– दिलीप वसंत बेतकेकर
तिमाही परीक्षा के पश्चात प्रगति पुस्तक पर पालकों के हस्ताक्षर लेकर छठी कक्षा के विद्यार्थी, अपनी कक्षा अध्यापिका के पास, प्रगति पुस्तक जमा कर रहे थे। रूपेश की बारी आयी। थोड़ा सा सहमते हुए वह प्रगति पुस्तक दें अथवा नहीं, इस उधेड़बुन में खड़ा रहा।
गर्दन झुकाकर शिक्षिका की नज़रों से बचते हुए प्रगति पुस्तक उनके हाथ में दे दी। शिक्षिका द्वारा उस प्रगति पुस्तक को स्वीकारने पर उसने राहत की सांस ली! वह अपने स्थान पर जाकर बैठ गया। उसकी छाती धड़धड़ा रही थी!
“रूपेश, इधर आओ”, शिक्षिका की तीखी आवाज़ उसके कानों ने सुनी और वह सकपकाया। जैसे-तैसे टेबल के पास पहुंचा। शिक्षिका के हाथ में उसकी प्रगति पुस्तक थी! “ये हस्ताक्षर किसने किये?” शिक्षिका ने पूछा।
रूपेश का चेहरा तुरंत निस्तेज हो गया। वह चुप रहा, गर्दन नीचे किये खड़ा रहा! “पापा ने”! वह बुदबुदाया। उसकी आवाज़ अत्यंत धीमी थी!
“सच-सच बताओ! हस्ताक्षर किसने किये?” अध्यापिका की आवाज़ गरजी! अब तो वह शक्तिहीन हो गया। उसका झूठ पकड़ा गया था। पापा के बदले उसने स्वयं हस्ताक्षर कर दिये थे! चार-पांच विषयों में अनुत्तीर्ण हो गया था वह! ऐसी लाल रेखाएं अंकित प्रगति पुस्तक वह पापा को कैसे दिखाता?
ऐसे अनेक रूपेश होंगे जिनकी प्रगति पुस्तकें लाल रंग से रक्त रंजित सी लगती होंगी। ऐसी लाल रेखाओं का कारण न समझने के कारण दोष विद्यार्थी पर मढ़ा जाता है। शिक्षक इसके लिए विद्यार्थी और पालक को जिम्मेदार मानते हैं तो कभी सारे पाप का ठीकरा पालकगण उनके शिक्षक और विद्यार्थी के सिर पर पफोड़ते हैं। इन दोनों ही में विद्यार्थी ‘कॉमन’ है!
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प्रगति पुस्तक पर नाम लिखा होता है रूपेश का… अपने पुत्र का। परन्तु वह प्रगति पुस्तक वास्तव में रूपेश की ही होती है क्या?
भले ही नाम लिखा हो अकेले रूपेश का, परन्तु वास्तव में होती है वह प्रगति-पुस्तक विद्यार्थी, पालक और शिक्षक तीनों की! पालकों और शिक्षकों को यह बात हज़म करना कठिन है। शिक्षकों को तो यह बात बिल्कुल रास नहीं आयेगी? अनेक शिक्षक तो यह पढ़ने पर अत्यंत गुस्सा करेंगे, क्रोधित होंगे। गुस्सा ठंडा होने पर शांति से विचार करें! किसकी गलती है इस बात को लेकर दोष न मढ़ते हुए क्या गलती है और उसे कैसे सुधारा जाए इस पर विचार करें तो सभी के लिये कल्याणकारी रहेगा। पहले तो यह मान्य करना होगा कि प्रगति पुस्तक पर नाम अकेले विद्यार्थी का होते हुए भी प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से यह प्रगति पुस्तक पालक और शिक्षक की भी होती है। यश अथवा अपयश के लिये केवल पाल्य ही जिम्मेदार न होकर पालक, शिक्षक भी जिम्मेदार है।
प्रगति पुस्तक में लाल रेखाएं देखकर पालक और शिक्षक हंगामा मचाने के स्थान पर प्रगति पुस्तक का ध्यान से अध्ययन करें! विश्लेषण करें! अनेक कारणों पर विचार करना होगा। केवल लाल रेखा वाले प्रगति पुस्तक ही नहीं अपितु जिन प्रगति पुस्तकों में एक भी लाल रेखा नहीं, ऐसी प्रगति पुस्तकों का भी अध्ययन करना चाहिये। यश के एक छोर से दूसरे शिखर तक पहुंचने के लिए प्रगति पुस्तक का अध्ययन करना आवश्यक है। अपयश आने पर हताश न होते हुए, नाउम्मीद न होते हुए, जोश और ज़िद के साथ मार्गक्रमण करने हेतु प्रगति पुस्तक का अध्ययन करना चाहिये।
