– दिलीप वसंत बेतकेकर
हजारों विद्यालय चलते हैं। लाखों शिक्षक पढ़ाते हैं। करोड़ों छात्र पढ़ते हैं, लेकिन परिणाम समान नहीं निकलते। विद्यालय अच्छे शिक्षा परिणाम की इच्छा रखकर प्रयासरत रहता है। प्रबंधन समिति अच्छी साधन सुविधा देने का प्रयत्न करती है। अभिभावक भी बच्चों को अच्छी शिक्षा प्राप्त हो इसलिए कष्ट उठाते हैं, फिर भी अपेक्षित परिणाम नहीं दिखते। इसके अनेक कारण हो सकते हैं। सफल शिक्षा के लिए विभिन्न कारक (factors) होते हैं।
इसमें सर्वाधिक महत्वपूर्ण है शिक्षक-विद्यार्थी केमिस्ट्री। भवन, साधन-सुविधा दिखते हैं। कक्षा में चलने वाली अध्ययन-अध्यापन प्रक्रिया भी दिखती है। न दिखने वाली परन्तु सबसे महत्वपूर्ण बात है शिक्षक-विद्यार्थी की मानसिकता, दोनों के बीच चलने वाली अंतक्रिया, और यही सबसे महत्वपूर्ण है। यह क्लिष्ट प्रक्रिया समझने में, समझाने में सरल नहीं है। सामान्यतः इसकी ओर ध्यान भी नहीं दिया जाता। किन्तु जो विद्यालय इसकी अधिक चिंता और चिंतन करते हैं, उन्हें अधिक अच्छे परिणाम मिलते हैं।
आचार्य विनोबा जी ने एक मौलिक सूत्र बताया है। शिक्षक, विद्यार्थी-परायण (oriented) और विद्यार्थी शिक्षक परायण होना चाहिए। प्रभावी अध्ययन-अध्यापन के लिए यह पहली आवश्यक शर्त है। सूरजमुखी (sunflower) और सूरज में जिस प्रकार का नाता होता है, उसी प्रकार का सम्बन्ध शिक्षक-विद्यार्थी के बीच हो। सूरज सवेरे उगता है तब सूरजमुखी (oriented towards Sun) होता है, और जैसे-जैसे सूरज ढलता है, वैसे ही फूल भी सूरज की ओर अपनी मुख की दिशा बदलता है। इसी प्रकार शिक्षक विद्यार्थी मुखी और विद्यार्थी शिक्षकमुखी बनें तो पढ़ना-पढ़ाना सरल होगा। दोनों के बीच ऐसा सम्बन्ध बने तो श्रेष्ठ परिणाम मिलेंगे।
एक और सुन्दर उदाहरण हम सब जानते हैं, वह है मोती का। कहते हैं कि स्वाति नक्षत्र के समय बरसात के पानी की एक बूंद यदि सीप में गिरती है तो मोती बनता है। इसके लिए स्वाति नक्षत्र का पानी चाहिए। उसी समय सीप का मुँह भी खुला होना चाहिए और पानी की बूंद सीप में अचूक गिरनी चाहिए। यह संयोग एक समय होना कठिन होता है। कभी स्वाति नक्षत्र का पानी होता है लेकिन सीप का मुँह खुला नहीं होता। कभी सीप का मुँह खुला होता है परन्तु स्वाति नक्षत्र में वर्षा ही नहीं होती। कभी-कभी स्वाति नक्षत्र में वर्षा भी होती है और सीप का मुँह भी खुला होता है लेकिन पानी की बूँद सीप में नहीं गिरती। शिक्षा प्रक्रिया में भी ऐसा ही होता है। शिक्षक बहुत कुछ देना चाहता है, लेकिन विद्यार्थी के मन के दरवाजे बंद रहते हैं। कभी विद्यार्थी ग्रहण करने की मनःस्थिति में होता है लेकिन शिक्षक की पूरी तैयारी नहीं होती।
और एक उदाहरण देखें। अपने घर के टीवी सेट का एंटीना घर की छत पर रहता है। कभी-कभी तेज हवा के कारण एंटीना की दिशा बदल जाती है। ऐसी स्थिति में टीवी पर चित्र नहीं दिखाई पड़ता। प्रक्षेपण तो निरन्तर हो रहा है लेकिन हमारे एंटीना की दिशा और स्थिति ठीक न होने के कारण चित्र स्पष्ट नहीं दिखता। बहुत बार कक्षा-कक्ष में भी ऐसी ही स्थिति होती है। शिक्षक प्रक्षेपण करता है लेकिन विद्यार्थी तक पहुंचने में बाधा आती है। शारीरिक बाधाओं से भी ज्यादा मानसिक बाधाएँ होती हैं। यह समझे बिना पढ़ना-पढ़ाना विफल है। पढ़ाने से पहले शिक्षक को कुछ बातें सुनिश्चित करनी