– डॉ. रवीन्द्र नाथ तिवारी
स्वामी विवेकानन्द महान चिन्तक, दार्शनिक एवं भारतीय सनातन संस्कृति के पुरोधा थे। धार्मिक एवं आध्यात्मिक प्रवृति उन्हें विरासत में मिली थी। उन्होंने अपने व्याख्यानों एवं चिन्तन से यह सिद्ध किया कि यदि वेदान्त को आधुनिक आवश्यकताओं एवं मूल्यों से जोड़ा जाय तो भारत की अनेक समस्याओं का समाधान संभव है। स्वामी विवेकानन्द ने समाज के विभिन्न क्षेत्रों में अप्रतिम योगदान दिया। शिक्षा के क्षेत्र में अपने मौलिक चिन्तन से समाज को जागृत कर समग्र विकास हेतु अतुलनीय प्रयास किया।
स्वामी विवेकानन्द ऐसी शिक्षा प्रणाली को उपयुक्त मानते थे जो व्यक्ति को जीवन में आने वाले संघर्ष के लिए तैयार कर सके। उसे इस योग्य बनाये कि भविष्य की चुनौतियों का डटकर सामना कर सके। शिक्षा ऐसी होनी चाहिए जो व्यक्ति को स्वावलम्बी बनाये, उसमें आत्मविश्वास की भावना का विकास कर सके। उन्होंने शिक्षा संबंधी सिद्धान्त में प्रमुख रूप से माना था कि विद्यार्थी को व्यवहारिक प्रशिक्षण देना चाहिए। छात्र सर्वांगीण विकास कर सके ऐसी शिक्षा होनी चाहिए। उनका मानना था कि छात्र को कोई सिखा नहीं सकता, वह स्वयं ही सीखता है। ज्ञान तो व्यक्ति में पहले से ही है, केवल उपयुक्त वातावरण की आवश्यकता होती है। छात्रों के साथ-साथ छात्राओं की शिक्षा पर भी समान रूप से ध्यान देना चाहिए। देश के औद्योगिक विकास के लिए तकनीकी शिक्षा अवश्य दी जानी चाहिए।
विवेकानन्द के अनुसार शिक्षा का उद्देश्य छात्र के व्यक्तित्व का सम्पूर्ण विकास, चारित्रिक विकास, नैतिक विकास, आध्यात्मिक विकास, त्याग की भावना का विकास, राष्ट्रीय एकता की भावना का विकास, धर्म के प्रति उचित दृष्टिकोण का विकास, विविधता में एकता की भावना का विकास, श्रद्धा की भावना का विकास तथा शक्ति सबल बनाने वाली होनी चाहिए। व्यक्ति का चरित्र, राष्ट्र का चरित्र बनता हैं। व्यक्ति का नैतिक आचरण, सामाजिक उत्थान में योगदान देता है। अतः शिक्षा को इस ओर ध्यान देना चाहिए कि विद्यार्थियों में धर्म के प्रति उचित दृष्टिकोण का विकास हो सके तथा भारतीय सांस्कृतिक मूल्यों को आचरण में ला सके। वास्तव में हमारी शिक्षा का उद्देश्य मानव का निर्माण करना होना चाहिए। पाठ्यक्रम के संबंध में स्वामी जी का विचार था कि विद्यार्थियों को पाठ्यक्रम के माध्यम से अतीत के प्रति सम्मान, वर्तमान की चुनौतियों एवं संघर्ष के लिए सक्षम तथा भावी जीवन को सुखद एवं सुन्दर बनाने में समर्थ बनाना चाहिए। पाठ्यक्रम सैद्धांतिक के साथ-साथ व्यवहारिक भी होना चाहिए तथा वह व्यक्ति को पूर्णता की ओर अग्रसर करने में सहायक होना चाहिए।
स्वामी जी का मानना था कि यदि व्यक्ति एकाग्र होकर अध्ययन, मनन एवं चिन्तन करे तो उसे इसी अर्थ में ज्ञान की प्राप्ति हो सकती है। जो व्यक्ति किसी भी विषय में या ज्ञान विज्ञान की किसी भी धारा में यदि अधिकारपूर्ण एवं पूर्ण ज्ञान प्राप्त करना चाहता है तो उसे एकाग्रता को अपनाना होगा। विद्यार्थी को ऐसा वातावरण देना चाहिए कि वह स्वयं सीख सके क्योंकि सीखता तो वह स्वयं ही है, कोई उसे ज्ञान आवश्यक रूप से सिखा नहीं सकता।