‘क्लीनिकल’ दृष्टि से अध्ययन करने पर अनेक बातें समझ में आयेंगी। कुछ साधारण सी, सरल सी बातें जो पूर्व में दुर्लक्षित की गई हों, भी सामने आ सकती हैं। कुछ दहलाने वाली तो कुछ आश्चर्यजनक बातें दिखाई देंगी। वाचन दोष, श्रवण दोष, दृष्टि दोष जैसे अध्ययन में बाधक दोष दिखाई दे सकते हैं। कुछ दोष तो इतने सूक्ष्म होते हैं कि सामान्यतः नज़र नहीं आते! कुछ कारण इतने नगण्य होते हैं कि दिखने पर भी उनके परिणामों से हम अनभिज्ञ रहते हैं। ये कारण हंसी-हंसी में टालने योग्य नहीं होते। कुछ कारण तो सरसरी नज़र से गौण दिखते हैं, गंभीर नहीं लगते, परन्तु बहुत नुक्सानदायी होते हैं।
सौभाग्य से आज अनेक प्रकार के परीक्षण उपलब्ध हैं। शारीरिक और मानसिक कारणों को ढूंढ निकालने वाले अनेक टेस्ट ज्ञात हैं। प्रगति पुस्तक की लाल रेखाएं मिटा देने हेतु और प्राप्त अंकों से अधिक अंक प्राप्ति हेतु ये निदानात्मक परीक्षण उपयुक्त होंगे। परीक्षा पेपर के अंक में वृद्धि करना यही एक उद्देश्य नहीं है। बच्चों की योग्यता का उचित यश उन्हें अवश्य प्राप्त होना चाहिये।
क्षमता न रखने वालों से उचित से अधिक अपेक्षा करना अनुचित होगा। परन्तु आज के अनुभव भिन्न हैं। जिनके पास बुद्धिमत्ता है वे क्यों पीछे रहें? उनकी प्रगति पुस्तक किस कारण लाल रंग से रंगें? इन प्रश्नों का गंभीरता से विचार किया जाये तो विविध कारण दिखने लगेंगे!
प्रगति पुस्तक क्या कह रही है, क्या बोल रही है? क्या सुझाव दे रही है? क्या ध्वनित कर रही है? ये बातें शिक्षक-पालकों द्वारा शांति से, पूर्वाग्रह न पालते हुए, समझने का प्रयास करना चाहिए।
प्रगति पुस्तक मां-पिता के लिये भी कुछ संदेश देती है, और शिक्षकों को भी कुछ सुझाव देना चाहती है। किन्तु समय किसके पास है पढ़ने-सुनने के लिए? बहुसंख्य बच्चों को मूलभूत संकल्पना ही समझ में नहीं आती और पाठ्यक्रम पूर्ण करने के लिए जल्दबाजी के कारण अथवा कुछ दबाव के कारण आगामी पाठ भी अतिशीघ्रता से पढ़ाया जाता है। बच्चा उस जंगल में पूरी तरह खो जाता है। दूरदर्शन, मोबाइल के अतिरेक उपयोग से चंचलता, उच्छृंखलता, उद्दण्डता बढ़ रही है।
कुछ बालकों को कुछ विषयों में बिल्कुल रुचि नहीं होती। कुछ विषय अपने लिये उपयुक्त नहीं, ऐसी धारणा बनती है, इसलिये उस विषय की ओर पूर्ण दुर्लक्ष हो जाता है। गणित जैसे विषय के लिये निरंतर अभ्यास की आवश्यकता होती है, परन्तु आवश्यकतानुरूप निरंतर अभ्यास नहीं हो पाता। तितिक्षा, धैर्य जैसे गुण न हों तो विषय प्रसन्न कैसे होंगे? कम से कम और ‘कामचलाऊ’ अध्ययन करने की प्रवृत्ति आजकल बढ़ रही है। ऐसे बच्चे ही अधिक देखने में आते हैं। इस प्रवृत्ति का बदलाव होने पर ही प्रगति पुस्तक में प्रगति दिखाई देगी। जिस विषय में बहुसंख्य विद्यार्थी अनुत्तीर्ण हो रहे हों, कम अंक प्राप्त करते हों, तब उस विषय के शिक्षक को भी इस पर विचार करना आवश्यक नहीं क्या? प्रगति पुस्तक की लाल रेखाएं शिक्षकों को संकेत नहीं देतीं क्या?
