सामाजिक चेतना के अग्रदूत श्रीमंत शंकरदेव

  – सुकन्या बरुआ

 

भारतवर्ष ऋषि-मुनियों एवं सन्तों का देश है। भारत की इस पुण्यभूमि में जन्म लेकर इन पुण्यात्माओं ने सनातन धर्म के प्रचार-प्रसार, संस्कार एवं संरक्षण में अतुलनीय अवदान दिया है। पूर्वोत्तर भारत के असम राज्य में जन्म लेने वाली ऐसी ही एक पुण्यात्मा है श्रीमन्त शंकरदेव। असम में भक्ति आन्दोलन के प्रवर्तक तथा एकशरण-नाम-धर्म (नव वैष्णवधर्म) के संस्थापक महापुरूष श्रीमन्त शंकरदेव बहुमुखी प्रतिभा एवं व्यक्तित्व के धनी व्यक्ति थे। उनके नेतृत्व में असमीया समाज ने धर्म, भाषा, संस्कृति, साहित्य, समाज सुधार इन सभी क्षेत्रों में सर्वोत्कृष्ट उन्नति की। एक समाज सुधारक होने के साथ-साथ श्रीमन्त शंकरदेव एक उच्चकोटि के दार्शनिक, योगसाधक, संगीतकार, नृत्यविशारद (नृत्यकार), कुशल वादक, नाट्यकार, चित्रकार, शिल्पकला, स्थापत्यकला, मुखाशिल्प (मुखौटा बनाने की कला) इत्यादि विविध कलाओं में निपुण थे।

भारतवर्ष में ’तीर्थाटन’ एवं भ्रमण का विशेष महत्व है। गुरु श्रीमन्त शंकरदेव जी ने अपने जीवन काल में सम्पूर्ण भारतवर्ष का दो बार भ्रमण किया। प्रथम बार (ई. सन् 1481-1493) तक) भारत की यात्रा में वे बदरीनाथ धाम से रामेश्वरम तक और द्वारका से जगन्नाथ पुरी तक लगभग सभी प्रसिद्ध स्थानों पर गए। इस दीर्घ यात्रा में उन्होनें भारत की विविधतापूर्ण संस्कृति में एकात्मता का दर्शन किया; इस यात्रा के दौरान उन्होंने सम्पूर्ण भारत को देखा, जाना और समझा। भारत की अखण्डता, गौरवपूर्ण इतिहास तथा संस्कृति के प्रति सदा सजग और अनुभवी गुरु, श्रीमन्त शंकरदेव ने अपनी यात्राओं एवं स्वाध्याय से अर्जित ज्ञान तथा दिव्य अनुभव को असमीया समाज के प्रत्येक व्यक्ति और प्रत्येक घर तक पहुँचाना चाहा; जो उनकी रचनाओं में हमें स्पष्ट रूप से प्राप्त होता हैं। उन्होंने समाज के उत्थान हेतु धार्मिक-सामाजिक-सांस्कृतिक कार्यों के निरन्तर अभ्यास, साधना संरक्षण हेतु जाति-वर्ण निर्विशेष नामघर एवं सत्रों (थान) की स्थापना की।

सामाजिक उत्थान हेतु समसामयिक समाज में धर्म के नाम पर प्रचलित तथा समाज में व्याप्त धार्मिक आडम्बर एवं कुप्रथाओं को दूर करने का एक सफल अभियान श्रीमन्त शंकरदेव ने चलाया जिसके द्वारा उन्होंने असम के विभिन्न जातियों तथा जनजातियों को अपने देश की मूल सांस्कृतिक धारा से दूर होने से बचाया। उन्होंने समाज के सभी वर्गों (स्तर) के  लोगों को समन्वय के भाव से एकजुट तथा समाज को संस्कारित भी किया। सम्पूर्ण समाज को भारतीय परम्परा में ईश्वर पद प्राप्त भगवान श्रीकृष्ण एवं श्रीराम के आदर्श मूल्यों से भी परिचित कराने के लिए इन्होंने अपनी कृतियों को आधार बनाया; तथा रामायण, महाभारत, श्रीमद्भागवत जैसे विश्वव्यापी ग्रन्थों के आधार ग्रन्थों की रचनाएँ की।

