भारतीय स्वतंत्रता आन्दोलन में मील का पत्थर सिद्ध हुआ बंग-भंग आंदोलन

 – डॉ. रमेश कुमार

भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन एक दीर्घावधि तक चला एक बहुपक्षीय एवं बहुआयामी आंदोलन था। इस आंदोलन का नेतृत्व भिन्न-भिन्न विचारधाराओं के व्यक्ति कर रहे थे। इस आंदोलन में जहां एक ओर क्रांतिकारियों की विशेष भूमिका थी वहीं दूसरी और राष्ट्रवादियों एवं अहिंसावादियो ने भी इसमें योगदान दिया। भारत वासियों ने मध्यकाल में भी तुर्कों और मुगलों के विरुद्ध एक लंबा संघर्ष किया। 1757 ई. में भारत में अंग्रेजों की सत्ता की स्थापना के साथ ही उनके विरुद्ध भी संघर्ष एवं प्रतिरोध का आरंभ हो गया। कभी संन्यासी तो कभी वनवासी, कभी किसान तो कभी हस्तशिल्पी, कभी राजा तो कभी प्रजा, सारी जनता ने अंग्रेजों के विरुद्ध जबरदस्त प्रतिरोध किया। इसकी सामूहिक और  बड़ी परिणीति 1857 ई. की महान क्रांति में हुई। इस क्रांति के फलस्वरूप ही अंग्रेजों को ईस्ट इंडिया कंपनी के शासन को समाप्त करना पड़ा तथा भारत की सभ्यता, संस्कृति, समाज और धर्म में किए जा रहे हस्तक्षेप को रोकना पड़ा।

1857 के स्वतंत्रता संग्राम से अंग्रेज इतने भयभीत हुए कि उन्होंने अपने शासन को बनाए रखने के लिए ‘फूट डालो और शासन करो’ की नीति अपनाकर अलीगढ़ जैसे सांप्रदायिक आंदोलन को हवा दी, 1905 ई. में बंगाल का विभाजन किया, 1906 ई. में मुस्लिम लीग की स्थापना करवाई तथा 1909 ई. में मुसलमानों को विशेष सुविधाएं देते हुए मिंटो मार्ले एक्ट पास करके उनको अलग चुनाव मंडल प्रदान करके सांप्रदायिकता का विष भारतीय समाज में घोल दिया।

19वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में महर्षि दयानंद के आर्य समाज और स्वामी विवेकानंद के रामकृष्ण मिशन ने भारतीयों में अपनी सभ्यता, संस्कृति और इतिहास के प्रति गौरव की अनुभूति उत्पन्न करके स्वाभिमान आत्मविश्वास एवं राष्ट्रीयता का भाव जागृत किया। वंदे मातरम जैसे गीत की रचना, दादा भाई नौरोजी के निकासी के सिद्धांत तथा आर्य समाज व रामकृष्ण मिशन जैसे आंदोलनों से भारतीयों में एक नए प्रकार का आत्मविश्वास एवं सांस्कृतिक-सामाजिक जागरण हो चुका था।

लार्ड कर्जन 1899 ईस्वी में भारत का गवर्नर जनरल बनकर भारत आया। आते ही उसने भारत में हिलोरे मार रही राष्ट्रीयता से निपटने की योजना बनानी प्रारंभ कर दी। बीसवीं शताब्दी के आरंभ में भारत में राष्ट्रीय आंदोलन तीव्र गति से आगे बढ़ रहा था। बंगाल व देश के अन्य भागों में ग्रामीण एवं शहरी युवक-युवतियां पहली बार सक्रिय राजनीति में हिस्सा ले रहे थे। बंगाल एक विशाल प्रांत था। उस समय इस प्रांत की जनसंख्या लगभग 7 करोड़ 85 लाख थी तथा इसका क्षेत्रफल 189000 वर्ग किलोमीटर था बिहार और उड़ीसा भी इसी में ही शामिल थे अंग्रेजों ने इस प्रांत में राष्ट्रीय आंदोलन की गति को अवरुद्ध करने के लिए इस प्रांत का विभाजन करने की योजना बनाई यद्यपि अंग्रेजों ने प्रांत के विभाजन को प्रशासनिक जरूरत बताया जबकि वास्तव में इसके पीछे राजनीतिक कारण थे। लार्ड कर्जन के तत्कालीन गृह सचिव हेनरी रिसले का कहना था कि “अविभाजित बंगाल एक बड़ी ताकत है और विभाजित होने से यह कमजोर हो जाएगा। हमारा मुख्य उद्देश्य बंगाल का बंटवारा करना है जिससे हमारे दुश्मन बंट जाए और कमजोर पड़ जाए।” इस प्रकार ब्रिटिश सरकार ने भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन को कमजोर करने के लिए तथा मुस्लिम सांप्रदायिकता को भड़काने के लिए बंगाल को सांप्रदायिक आधार पर पूर्वी और पश्चिमी बंगाल में बांट दिया।

