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स्वामी भारती कृष्ण तीर्थ का जन्म 14 मार्च 1884 (चैत्र शुक्ल तृतीया) को तिन्निवेलि (Tinnevally) तमिलनाडु में एक विद्या-विनय सम्पन्न परिवार में हुआ था। माता-पिता की ओर से उन्हें व्यंकट रमण नाम प्राप्त हुआ। व्यंकट रमण एक असाधारण कुशाग्र बुद्धि वाले विद्यार्थी थे। अपने सारे विद्यार्थी जीवन में सभी कक्षाओं में सभी विषयों में प्रथम स्थान पाते थे। उन्होंने अपनी मैट्रिक की परीक्षा मद्रास विश्वविद्यालय से जनवरी 1899 में हमेशा की तरह सर्वप्रथम स्थान प्राप्त कर उत्तीर्ण की।
संस्कृत भाषा पर उनका अधिकार और प्रभावपूर्ण धारा प्रवाह भाषण की उनकी क्षमता से प्रभावित होकर वर्ष 1899 में ही मद्रास संस्कृत संस्था ने उनको ‘सरस्वती’ की उपाधि से विभूषित किया। इस स्थिति में उनके संस्कृत के गुरु श्री वेदम् वेंकटराय शास्त्राी का उनके ऊपर अमिट प्रभाव नहीं भुलाया जा सकता। उनका स्मरण वे सदा श्रद्धापूर्वक तथा कृतज्ञता से करते थे।
बी.ए.और एम.ए. की परीक्षाओं में उन्होंने पूर्ववत् सर्वोच्च अंक प्राप्त किए। केवल बीस वर्ष की आयु में सन् 1904 में उन्होंने अमेरिकन कॉलेज ऑपफ साइंस रोचेस्टर न्यूयार्क के बम्बई केन्द्र से सात विषयों में एक ही साथ एम.ए. की परीक्षा सर्वोच्च अंकों के साथ उत्तीर्ण कर सभी को आश्चर्य में डाल दिया। इन विषयों में इतिहास, संस्कृत, दर्शन, अंग्रेजी, गणित और विज्ञान जैसी विषय की विविधता के कारण उनकी यह उपलब्धि और भी विस्मयकारी थी।
धर्म और दर्शन के साथ-साथ आधुनिकतम राजनैतिक-वैज्ञानिक चिन्तन और अनुसंधान में उनकी रुचि जीवन भर कम नहीं हुई। अपनी शिक्षा पूर्ण कर लेने के बाद वे गोपाल कृष्ण गोखले और देशबन्धु चितरंजन दास द्वारा चलाए जा रहे राष्ट्रीय शिक्षा के आन्दोलन में भाग लेने के लिए नाममात्र के वेतन पर अध्यापक बन गये। तीन वर्ष पूरे होते-होते उनकी उत्कृष्ट आध्यात्मिक जिज्ञासा उन्हें शृंगेरी मठ की ओर खींच ले गई परन्तु राष्ट्रीय शिक्षा अभियान को अभी उनकी और आवश्यकता थी। इसलिए वे राज महेन्द्री के ‘नेशनल कॉलेज’ के प्राचार्य बनकर गए। यहाँ भी तीन वर्ष सेवा करने के बाद सन् 1911 में एक बार फिर वे शृंगेरी मठ के शंकराचार्य स्वामी सच्चिदानंद शिवाभिनव नृसिंह भारती के पास चले गए। वहाँ उन्होंने अगले आठ वर्ष वेद-वेदांग और दर्शन के गहन अध्ययन के साथ निकटवर्ती वनों में गंभीर योग साधना में व्यतीत किए। इसी साधना के दौरान उनको वैदिक ऋचाओं और आख्यानों के गूढ़ रहस्यों का दर्शन हुआ।
ज्ञान, आयु और अनुभव की प्रौढ़ता प्राप्त कर लेने के बाद 35 वर्ष की आयु में शारदापीठ के शंकराचार्य स्वामी त्रिविक्रम तीर्थ महाराज ने 4 जुलाई सन् 1919 को उन्हें काशी में सन्यास की दीक्षा दी और नाम दिया स्वामी भारतीकृष्ण तीर्थ।
