावरण, दृश्य, संस्कार-पक्ष, गौरव-बोध और सामाजिक दायित्व-बोध जाग्रत करने वाली गतिविधियाँ वहाँ कैसी हैं, इस पर शिक्षा का सम्पूर्ण ढाँचा आधारित है। और इसको निर्धारित करने वाला तत्व है विद्यालय की प्रंबध/संचालन समिति की दृष्टि, उनके सम्मुख उद्देश्य की स्पष्टता।
शिक्षा के क्षेत्र में जिस आमूलचूल परिवर्तन की बात आज की जाती है, पाठ्यक्रम उसका बड़ा आधार है। परन्तु इसका परिवर्तन करना भी चुनौतीपूर्ण और समय लेने वाली प्रक्रिया है। इसलिए, जब तक वह नहीं हुआ तब तक रुक कर प्रतीक्षा करते रहना चाहिए क्या? वर्तमान पाठ्यक्रम को लेकर दो प्रकार से विचार करना ठीक होगा। पहला तो यह कि इस पाठ्यक्रम में सभी कुछ दोषपूर्ण ही है, ऐसा तो नहीं होगा। भारतीय समझ यहाँ श्री गिरीश प्रमुणे बैठे हैं। उनके एक कार्य से मैं परिचित हूँ। महाराष्ट्र के जिस क्षेत्र में वे निवास करते हैं उसमें अनेक घुमन्तू जातियाँ-जनजातियाँ भी रहती हैं। जिनके पास परम्परागत रूप से अनेक प्रकार के हुनर-कौशल परिवार में ही चले आते हैं। गिरिश जी ने उनके इस कौशल को पहचान कर उनके पीछे के वैज्ञानिक सिद्धांत या कार्यपद्धति समझ कर, उसे नये ज्ञान से जोड़ कर शोध और विकास आदि का क्रम प्रारम्भ किया। अपने देश में उपलब्ध और बिखरे हुए ऐसे परम्परागत ज्ञान-विज्ञान को भी आज सामने लाने, विकसित करने और सम्मान दिलाने की आवश्यकता है।
आधुनिक तकनीक का प्रयोग आज समय की माँग है। इसके लिए शिक्षा क्षेत्र में स्वाभाविक रूप से इसका प्रयोग बढ़ रहा है, बढ़ना ही चाहिए। किन्तु यह स्मरण रखना होगा कि तकनीक से जानकारियाँ तो दी जा सकती है, परन्तु संस्कार निर्माण के लिए तो सान्निध्य ही आवश्यक है। दूरस्थ क्षेत्रों में, जहाँ शिक्षा की व्यवस्था समुचित रूप से न हो पाये, वहाँ तकनीक का प्रयोग बहुत उपयोगी सिद्ध हो सकता है।
श्रद्धेय रज्जू भैया (संघ के चतुर्थ सरसंघचालक प्रो0 राजेन्द्र सिंह) एक प्रंसग अपने जीवन से ही बताते थे। रज्जू भैया जिनके विद्यार्थी थे, ऐसे प्रख्यात वैज्ञानिक प्रो0 मेघनाद साहा ने उन्हे अपनी प्रयोगशाला में कार्य करने के लिए आमंत्रित किया किन्तु रज्जू भैया ने अध्यापन का क्षेत्र चुना। कोई दो तीन वर्ष बाद जब प्रो0 साहा से भेंट हुई तो सहज रूप से प्रो0 साहा ने उनसे शिक्षण कार्य कैसा चला रहा है, पूछा। रज्जू भैया ने कहा कि मैं तो तीन वर्ष में ही ऊबने लगा हूँ। वही विषय, वही कक्षाएँ, वही शिक्षण का प्रकार, यहाँ तक की उदाहरण आदि भी वही, कुछ नयापन का अनुभव नहीं होता। प्रो0 साहा ने कहा कि तुम विषय को पढ़ाते हो या विद्यार्थियों को? विषय वही रहने पर भी विद्यार्थियों का बैच तो हर बार बदल जाता है न? और तुम्हारा काम विद्यार्थियों को विषय का ज्ञान देना, उनको सिखाना है या विषय का पाठ्यक्रम पूरा करना? कितनी गहरी बात है। यदि शिक्षकों के सामने विद्यार्थियों के जीवन विकास का उद्देश्य हो तो स्वतः ही कार्य के प्रति अरुचि की कठिनाई समाप्त हो जायेगी।
एक बात पर दुनिया के सभी शिक्षाविद् सहमत हैं कि शिक्षा के क्षेत्र में नये चिन्तन की आवश्यकता है। किन्तु केवल चिन्तन करेंगे और प्रयोग नहीं, तो नहीं चलेगा, क्योंकि शिक्षा का क्षेत्र प्रयोगशाला में किए जाने वाले प्रयोगों का नहीं है। यहाँ तो सजीव, क्रियाशील बालक बैठे हैं। अतः चिन्तन के निकष का व्यावहारिक प्रयोग किया जाना, परीक्षण करना आवश्यक है। “चिन्तन आप करो और हम उसके निकष को बोलेंगे” इससे भी नहीं चलेगा। चिंतन और प्रयोग साथ-साथ चलेंगे तो ही परिणामकारी होंगे।
आगे बढ़ने के लिए तीन बातें आत्यावश्यक होती हैं – संकल्प, धैर्य और पहल करने की प्रवृति। कुछ भी करना तो सबसे पहले तो उस ‘करने’ का ही प्रारम्भ करना होगा। वांछित दिशा में एक कदम भी आगे बढ़ेंगे तो उतनी दूरी कम हो ही जायेगी। इसलिए परिणाम दिखाई देने तक धैर्य रखते हुए संकल्पशक्ति के साथ पहल करते जायें, यही अभीष्ट है।