शाला समय के पश्चात ‘ट्यूशन’ के लिये भेजना पालकों की दृष्टि से उनके द्वारा सम्पन्न किया गया एक महान ‘कर्तव्य’ है, ऐसा अनेक पालक समझते हैं। अपने बच्चे के लिये हमने किस प्रतिष्ठित शाला में कितनी मोटी रकम फीस के लिये भरी है, इसकी चर्चा लोगों के साथ करने में उन्हें प्रतिष्ठा अनुभव होती है। मूल कारण को न समझते हुए कुछ अनुपयोगी उपचार करते रहने में कोई भलाई नहीं है।
पालकों को एक प्रयोग करना बेहतर होगा। प्राथमिक स्तर से वर्तमान तक की, पाल्य की प्रगति पुस्तकों को सुव्यवस्थित ढंग से एक फाइल में रखें। उसे ‘केस हिस्ट्री’ कह सकते हैं। कभी बालक अपनी ही प्रगति पुस्तक का अवलोकन करेगा, ऐसी अपेक्षा करना गलत न होगा। उसका विचार वही करेगा। हो सकता है कुछ अलग ही अच्छी आदत लग जाए।
स्वयं की गई गलतियाँ, लापरवाही आदि का अहसास हो सकता है। स्वयं को इस प्रकार का अहसास होना सबसे महत्वपूर्ण है। दूसरे व्यक्तियों द्वारा किये गये प्रयासों की कुछ सीमा होती है।
शिक्षक, पालक और विद्यार्थियों को चाहिए कि दूसरों से अपनी तुलना कदापि नहीं करें। स्पर्धा से बचें! स्पर्धा और तुलना दोनों कर सकते हैं परन्तु स्वयं की, स्वयं से! दूसरों से नहीं। अन्यों से तुलना करने पर निराशा हाथ लग सकती है। अतः इन दोनों बातों से दूर रहना लाभकारी रहेगा।
आहार-विहार भी महत्वपूर्ण और निर्णायक घटक हैं। प्रगति पुस्तक की लाल रेखाओं के लिए आहार-विहार कारणीभूत होते हैं। वे प्रत्यक्ष दिखते नहीं परन्तु अप्रत्यक्ष रूप से बहुत अधिक प्रभाव आहार-विहार का होता है। ये बात सभी के ध्यान में आती है ऐसा नहीं है। बहुसंख्य लोग इससे बेखबर रहते हैं।
लाल रेखाओं से भरी प्रगति पुस्तक पापा को कैसे दिखाएं? दिखाने पर वे क्या सोचेंगे? परिणाम क्या निकलेगा? इन प्रश्नों से संभ्रमित हुए रूपेश ने आखिर प्रगति पुस्तक पर पापा के स्थान पर स्वयं उनके हस्ताक्षर कर दिये। शिक्षिका की अनुभवी और चतुर नज़रों से ये बात छुप न सकी। संभव है, ‘मैंने गलती पकड़ ली’ इस बात का अभिमान भी उन्हें हो!
रूपेश की गलती पकड़ी गई। परन्तु इस गलती के लिये अनेकों की गलतियां और कारण पालक-शिक्षक द्वारा पकड़ी जा सकेंगी क्या?
(लेखक शिक्षाविद् है और विद्या भारती अखिल भारतीय शिक्षा संस्थान के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष है।)
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