सन्यास लेने के कुल दो वर्ष बाद ही सन् 1921 में उन्हें शारदा पीठ का शंकराचार्य बनाया गया। सम्पूर्ण भारत का भ्रमण और जन जागरण का उनका कार्यक्रम अनवरत चलता रहा। इसी अवधि में 1921 में उन्होंने कराची में आयोजित खिलाफत कांफ्रेस में भाग लिया। देशभर में घूम-घूम कर स्वतंत्राता संग्राम की अलख जगाई और 1922 में मुंगेर में दिए गए एक व्याख्यान के कारण उन्हें हजारीबाग की जेल में एक वर्ष की सजा काटनी पड़ी।
सन् 1925 में उन्हें गोवर्धन पीठ के शंकराचार्य पद पर विभूषित किया गया। वे गोवर्धन पीठ के 143वें शंकराचार्य थे। उन्होंने 1953 में नागपुर में विश्वपुनर्निमाण संघ की स्थापना की।
1958 में खराब स्वास्थ्य के बावजूद ‘सेल्पफ रियलाइजेशन फेलोशिप’ नामक संस्था के आमंत्राण पर संयुक्त राज्य अमेरिका की यात्रा की। स्वामी जी ने वहाँ तीन माह प्रवास किया। इस अवधि में उन्होंने कई महाविद्यालयों, गिरिजा घरों तथा सार्वजनिक संस्थानों में प्रवचन दिए। उन्हें गणितीय प्रदर्शन करने के लिए आमंत्रित किया गया था। अपनी वापसी यात्रा में उन्होंने कुछ भाषण ब्रिटेन में भी दिए थे।
वैदिक विज्ञान उनका प्रिय विषय था और वैदिक गणित को वे उसकी प्रत्यक्ष एवं व्यावहारिक विद्या के रूप में प्रस्तुत करते थे। इस प्रकार के सैकड़ों व्याख्यान उन्होंने भारत के विभिन्न नगरों में घूम-घूम कर वहाँ के प्रबुद्ध जनों के समक्ष दिये थे। काशी और नागपुर के विश्वविद्यालयों में तो उन्होंने बकायदा कक्षाएँ भी लगायी थीं।
स्वामी भारती कृष्ण तीर्थ द्वारा रचित ‘वैदिक गणित’ नामक ग्रन्थ एक अद्भुत चमत्कारी एवं क्रान्तिकारी ग्रन्थ है। गणित के प्रश्नों को हल करने का इसमें नितांत नवीन दृष्टिकोण प्रस्तुत किया गया है। इस ग्रन्थ में 16 सूत्र, 13 उपसूत्रों के आधार पर शीघ्र गणना की विधियाँ प्रस्तुत की हैं।
वैदिक गणित ग्रन्थ परिचय –
‘वैदिक गणित’ नामक ग्रन्थ स्वामी जी के देहावसान के पश्चात् 1965 में बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय द्वारा प्रथम प्रकाशित हुआ जो विश्व प्रसिद्ध है। इस पुस्तक का सम्पादन डॉ॰ वासुदेव शरण अग्रवाल ने किया है, जो उन दिनों विश्वविद्यालय में नेपाल राज्य ग्रंथमाला के प्रमुख संपादक थे। इस पुस्तक की प्रस्तावना स्वामी श्री प्रत्यगात्मानंद जी ने लिखी है तथा श्रीमती मंजुलाबेन त्रिवेदी द्वारा लिखित My Beloved Gurudeo यह लेख भी पुस्तक में समाविष्ट है। श्री स्वामी जी ने स्वयं इस पुस्तक की भूमिका लिखी है। पुस्तक कुल 40 प्रकरणों में विभाजित है जिसमें 16 प्रकरण अंकगणित पर, 19 प्रकरण बीजगणित पर तथा 3 प्रकरण भूमिति पर हैं। एक अध्याय Vedic Numerical Code पर है तथा अन्तिम अध्याय में वैदिक गणित सूत्रों का अनुप्रयोग गणितशास्त्र के जिन विभिन्न शाखाओं में सम्भव है, उसकी चर्चा है। प्रकरणशः निम्नलिखित विषयों की चर्चा उपलब्ध है।
प्रकरण विषय अंकगणित
1 वैदिक सूत्रों का प्रत्यक्ष प्रयोग (Actual Application of Vedic Sutras.)
2, 3 गुणन (Multiplication)
4, 5, 27 भाग (Division)
31, 32, 33 संख्याओं का वर्ग तथा घन (Square and Cube of Numbers)
34, 35, 36 संख्याओं का वर्गमूल तथा घनमूल (Square root and Cube root of Numbers)
26 आवर्त दशमलव (Recurring Decimals)
28 सहायक भिन्न (Auxiliary Fractions)
29, 30 विभाज्यता (Divisibility)
प्रकरण विषय बीजगणित
6 बहुपदों का भागाकार (Division of Polynomials)
7, 8, 9, 22 वर्ग तथा घन बहुपदों के गुणनखण्ड (Factorization of Quadratic and Cubic polynomials)
10 महत्तम समापवर्तक (Highest Common Factor)
11, 12 से 16, 20 रैखिक समीकरण तथा युगपत् रैखिक समीकरण
(Simple equations, Merger type of Simple equations, Complex mergers, imultaneous equations)
17, 18, 19, 21 वर्ग, घन तथा चतुर्घात समीकरण (Quadratic, Cubic, Bi-quadratic Equations)
23, 24 आंशिक भिन्न (Partial Fractions)
प्रकरण विषय रेखागणित
37, 38 पायथागोरस प्रमेय, अपोलोनियस प्रमेय (Pythagoras Theorem, Apollonius Theorem)
39 विश्लेषिक शांकव गणित (Analytical Conics)
40 विविध विषय (Miscellaneous Matters)
प्रमेयों में किसी गणितीय सत्य का प्रतिपादन किया जाता है। इस अर्थ में स्वामी जी के सूत्र प्रमेय नहीं हैं, स्वामी जी के सूत्र सत्य को प्रमाणित करने तथा प्रश्नों को हल करने के विविध तरीके हैं। तर्क और परिणाम तक पहुँचने की विधियाँ हैं, सरलता, सुग्राह्यता, सहजता तथा शीघ्रता इन विधियों की विशेषता है।
आधुनिक काल में इन सूत्रों का प्रयोग अंकगणित, बीजगणित, रेखागणित, त्रिकोणमिति, खगोलशास्त्र, कलनशास्त्र (Calculus), सांख्यिकी (Statistics), प्रायिकता (Probability), इत्यादि क्षेत्रों में अधिक फलदायी सिद्ध हुआ है। इन सूत्रों के प्रयोग से विषयवस्तु को सरल एवं आनन्ददायी बनाने में बहुत सहायता होती है। इन सूत्रों के अभ्यासपूर्वक प्रयोग से न केवल गणनक्षमता की वृद्धि होती है, अपितु मेधाशक्ति, तर्कशक्ति, अनुमानक्षमता, आकलनशक्ति, सहसंबंध-विश्लेषण की क्षमता, पुनरावृत्तिमूलक क्षमता (Iterative ability) प्रतिमानवाचन क्षमता (Pattern reading ability) आदि मानसिक तथा बौद्धिक क्षमताओं का विकास होता है अर्थात् गणितशास्त्र के साथ-साथ अन्यान्य विषयों के अध्ययन-अध्यापन में ये सारी क्षमताएँ परमोपयोगी सिद्ध होती हैं।
आज का काल स्पर्धा परीक्षाओं का है। उसमें सफल होने के लिए गति एवं शुद्धता (Speed and Accuracy) अति आवश्यक है। इन सूत्रों के प्रत्यक्ष अनुप्रयोग से तथा इनके अभ्यास से वर्धित सभी क्षमताओं का उपयोग किसी भी स्पर्धा परीक्षा में फलदायी सिद्ध होता है, इसका अनुभव देश-विदेश के सम्बन्धित विद्वानों को आज हो रहा है।
वैदिक गणित की विधियाँ एक ओर जहाँ गणित शिक्षण को सरल एवं रोचक बनाती हैं वहीं दूसरी ओर नवीन शोध की ओर प्रेरित करती हैं।
गणित के क्षेत्र में स्वामी भारती कृष्ण तीर्थ का अद्वितीय योगदान है। उन्होंने 2 फरवरी (बसंत पंचमी) 1960 में बम्बई में महासमाधि ले ली।
संदर्भ-
- वैदिक गणित, मोतीलाल बनारसी दास पब्लिशर्स प्राइवेट लिमिटेड, बंगलो रोड, जवाहर नगर, दिल्ली
- Secret of India’s Greatness, Jagrati Prakashan, F-109, Sector- 27, Noida – 201301
- वैदिक गणित परिचय, भारतीय शिक्षण मण्डल, कानपुर
- वैदिक गणित प्रणेता, पूज्य श्री भारतीकृष्ण तीर्थ जी, शिक्षा संस्कृति उत्थान न्यास, नई दिल्ली।
(साभार – पुस्तक: भारत के प्रमुख गणिताचार्य, लेखक – डॉ० देवी प्रसाद वर्मा, श्रीराम चौथाईवाले, देवेन्द्रराव देशमुख)
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