बंगाल विभाजन के प्रस्ताव की जानकारी दिसंबर 1903 में सबको हुई और इसकी जानकारी के साथ ही इसका जबरदस्त विरोध होने लगा। प्रारम्भ के दो महीनों में ही 500 बैठकें हुई। विभाजन के विरुद्ध 40 से 50 हजार पर्चे बांटे गए। बंगाली, हितवादी एवं संजीवनी जैसे अखबारों में लेख छपे। कई विरोध सभाओं का आयोजन किया गया। 69 ज्ञापन भेजे गए। बहुत सी याचिकाएं भी सरकार को विरोध स्वरूप भेजी गई। कुछ याचिकाओं पर तो 70000 से भी अधिक लोगों के हस्ताक्षर थे। 1903 से 1905 ईसवी की अवधि के बीच आवेदनों, ज्ञापनों, सभाओं, याचिकाओं, लेखों के माध्यम से विभाजन के विरुद्ध जबरदस्त प्रचार हुआ। लेकिन अंग्रेजी सरकार पर विरोध का कोई प्रभाव नहीं पड़ा तथा 19 जुलाई 1905 को ब्रिटिश सरकार ने बंगाल विभाजन की घोषणा कर दी। अब जनता ने महसूस किया कि आवेदनों, ज्ञापनों और सभाओं से कुछ होने वाला नहीं है इसलिए आंदोलन एवं संघर्ष का कोई नया तरीका खोजा जाए। बंगाल के अलग-अलग कस्बों जैसे दिनाजपुर, पबना, फरीदपुर, जैसोर, ढाका, वीरभूमि, बारिसाल, कोलकाता आदि में हुई सभाओं में स्वदेशी और बहिष्कार की रणनीति पर विचार विमर्श हुआ। 7 अगस्त 1905 को कोलकाता के टाउन हाल की ऐतिहासिक बैठक में स्वदेशी आंदोलन की विधिवत घोषणा हुई तथा बहिष्कार का प्रस्ताव पास हुआ। 1 सितंबर 1905 को ब्रिटिश सरकार ने घोषणा की कि विभाजन 16 अक्टूबर 1905 से लागू होगा। इस घोषणा के बाद तो स्वदेशी और बहिष्कार आंदोलन ने और जोर पकड़ लिया। जगह-जगह सभाओं में स्वदेशी वस्तुओं के प्रयोग की प्रतिज्ञा ली जाने लगी तथा विदेशी सामान के बहिष्कार का आह्वान होने लगा जिससे अंग्रेजी कपड़ों की बिक्री 5 से 15 गुना तक कम हो गई।

16 अक्टूबर 1905 को बंगाल के विभाजन का दिन पूरे बंगाल में शोक दिवस के रूप में मनाया गया। घरों में चूल्हा नहीं जला, लोगों ने उपवास रखें, जनता ने जुलूस निकाले, सवेरे-सवेरे लोगों ने गंगा में स्नान किया, सड़कों पर वंदे मातरम के गीत गाते हुए प्रदर्शन किए, लोगों ने एक दूसरे के हाथों पर राखियां बांधी। दिन में दो बड़ी जनसभाएं हुई, एक में 50000 और दूसरी में 75000 लोग इकट्ठे हुए। भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में पहली बार इतनी संख्या में लोग एकत्रित हुए तथा आंदोलन के लिए ₹50000 कुछ घंटों के भीतर ही इकट्ठे हो गए। बंगाल में इसका नेतृत्व सुरेंद्रनाथ बनर्जी, विपिन चंद्र पाल, आनंद मोहन बोस, अरविंद घोष जैसे नेता कर रहे थे। सुरेंद्रनाथ बनर्जी इस आंदोलन का एक प्रमुख चेहरा थे। जनता का नारा था ‘बनर्जी झुकना नहीं’ ‘Surrender not Banerjee.’