जय गुरु शंकर सर्व गुणाकर जाकेरि नाहिके उपाम।

तोहारि चरण  रेणु शतकोटि बारेक करोंहों प्रणाम (श्रीश्रीमाधवदेव)”

सनातन संस्कृति के महनीय उपलब्धियों को गुरु श्रीमन्त शंकरदेव ने समकालीन बोलचाल की भाषा असमीया (प्राचीन असमीया) को अपनी कृतियों का आधार बनाकर तथा अपूर्व स्वकीय शैली के द्वारा उसे सुसज्जित करके प्रस्तुत किया; जो कालान्तर में काव्यभाषा के रूप में प्रतिष्ठित हुई। लोकजीवन की शब्दावली ने इस काव्यभाषा को समृद्ध किया; फलस्वरूप श्रीमन्त शंकरदेव जनमानस तक अपने संवाद को पहुचाने में पूर्ण रूप से सफल रहे। असमिया समाज एवं भारतीय साहित्य परम्परा को शंकरदेव जी का एक विशिष्ट अवदान ब्रजावली भाषा भी है। शंकरदेव जी द्वारा सृष्ट ब्रजावली एक कृत्रिम भाषा है जिसका प्रयोग शंकरदेव ने अपने अंकीया नाटकों में किया। ब्रजावली भाषा में मैथिली, संस्कृत, भोजपुरी, अवधी, व्रज और अन्य भाषिक तत्वों का सम्मिश्रण प्राप्त होता है। इस विषय में आज भी गम्भीर अध्ययन और शोधकार्य शेष है।

ध्यातव्य है कि भारतीय संस्कृति के संरक्षण एवं प्रचार हेतु कला बहुत ही प्रभावशाली माध्यम है। अतएव शंकरदेव जी ने कला के माध्यम से धर्म-प्रचार की एक अपूर्व शैली की उद्भावना की। इसकी सर्वप्रथम भाववाहक एवं अभिव्यञ्जक कलात्मक इकाई अंकीया नाटक है। श्रीमद्भागवत महापुराण, महाभारत, रामायण इत्यादि महाकाव्य तथा पौराणिक ग्रन्थों के घटना विशेष को अधार बनाकर उन्होनें अंकीया नाटकों की रचना की। भक्ति-आन्दोलन के फलस्वरूप ही हमें आज सत्रीया नृत्यशैली प्राप्त होती है। श्रीमन्त शंकरदेव की अनुपम सृष्टि सत्रीया-नृत्य भारतवर्ष के आठ शास्त्रीय नृत्यों में से एक है। अंकीया नाट से ही परवर्ती समय मे स्वतन्त्र रूप से सत्रीया नृत्य विकसित हुआ। उनके नृत्य में भगवत्भक्ति की पराकाष्टा है। यद्यपि भक्त कवि शंकरदेव का लक्ष्य दार्शनिक सिद्धांतों का विवेचन करना नही था तथापि जीव, जगत्, मोक्ष, माया आदि के संबन्ध में इस प्रकार की अनेक पंक्तियाँ उनके ग्रन्थों में प्राप्त होती हैं जिनके आधार पर उनकी दार्शनिक धारणाएं पूर्णत: व्यक्त हो जाती हैं। उनके भक्ति दर्शन का मूल आधार श्रीमद्भागवत महापुराण है। भगवद्गीता एवं अन्य कई पुराणों का सार उनके रचनाओं का आधार है। उनके द्वारा सृष्ट कलाविधाओं में भी उनका दार्शनिक प्रभाव स्पष्ट रूप से परिलक्षित होता है।

(लेखिका जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, नई दिल्ली में शोध छात्रा है।)

और पढ़ें : भारतीय संस्कृति और जीवन मूल्यों की शिक्षा के प्रवर्तक – गोस्वामी तुलसीदास

 

3 thoughts on “सामाजिक चेतना के अग्रदूत श्रीमंत शंकरदेव

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *