- – गोपाल महेश्वरी
पानी पर लिखी हुई बातें लिखते- लिखते बह जाती हैं।
नहीं शेष उनकी किंचित स्मृतियाँ भी रह जाती हैं।
पर एक सदी से सागर के वक्षस्थल पर अंकित अब भी
तुम सुनो लगाकर ध्यान कथा वह लहर- लहर दुहराती है।।
हांँ पराधीन भारत का था तब, थी आग लगी जन के मन में।
‘कैसे माता हो मुक्त?’ यही बस लगन लगी थी जीवन में।
सिंहों की सुनी दहाड़ें तो, ‘गोरे – शूकर’ डर से सहमे
हा! विडंबना फिर भी शासन, था तो गोरों का ही वन में।।
निज मातृभूमि से दूर, शत्रु के घर, उसकी ही छाती पर।
था मूंग दल रहा निर्भय हो इंग्लैंड पहुँचकर सावरकर।
उन गतिविधियों से तंग हुए अंग्रेजों ने तब यह सोचा
निश्चय निरुद्ध रख पाएँगे, उसको वे भारत ले जाकर।।
अंग्रेजों का था वह बंदी जब से जहाज पर आया था।
प्रतिपल काँपा यूनियन जैक हर पल जहाज थर्राया था।
ज्यों ‘भारत का स्वातंत्र्य’ स्वयं प्रिय मातृभूमि की ओर बढ़ा
पर ब्रिटिश राज्य का शासन तो उसको बंदी कर लाया था।।
सागर भी सहमा- सहमा-सा, था डरा- डरा उन्मुक्त गगन ।
कैदी के मन में भड़काता था सिंधु – समीरण और अगन।
‘ कैसे भारत माँ मुक्त बने?’ था हृदय उदधि में बड़वानल
प्रज्वलित प्राण की लपटों से था स्वतंत्रता का महायजन।।
उसके मन का यह दिव्य ताप वे शीतप्रदेशी क्या जानें?
कैसे जानें, उनका बंदी, अपने मन में है क्या ठाने?
शौचालय जाने का कहकर यह नहीं लौट कर आएगा
यह बात भला वे कुटिल बुद्धि माने भी तो कैसे माने?
भागा बस एक लंगोटी में वह खिड़की से शौचालय की।
थी घड़ी महादुस्साहस की मति परे महाविस्मित भय की।
वह कूद पड़ा था सागर में था लक्ष्य फ्रांस की धरती का
जब सिंधु नीर को चीर बढ़ा, थी घड़ी ये अद्भुत निर्णय की।।
भीषण गर्जन उत्ताल लहर उन्मादित सा दिखता सागर।
उससे भी भीषण देशभक्ति का ज्वार बसा उसके अंदर।
सागर का सागर आलिंगन वह अमर छलांग लगा दी तब
था लहर- लहर से फूट पड़ा था स्वर ‘सावरकर सावरकर’।।
सागर से ज्यादा उछल पुथल मच गई जहाज पर थी भारी।
‘वह भाग गया, वह भाग गया’ था शोर, हुई गोलीबारी।
वह राष्ट्रभक्त का पावन तन, बंदूकें शत्रु – अपावन की
छूने से डर- डर कर छिटकी गोलियाँ आज बन बेचारी।।
सागर ने भी जैसे देखा फिर कुपित राम का सायक था।
अड़ता तो सिंधु सुखा देता क्षण आज वही निर्णायक था।
था चला सिंधु को चीर लक्ष्य था तीर राम-शर सा अचूक
कब चला बाण पीछे मुड़ता फिर वह तो वीर विनायक था।।
तट पर पहुँचा इस आशा से यह देश न अपना ना उनका।
है कोई राष्ट्र न अधिकारी, पर-भू पर उनके बंधन का।
कानून कहाँ मानता था, अरि धूर्त, घूस दे, जीत गया
था सिंह बेड़ियों में जकड़ा स्वर उठा भरत-भू क्रंदन का।।
वे क्षण वह साहस वह प्रयास वह अचल मेरु सा दृढ़ निश्चय।
वह पौरुष प्रखर पराक्रम वह, वह अद्भुत मृत्युंजय निर्णय।
था दिखा गया पथ, कैसे यह स्वातंत्र्य समर होगा
अरि से सिखलाती अमर छलांग यही’ कैसे कहना ‘भारत की जय’।।
(लेखक इंदौर से प्रकाशित ‘देवपुत्र’ सर्वाधिक प्रसारित बाल मासिक पत्रिका के संपादक है।)
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