विभाजन के विरुद्ध शुरू हुआ स्वदेशी और बहिष्कार आंदोलन शीघ्र ही पूरे देश में फैल गया। लोकमान्य तिलक ने पूरे देश विशेषकर मुंबई, पुणे एवं मध्य प्रांत में इसका प्रचार किया। अजीत सिंह और लाला लाजपत राय ने पंजाब व उत्तर प्रदेश के विभिन्न क्षेत्रों में इसे पहुंचाया। चिदंबरम पिल्लई ने मद्रास प्रेसीडेंसी में इसका नेतृत्व किया। बंगाल एवं देश के विभिन्न हिस्सों में विदेशी कपड़े की होली जलाई गई। विदेशी सामान की दुकानों पर धरने दिए जाने लगे। औरतों ने विदेशी चूड़ियां पहनना बंद कर दिया एवं विदेशी बर्तनों का प्रयोग छोड़ दिया। धोबियों ने विदेशी कपड़े धोने से इंकार कर दिए। यहां तक कि पुजारियों ने विदेशी चीनी से बने प्रसाद को लेने से इनकार कर दिया। राष्ट्रवादी महज स्वदेशी व बहिष्कार आंदोलन से संतुष्ट नहीं थे बल्कि वे इसे राजनीतिक जन आंदोलन का रूप देना चाहते थे। उनका लक्ष्य अब स्वराज्य हो चूका था। विभाजन को समाप्त करने की मांग छोटी हो चुकी थी। राष्ट्रवादियों ने जनता के सामने अपने विचार, योजना और तरीके रखकर राजनीतिक स्वाधीनता हासिल करने का लक्ष्य प्राप्त करने के लिए व्यापक जन आंदोलन खड़ा करने का प्रयास किया। इसके लिए बहिष्कार को असहयोग आंदोलन और शांतिपूर्ण प्रतिरोध तक ले जाना था। अब उन्होंने सरकारी स्कूलों, अदालतों, उपाधियों एवं सरकारी नौकरियों का बहिष्कार करना भी शुरू कर दिया ताकि ब्रिटिश सरकार पंगु हो जाए। उनका मानना था कि यदि चौकीदार, सिपाही, सैनिक, सहायक, क्लर्क काम करना बंद कर दें तो देश से अंग्रेजी शासन कुछ मिनटों में ही समाप्त हो जाएगा। राष्ट्रवादियों ने स्वदेशी के प्रचार के लिए पारंपरिक त्यौहारों, धार्मिक मेलों, लोक परंपराओं, लोक उत्सव, लोक संगीत, लोक नृत्यों का भी सहारा लिया। तिलक ने गणपति उत्सव एवं शिवाजी जयंती के माध्यम से स्वदेशी का प्रचार प्रसार किया।