पड़ेंगी। कक्षाकक्ष का वातावरण भयमुक्त, तनावमुक्त हो। तनाव या भय के वातावरण में पठन-पाठन प्रभावी नहीं हो सकता। आनंददायी वातावरण अच्छे अध्ययन-अध्यापन के लिए प्रथम आवश्यकता है। हमारे मस्तिष्क में डोपामाइन, सेरोटोनिन, ऑक्सीटोसीन आदि केमिकल्स होते हैं। यह सब शिक्षक-विद्यार्थी को सीखने का वातावरण देने वाले हैं। आनंद-अध्ययन-अध्यापन और ये केमिकल्स एक-दूसरे पर निर्भर हैं, एक-दूसरे के पूरक हैं। इसके बिना अध्यापन-अध्ययन प्रक्रिया शुष्क होती है। इससे अपेक्षित परिणाम नहीं आते।
आचार्य विनोबा भावे अध्यापन कार्य को ‘मातृधर्म मानने वाले का काम’ कहते हैं। माता अपने बालक के लिए जो-जो और जैसा करती है, वह अतुलनीय है। उसकी तुलना अन्य किसी से नहीं हो सकती। उसी प्रकार के और उच्च श्रेणी के कार्य की आचार्यों से भी अपेक्षा विनोबा जी करते हैं। जब तक बच्चा भूखा है, तब तक माँ को चैन नहीं। जब तक बालक सोता नहीं, तब तक माँ को नींद नहीं। बच्चे के सुख के लिए माँ कितने भी कष्ट उठाने को तैयार रहती है। अध्यापन कार्य में ‘मातृधर्म’ का यह अर्थ आचार्यों को समझना चाहिए।
एक बहुत सुंदर, लोकप्रिय भजन सब ने सुना होगा। ‘कौन कहता है भगवान आते नहीं, सोते नहीं, खेलते नहीं’ मीरा जैसे बुलाते नहीं, यशोदा जैसे सुलाते नहीं, शबरी जैसे खिलाते नहीं—-आदि। यही समस्या है। ऐसी मनःस्थिति, मनोभाव रखना आसान नहीं, लेकिन उसके बिना सारे प्रयास व्यर्थ हैं। शिक्षक की एक बार ऐसी मनःस्थिति बन गई तो फिर आगे की सारी प्रक्रिया सरल बन सकती है।
चंपक (चंपा का फूल) का एक कवि ने सुंदर वर्णन किया है –
चंपक तुझमें तीन गुण – रूप, रंग और बास।
अवगुण तुझमें एक है भ्रमर न आवे पास।
भ्रमर (भौंरा) चंपक की ओर आकृष्ट नहीं होता क्योंकि चंपक में ‘मधु’ नहीं। उसी प्रकार शिक्षक के पास ज्ञान, विद्वता, रूप, शैक्षिक गुणवत्ता उच्च कोटि की हो, लेकिन छात्र और अपने अध्यापन कार्य के प्रति प्यार, लगाव नहीं तो उस ज्ञान, विद्वता और शैक्षिक गुणवत्ता का भी अपेक्षित परिणाम नहीं होता।
शिक्षक को बालकों को प्रेरणा देने की कला ज्ञात होनी चाहिए। शिक्षक को प्रेरक (motivator) बनना चाहिए। होरेसमन कहते हैं, “A teacher, who is attempting to teach without inspiring the pupil with a desire to learn, is hammering on cold iron.” लोहे को यदि कुछ आकार देना है तो पहले लोहा आग की भट्ठी में डालना पड़ता है। जब तक वह लोहा भट्ठी में तपकर लाल नहीं होता, तब तक उसको आकार देना संभव नहीं। ठंडे लोहे को आप आकार नहीं दे सकते। उसी प्रकार जब तक शिक्षक बालक के मन में सीखने की इच्छा नहीं निर्माण कर सकता, तब तक अध्ययन-अध्यापन प्रक्रिया सफल नहीं बन सकती।
अल्बर्ट आइंस्टाइन अध्यापन को एक श्रेष्ठ कला मानते हैं। वे कहते हैं, “It is the supreme art of the teacher to awaken joy in creative expression and knowledge.”
एक बार एक भारतीय प्रतिनिधि ने अमेरिका के अध्यक्ष जॉन केनेडी से प्रश्न पूछा, अमेरिका में इतनी समृद्धि कैसे दिखती है? तब जॉन केनेडी ने उत्तर दिया, अमेरिका का हर शिक्षक उसके सामने बैठे हुए विद्यार्थी को अमेरिका का भविष्य में होने वाला राष्ट्रपति है, इस रूप में देखता, सोचता है। “Every teacher in America looks at every student of America as a future President of America.”