स्वामी जी शिक्षा में शिक्षक की भूमिका को अतिमहत्वपूर्ण मानते थे। शिक्षक/गुरु में तीन गुण अवश्य होने चाहिए-पहला वह अपने विषय का विद्वान हो तथा शिष्य के विषय संबंधी सभी शंकाओं का समाधान करने में सक्षम हो, दूसरा वह चरित्रवान होना चाहिए अर्थात् उसका आचरण ऐसा आदर्श होना चाहिए जिसका अनुकरण कर शिष्य अपने जीवन को भी उत्कृष्टता की ओर ले जा सके, तीसरा शिक्षक का प्रत्येक शिष्य के प्रति पितृवत् व्यवहार होना चाहिए। सभी प्रकार की शिक्षा और अभ्यास का उद्देश्य मनुष्य का निर्माण होना चाहिए। समस्त प्रशिक्षणों का अंतिम ध्येय मनुष्य का विकास करना है। हम मनुष्य बनाने वाला धर्म चाहते हैं, हम मनुष्य बनाने वाले सिद्धान्त चाहते हैं, हम सर्वत्र सभी क्षेत्रों में मनुष्य बनाने वाली शिक्षा चाहते हैं।
स्वामी विवेकानन्द ने शिक्षा को संस्कारों से जोड़ा तथा जीवन को सुखी बनाये रखने के लिए जीवन के 6 प्रमुख शाश्वत सिद्धान्त निश्चित किये, जिन पर विद्यार्थियों को दृढ़ करना, तदर्थ संस्कार देना, शिक्षा का लक्ष्य निर्धारित किया। आत्मा की अमरता, कृतज्ञता एवं विनम्रता का आचरण, माता-पिता एवं गुरु का सदैव ऋणी रहना, प्राणी मात्र में परमात्मा के दर्शन कर सभी के प्रति मैत्री भाव रखना, जीवन के कर्तव्य का कर्म करना एवं परमात्मा की सत्ता पर अटूट आस्था रखना। उनका मानना था कि संस्कार शिक्षा के इन प्रमुख दायित्वों को देश के विद्यालय अवश्य ही निभायेंगे। उन्होंने शिक्षा के उद्देश्य में चरित्र निर्माण के महत्व के बारे में लिखा है कि “यदि आपने उत्तम विचारों को ग्रहण करके उन्हें अपने जीवन एवं चरित्र का आधार बना लिया तो आप उस व्यक्ति से अधिक शिक्षित हैं जिसने संपूर्ण पुस्तकालय को कण्ठस्थ कर लिया है।” इस प्रकार स्वामी विवेकानन्द ने शिक्षा के प्रमुख उद्देश्यों में (1) अन्तःकरण का विकास (2) आध्यात्मिकता का विकास (3) नैतिकता का विकास (4) शारीरिक विकास एवं शुद्धता तथा (5) ज्ञानेद्रियों के प्रशिक्षण को माना था तथा शिक्षण पद्धति में मातृभाषा, शिक्षण में एकाग्रता, प्रेम और सहानुभूति, छात्रों के मनोभावों एवं रुचियों तथा स्वानुभव द्वारा सीखने पर बल दिया।
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29 जुलाई 2020 को भारतीय संसद द्वारा पारित की गयी राष्ट्रीय शिक्षा नीति-2020, 21वीं शताब्दी की पहली शिक्षा नीति है जिसका लक्ष्य प्राचीन और सनातन ज्ञान, भारत की परंपरा और सांस्कृतिक मूल्यों के आधार को संबल प्रदान करते हुए देश के विकास के लिए अनिवार्य आवश्यकताओं को पूरा करना है। इसका उद्देश्य ऐसे इंसानों का विकास करना है जो तर्क संगत विचार और कार्य करने में सक्षम हों, जिनके करुणा और सहानुभति, साहस और लचीलापन, वैज्ञानिक चिंतन और रचनात्मक, कल्पना शक्ति एवं नैतिक मूल्य का समावेश हो। राष्ट्रीय शिक्षा नीति में लेख है कि विद्यार्थियों के विशिष्ट क्षमताओं की पहचान और विकास, शिक्षा के ढांचे को लचीला, सीखने पर जोर, रटने की प्रवृत्ति को हतोत्साहित करना, तार्किक एवं रचनात्मक सोच