सरकारी अदालतों का बहिष्कार करके विदेशी पंच अदालतें बनाई गई। अगस्त 1906 तक बारिसाल समिति ने 89 पंचायतों के जरिए 523 विवादों का निपटारा किया। स्वदेशी आंदोलन ने आत्मनिर्भरता, आत्मशक्ति और स्वावलंबन का नारा दिया। स्वावलंबन और आत्मनिर्भरता का प्रश्न स्वाभिमान, आदर और आत्मविश्वास के साथ जुड़ा हुआ था। आत्मनिर्भरता के लिए स्वदेशी राष्ट्रीय शिक्षा की जरूरत थी। टैगोर के शांतिनिकेतन की तर्ज पर बंगाल नेशनल कॉलेज की स्थापना हुई जिसके प्राचार्य अरविंद बने। शीघ्र ही पूरे देश में राष्ट्रीय विद्यालयों की स्थापना होने लगी। 1906 में राष्ट्रीय शिक्षा परिषद का गठन हुआ। जिसका उद्देश्य साहित्यिक, वैज्ञानिक, तकनीकी एवं राष्ट्रीय जीवन धारा से जुड़ी हुई शिक्षा देना था। शिक्षा का माध्यम देशी भाषा बनी। तकनीकी शिक्षा के लिए बंगाल इस्टीट्यूट की स्थापना हुई। इसी तरह से स्वदेशी उद्योगों की जरूरत महसूस की गई। पूरे देश में स्वदेशी कारखाने स्थापित होने लगे। कपड़ा, साबुन, माचिस, चमड़े के स्वदेशी उद्योग, स्वदेशी बैंक एवं बीमा कंपनियां स्थापित हुई।

ब्रिटिश सरकार ने विभाजन के प्रतिक्रिया स्वरूप हुए राष्ट्रव्यापी स्वदेशी एवं बहिष्कार आंदोलन का दमन करने का निश्चय किया तथा राष्ट्रवादी नेताओं की गिरफ्तारी शुरू कर दी। अजीत सिंह, लोकमान्य तिलक, बिपिन चंद्र पाल, अरविंद घोष को बंदी बना लिया गया दूसरी ओर मुस्लिम समुदाय में सांप्रदायिकता की भावना को जन्म देकर मुस्लिम लीग का गठन करवाया। तत्पश्चात 1909 में मिंटो मार्ले एक्ट पास करके मुसलमानों को विशेष सुविधाएं देकर सांप्रदायिकता का बीज भारतीय समाज में बो दिया। लेकिन 1911 में अंग्रेजी सरकार को अपनी गलती का अनुभव हुआ तथा बंगाल विभाजन को रद्द कर दिया।

ब्रिटिश सरकार ने बंगाल का विभाजन ‘फूट डालो राज करो’ की नीति के अंतर्गत किया था। उसकी इस नीति से भारत में मुस्लिम सांप्रदायिक राजनीति का विस्तार हुआ। मुस्लिम लीग की स्थापना हुई तथा भविष्य में मुस्लिम तुष्टीकरण से भारत का विभाजन हुआ। बंग-भंग आंदोलन का भारतीय राजनीति विशेषकर भारतीय राष्ट्रीय स्वतंत्रता आंदोलन पर गहरा प्रभाव पड़ा। सर्वप्रथम इसने भारत में स्वदेशी और बहिष्कार रूपी दो ऐसे अस्त्र भारतीय राष्ट्रीय स्वतंत्रता आंदोलन को दिए जिनका विस्तृत प्रयोग अहिंसावादी संघर्ष में गांधी जी ने किया। दूसरा इसी आंदोलन से निष्क्रिय प्रतिरोध अथवा असहयोग का आरंभ भी भारतीय राजनीति में हुआ। तीसरा इस आंदोलन ने भारत में राष्ट्रीय शिक्षा एवं स्वदेशी शिक्षण संस्थानों की नींव रखी। चौथा इस आंदोलन के माध्यम से युवाओं और महिलाओं की भागीदारी भी भारतीय राष्ट्रीय स्वतंत्रता आंदोलन में सुनिश्चित हुई तथा भारतीय राष्ट्रीय स्वतंत्रता आंदोलन का विस्तार गांव और कस्बों तक हुआ। यद्यपि विभाजन केवल बंगाल का हुआ था लेकिन संपूर्ण देश में इसकी राष्ट्रीय प्रतिक्रिया हुई तथा देश भर में इसका व्यापक विरोध हुआ जिससे भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन को एक नई दिशा मिली।

(लेखक राजकीय महाविद्यालय बिलासपुर जिला यमुनानगर में इतिहास के एसोसिएट प्रोफेसर है और भारतीय इतिहास संकलन समिति हरियाणा के प्रान्त अध्यक्ष है।)

और पढ़ें : भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास का एक पृष्ठ : कूका आन्दोलन

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