– डॉ कुलदीप मेहंदीरत्ता
भारतीय विचार और संस्कृति में आदर्श शिक्षक के स्वरुप की कल्पना की गई है। जगद्गुरु की उपाधि धारण करने वाले देश भारत में शिक्षक की अवधारणा अत्यंत व्यापक है। शिक्षक को राष्ट्र-निर्माता या देश का भविष्य भी कहा गया है, इस शब्द की गरिमा के अनुरूप ही शिक्षक से आदर्श गुणों को धारण करने की अपेक्षा की गयी है। हमारी संस्कृति में कहा गया है-
‘विद्वत्त्वं दक्षता शीलं, सङ्कान्तिरनुशीलनम्। शिक्षकस्य गुणाः सप्त सचेतस्त्वं प्रसन्नता’॥
अर्थात् ज्ञानवान होना, निपुण होना, विनम्र व्यवहार, पुण्यात्मा सा आचरण, मनन-चिंतन करने वाला, हमेशा सचेत और प्रसन्न रहने वाला – ये शिक्षक के सात गुण हैं। इन गुणों को धारण करने वाले शिक्षक को आदर्श शिक्षक कहा जाता है।
विद्यार्थी पर विद्यालय काल में शिक्षक का प्रभाव सर्वाधिक होता है। शिक्षकों के अक्सर अनुभव में आता है कि विद्यार्थी के माता-पिता विद्यालय में आकर कहते हैं कि ‘इस बच्चे को आप समझाओ, ये आप की बात मानेगा’। ऐसा इसलिए होता है कि उस शिक्षक के ज्ञान तथा आचरण का अमिट प्रभाव विद्यार्थी के मन पर अंकित हो जाता है। शिक्षक अथवा गुरु का कार्य विद्यार्थी के जीवन का मार्गदर्शन करना है। इस आदर्श की कल्पना करते हुए शिक्षकों के लिए हमारे शास्त्रों में कहा गया है –
‘गुकारस्त्वन्धकारस्तु रुकार स्तेज उच्यते। अन्धकार निरोधत्वात् गुरुरित्यभिधीयते’॥
जिसका अभिप्राय इस प्रकार है – ‘गु’कार (अंधकार) और ‘रु’कार (तेज / प्रकाश) अर्थात् मनुष्य अथवा विद्यार्थी के जीवन के अंधकार को मिटाकर जो ज्ञान का प्रकाश देता है, वही गुरु है।
आधुनिक शिक्षा प्रणाली जहाँ आज तक शिक्षक के इन गुणों को आत्मसात कर शिक्षक शिक्षा कार्यक्रम में स्थान नहीं दे पाई है; वहीं भारतीय मनीषियों ने न जाने कितने सालों पहले और शिक्षक के अपेक्षित गुणों को विश्व के सामने प्रस्तुत कर दिया था। भारतीय गुरुकुल प्रणाली ने अथवा भारत के महान शिक्षकों ने कई विद्यार्थियों को महान बनाने में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। मर्यादा-पुरुषोत्तम राम, वीर धनुर्धर लक्ष्मण, महानीतिज्ञ कृष्ण, सत्यभाषी युद्धिष्ठिर आदि महापुरुषों के जीवन में गुरु की भूमिका जग-परिचित है। हमारे गौरव के कारक तक्षशिला, नालंदा, विक्रमशिला और वल्लभी के विश्वविद्यालय इन्हीं गुरुकुलों के ही विकसित रूप थे। यही नहीं आधुनिक युग में भी भारतीय मनीषियों ने राष्ट्रीय और सांस्कृतिक पुनर्जागरण के युग में प्राचीन गुरुकुलों की परंपरा पर अनेक गुरुकुल स्थापित किए गए और यहाँ के शिक्षकों ने राष्ट्रभावना के प्रसार में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
पाश्चात्य शिक्षा प्रणाली और देश के सामाजिक-आर्थिक परिवर्तन ने शिक्षा और शिक्षक के स्वरूप को बदल कर रख दिया। शिक्षा के व्यवसायीकरण ने आज शिक्षा को पैसा कमाने का एक मार्ग बना दिया है और शिक्षक को उसका उपकरण। बड़े-बड़े स्कूल, जहाँ आज पहली कक्षा की वार्षिक फ़ीस लाखों में हैं, उनसे भारतीय संस्कार और मूल्यों की अपेक्षा करना अर्थहीन है। क्योंकि इन स्कूलों में विद्यार्थी का करियर अथवा भविष्य इतना महत्त्वपूर्ण हो गया है कि उसके जीवन के संस्कार और चरित्र पक्ष की लगभग अवहेलना हो जाती है। इसके दुष्परिणाम आज हमारे परिवार, कुल, समाज और राष्ट्र को देखने और भुगतने पड़ रहे हैं।
ऐसे वातावरण में यह दिवस समाज के लिए अपने दायित्व को ध्यान करने का, पुनर्स्मरण करने का अवसर है। समाज के द्वारा शिक्षकों का उचित सम्मान और प्रतिष्ठा की जानी चाहिए। शिक्षक की अर्थ-संतुष्टि परिवार के प्रति उसके उत्तरदायित्व को पूरा करती है और शिक्षक को मन लगाकर कार्य करने को प्रेरित करती है इसलिए उचित मानदेय का प्रबंध – विशेषकर निजी विद्यालयों के शिक्षकों के लिए किया जाना आवश्यक है। किसी कक्षा में पढ़ाते समय एक शिक्षक को विद्यार्थियों से यह प्रश्न पूछने का अवसर मिला कि आप क्या बनना चाहते हैं तो कई विद्यार्थियों का उत्तर था कि वे आईएएस, आईपीएस या किसी भी प्रकार की सरकारी नौकरी पाना चाहते हैं। लेकिन शिक्षक बनने की बात कहने वाला विद्यार्थी इक्का-दुक्का ही था। वास्तविकता यह है कि अपनी पढाई में अग्रणी रहे सर्वश्रेष्ठ विद्यार्थी को शिक्षक बनना चाहिए परंतु यह विषय तो प्रतिभाशाली विद्यार्थियों की प्राथमिकता सूची से ही बाहर है। इस सामाजिक विद्रूपता को दूर करना आवश्यक है।
शिक्षक के लिए भी शिक्षक दिवस अपने दायित्व को ठीक से समझने का, स्मरण का, अवसर है क्योंकि बदलते समाज और शैक्षिक वातावरण को ठीक करने का गुरुत्तर दायित्व भी शिक्षक पर है। भले ही सरकारी शिक्षक बेकार के कार्यों के बोझ तले दबें हो और निजी विद्यालयों के शिक्षक कम वेतन में ज्यादा काम कर रहे हों, परन्तु आज भी विद्यार्थियों के जीवन में सकारात्मक परिवर्तन के कारक के रूप में शिक्षक ही प्रतिष्ठापित है। आवश्यकता है आदर्श शिक्षक के सात गुणों को याद करने की, आत्मसात कर व्यवहार में लाने की; आवश्यकता है आदर्श शिक्षक चाणक्य के वचन को हमेशा याद रखने कि ‘शिक्षक कभी साधारण नहीं होता, प्रलय और निर्माण उसकी गोद में पलते हैं।’
(लेखक चौधरी बंसीलाल विश्वविद्यालय, भिवानी (हरियाणा) में राजनीति शास्त्र के प्रोफेसर और विभागाध्यक्ष है।)
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