का विकास होना चाहिए। राष्ट्रीय शिक्षा नीति मातृभाषा में ही प्राथमिक शिक्षा पर जोर देती है। इसमें वर्णित है कि जहाँ तक संभव हो, कम से कम ग्रेड 5 तक लेकिन बेहतर यह होगा कि यह ग्रेड 8 और उससे आगे तक शिक्षा का माध्यम मातृभाषा होगी। राष्ट्रीय शिक्षा नीति शिक्षा के माध्यम से भाषा, कला और संस्कृति के संवर्धन पर भी जोर देती है। वर्णित है कि व्यक्तियों की प्रसन्नता, कल्याण, संज्ञानात्मक विकास एवं सांस्कृतिक पहचान वह महत्वपूर्ण कारण हैं जिसके लिए सभी प्रकार की भारतीय कलाएँ, प्रारंभिक बाल्यावस्था देखभाल को शिक्षा से आरम्भ करते हुए शिक्षा के सभी स्तरों पर विद्यार्थियों को प्रदान की जानी चाहिए। शारीरिक शिक्षा को भी पाठेयत्तर से पाठ्यक्रम का महत्वपूर्ण हिस्सा बनाया गया है।
राष्ट्रीय शिक्षा नीति में व्यवसायिक शिक्षा को प्राथमिकता देते हुए कहा गया है कि समस्त शिक्षण संस्थान चरणबद्ध तरीके से व्यवसायिक शिक्षा के कार्यक्रमों को मुख्यधारा की शिक्षा में एकीकृत करें और इसकी शुरुआत आरंभिक वर्षों में व्यवसायिक शिक्षा के अनुभव प्रदान करने से हो, जो सुचारु रूप से प्राथमिक, माध्यमिक एवं उच्चतर माध्यमिक कक्षाओं से होते हुए उच्चतर शिक्षा तक जाय। स्कूल और उच्चतर शिक्षा के प्रणाली के माध्यम से कम से कम 50 प्रतिशत विद्यार्थियों को वर्ष 2025 तक व्यवसायिक शिक्षा का अनुभव प्रदान किया जायेगा जिसके लिए लक्ष्य और समयसीमा के साथ एक स्पष्ट कार्ययोजना विकसित की जायेगी।
राष्ट्रीय शिक्षा नीति-2020 शिक्षकों की गुणवत्ता पर विशेष जार देती है। वास्तव में विद्यार्थी कैसे सीखें तथा सीखे हुए को जीवन के व्यवहार में कैसे उतारें, अपने अस्तित्व और जीवन के लक्ष्य का निर्धारण कैसे करें और उससे भी अधिक यह महत्वपूर्ण है कि विद्यार्थियों में सामाजिक सरोकार और संवेदनशीलता कैसे विकसित की जाय। इन सभी पहलुओं को वास्तविक धरातल पर उतारने के लिए शिक्षकों को समर्पण भाव से अपना योगदान देना होगा। राष्ट्रीय शिक्षा नीति में प्रत्येक स्तर पर शिक्षक के पेशे में सबसे होनहार लोगों का चयन करने का उल्लेख है। गुणवत्तापूर्ण शिक्षा के लिए शिक्षक के महत्व पर सर्वाधिक जोर दिया गया है। लेख है कि प्रत्येक विद्यार्थी के विशिष्ट क्षमताओं की पहचान और उसके विकास के लिए शिक्षकों और अभिभावको को विद्यार्थियों की क्षमताओं के प्रति संवेदनशील होना पड़ेगा जिससे छात्रों की अकादमिक और अन्य क्षमताओं का पूर्ण विकास हो सके। अध्यापन की शिक्षा गुणवत्ता, भर्ती, पदस्थापना, सेवा शर्तों और शिक्षकों के सम्मान एवं अधिकारों पर विशेष बल दिया गया है। विद्यार्थियों को भी प्राचीन सनातन संस्कृति के अनुसार शिक्षकों का उच्चतर दर्जा और उनके प्रति आदर एवं सम्मान के भाव को पुनर्जीवित करना होगा तभी राष्ट्र विश्व में शिक्षा के क्षेत्र में अग्रणी भूमिका निभा सकेगा तथा भारत पुनः विश्वगुरु के पद पर प्रतिष्ठित हो सकेगा।
(लेखक शासकीय आदर्श विज्ञान महाविद्यालय, रीवा (म.प्र.) में भू-विज्ञान विभागाध्यक्ष है।)
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