हमारे सामने कक्षाकक्ष में बैठे हुए बालकों को हम किस दृष्टि से देखते हैं और उनके बारे में क्या, कैसे सोचते हैं, यह बुनियादी प्रश्न है।
डॉ॰ मारिया मोंटेसरी भगवान से प्रार्थना करती हैं, प्रभो! बाल-जीवन के रहस्यों को समझने में हमारी सहायता करो, जिससे कि हम बालक के स्वरूप को जान सकें, उसे प्यार कर सकें और तुम्हारे नीति-नियमों के अनुसार एवं तुम्हारे दिव्य संकल्प के अनुकूल उसकी सेवा कर सकें।
महाकवि कालिदास ने शिक्षक के बारे में कहा है –
क्लिष्टा क्रिया कस्य चिदात्मसंस्था, संक्रान्तिरन्यस्य विशेषयुक्ता।
यस्योभयं साधु स शिक्षकाणां, धुरि प्रतिष्ठा पायितव्य एव ।।
कुछ शिक्षकों के पास विद्वता, ज्ञान का धन होता है। लेकिन वह प्रभावी ढंग से संप्रेषित नहीं कर सकते। अच्छे शिक्षक के पास ज्ञान भी होना चाहिए और वह देने की कला भी होनी चाहिए। शिक्षक का मन, मानस, मनोभाव, दृष्टि जितनी महत्वपूर्ण है, वैसी ही छात्र की मानसिकता, दृष्टि भी महत्वपूर्ण है।
यः पठति लिखति पश्यति परिपृच्छति पण्डितानुआश्रयति।
तस्य दिवाकर किरणैर्नलिनीदलमिव विकास्यते बुद्धिः ।।
जो अध्ययन करता है, लिखता है, निरीक्षण करता है, प्रश्न पूछता है, पण्डितों का आश्रय लेता है, उसकी बुद्धि, सूर्य किरणों से कमल पुष्प दल जैसे खिलते हैं, फूलते हैं, उसी तरह विकसित होती है।
सामान्यतः अनेक छात्र कक्षा में आकर केवल बैठते हैं। वे Passive रहते हैं। एक शिक्षाविद् ने लिखा, “In every class about 60%, or even more of class is spent on quietly listening to the teacher or taking massive notes.” ऐसे निष्क्रिय छात्र कक्षा में केवल बैठे रहते हैं। ज्ञान और श्रद्धा शिक्षा की दो आँखें हैं। बहुसंख्य छात्रें की यह दोनों आँखें बंद रहती हैं तो शिक्षा कैसे संभव होगी? ‘श्रद्धावान् लभते ज्ञानम्’ विद्यालयों की दीवारों पर लिखा जाता है। क्या हमारे हर छात्र का हृदय श्रद्धा से भरा है, यह महत्वपूर्ण प्रश्न है। जब तक श्रद्धा मन में नहीं होगी, तब तक अपेक्षित सफलता नहीं मिलेगी। ‘प्रणिपातेन, परिप्रश्नेन सेवया’ यह भी हम भलीभांति जानते हैं। विनय के बिना शिक्षा पाना कठिन है। क्या हमारे विद्यालय का हर बालक विनयशील है, ऐसा हम कह सकते हैं? और उस दृष्टि से हमारे प्रयास क्या हैं, यह प्रश्न भी अपने आप से पूछना पड़ेगा।
गुरुशुश्रूषया विद्या – गुरु की सेवा से ही विद्या मिलती है। वर्तमान समय में बच्चों से आचार्य की शारीरिक सेवा की अपेक्षा नहीं रख सकते। गुरु की सेवा का व्याप बढ़ाकर दीन, दुखी, दलित, शोषितों की सेवा का पाठ भी आवश्यक है। अॅरिस्टॉटल हृदय की शिक्षा की बात कहते हैं।
ज्ञान कहीं बाहर से नहीं आता। वह तो अंदर छिपा हुआ है। विनोबाजी कहते हैं, शिक्षण का कार्य कोई स्वतंत्र तत्व उत्पन्न करना नहीं है। सुप्त को जागृत करना है। स्वामी विवेकानन्द जी भी यही बात कहते हैं, शिक्षा बाहर से बच्चों के मस्तिष्क में ठूँसना नहीं है। छात्रों में यह विश्वास जैसे-जैसे विकसित होगा, उसी मात्र में उनके मन में शिक्षा के प्रति आकर्षण-प्रेम बढ़ता जाएगा। जो विद्यालय इस दिशा में, यह उद्देश्य सामने रखकर प्रयासरत रहेगा, उस विद्यालय को स्वाभाविक रूप से अधिक सफलता मिलेगी।
हार्डवेयर और सॉफ्टवेयर, ये दो शब्द आज बार-बार सुनने को मिलते हैं। भवन, साधन-सामग्री, विविध प्रकार के उपकरण यह सब हार्डवेयर हैं जो आवश्यक हैं। लेकिन इससे भी महत्वपूर्ण है सॉफ्रटवेयर, जो दिखता तो नहीं, लेकिन उसके बिना कुछ भी संभव नहीं। साधनों से साधना श्रेष्ठ है। साधनों की होड़ में साधना न भूलें। शिक्षक-शिक्षार्थी की यह केमिस्ट्री अच्छी तरह से समझें और उसके पीछे लगें तो सफलता भी हमारे पीछे लगेगी।
(लेखक शिक्षाविद् है और विद्या भारती अखिल भारतीय शिक्षा संस्थान के अखिल भारतीय उपाध्यक्ष है।)
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