संत नामदेव महाराज का सामाजिक समरसता पर चिंतन

– पुरुषोत्तम नामदेव

संत प्रसूता महाराष्ट्र की पावन धरती जहां अनेक संतों ने जन्म लिया। पूज्य श्री रामदास स्वामी महाराज ने राष्ट्रीय हित में भक्ति के माध्यम से समाज को एक सूत्र में बाधा, गांव गांव में जाकर बच्चों को संस्कारों का बीजारोपण किया, समाज में एकता की स्थापना की और समाज को आतताइयों से मुक्ति का मार्ग प्रशस्त किया।

वहीं संत ज्ञानदेव महाराज, तुकाराम महाराज, नामदेव जी, गाडसे जी महाराज आदि ने भी समय समय पर समाज में भक्ति की अविरल धारा प्रवाहित की व एकता के माध्यम से उन्नति का अवसर एवं भाईचारे की भावना से समाज को जीना सिखाया।

संत शिरोमणि नामदेव महाराज ने तो महाराष्ट्र में ही नहीं पूरे भारतवर्ष में वारी यात्रा को भक्ति यात्रा एवं सामाजिक समरसता का प्रतीक बना दिया। जहां समाज के सभी वर्ग जाति वर्ण के लोग एक साथ नृत्य कीर्तन वादन भजन करते हुए पंढरपुर में भगवान विट्ठल रखुमाई के दर्शन करने पहुंचते हैं। इन सभी कीर्तन करने वालों को वारकरी कहा जाता है।

संत नामदेव महाराज का जन्म 1270 में महाराष्ट्र सतारा के एक छोटे से गांव नरसी बामणी में हुआ,  जो पवित्र नदी कृष्णा माई के तट पर बसा हुआ है। संत नामदेव जी के पूज्य पिता श्री दामा सेठ थे एवं माता गोनाई थी। इनके पिताजी एवं माता जी भगवान विट्ठल के भक्त थे। भगवान का पूजन नैवेद्य आरती जरूर करते थे। उसके बाद ही भोजन करते थे। बालपन से ही नामदेव जी के मन में अपने माता पिता से भगवान की भक्ति विरासत में मिली थी।

नामदेव महाराज जाति से दर्जी थे। उनके पिताजी कपड़े बेचने एवं सिलाई का काम करते थे, साथ ही कपड़े रंगने का छीपा कारी का कार्य भी करते थे। उस समय दर्जी जाति को निम्न समझा जाता था। सामान्य जाति के लोग नामदेव जी महाराज को कहते थे कि तुम लोग निम्न जाति के हो, यहां तक कि क्रिश्चियन एवं निम्न जाति के लोगों के वस्त्र भी सीते हो, अतः निम्न हो। इससे नामदेव महाराज को बहुत कष्ट होता था, परन्तु वह बहुत ही सरल भाषा में कहते – तो क्या हुआ, सभी मनुष्य है, मेरा विद्ठल मुझे भेद करने नहीं कहता। इसमें ऊंचनीच जैसी भेद के लिए कोई स्थान नहीं है। भगवान की कृपा तो सब पर एक जैसी है।

नामदेव जी के पिता दामा सेठ जाति से दर्जी जरूर थे पर उनका व्यवसाय अच्छा था। अतः नामदेव जी को गांव के लोग सेठ भी बुलाते थे। नामदेव जी महाराज पिताजी के कहने पर कभी कभी कपड़े का व्यवसाय करने में उनकी मदद करते थे, पर उनका हृदय भगवान के चरणों में ही लगा रहता था। सभी से नामदेव जी बड़ा अच्छा व्यवहार करते थे। वे बड़े ही पहुंचे हुए संत थे। कहते है कि उनके द्वारा सरलता से बुलाने पर भगवान कभी भोग प्रसाद ग्रहण करने आते तो कभी भोजन अपने हाथों से खिलाने आते। लोग आश्चर्य करते पर नामदेव जी कहते – सच है उसे मानना ही पड़ेगा। भगवान का ध्यान एवं उन्हें अधिकार और प्रेम से बुलाने पर आएंगे ही, यही भक्ति है।

संत नामदेव जी ने ज्ञाने वर महाराज को अपना गुरु माना और ज्ञान अर्जन किया समाज में भक्ति, ज्ञान और समरसता से कैसे लोगों को एक साथ रखा जा सकता है, इस प्रकार की शिक्षा प्राप्त की। जब ज्ञान देव जी ने समाधि ली तो नामदेवजी महाराज गुरु की पूर्व आज्ञा अनुसार सामाजिक समरसता हेतु भारत भ्रमण पर चले गए। नामदेव जी ने सामाजिक समरसता हेतु अनेक कार्य किए जिसमें से प्रमुख है :

प्रान्त वाद दूर किया।

भाषावाद मिटाया।

जातिवाद दूर किया।

अस्पृश्यता (छुआछूत) की भावना को दूर किया।

सर्वप्रथम नामदेव जी ने प्रांत भेद को दूर किया, उस समय एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाना बहुत कठिन था परन्तु नामदेवजी भ्रमण भील थे और उन्होंने सम्पूर्ण भारत को अपना कार्य स्थल माना। अतः महाराष्ट्र से गुजरात, राजस्थान, पंजाब, सिंध, बिहार, उत्तर प्रदेश आदि कई राज्यों में गए और समाज के सभी वर्गों को लोगों को एकत्रित किया। फिर मधुर कीर्तन के साथ एकता भक्ति का ज्ञान कार्य आरंभ किया। उनकी सरल ज्ञान की बातों से जो लोग प्रभावित होते थे, वह उन्हें स्नेह व सम्मान देते थे। देश के कई राज्यों में उनके मंदिर है। पंजाब में नामदेव महाराज का मंदिर नामदेव गुरुद्वारा के नाम से जाना जाता है। जहां बड़ी श्रद्धा के साथ हिन्दू सिख आज भी दर्शन करने जाते है।

सामाजिक समरसता हेतु नामदेव जी ने भाषावाद समाप्त किया। नामदेव जी जानते थे कि मराठी अभंग केवल महाराष्ट्र में ही समझे जाएंगे। अतः उन्होंने राष्ट्रभाषा हिन्दी एवं पंजाबी में अपने अभंग लिखना एवं गाना प्रारंभ किया, जिसे पंजाबी में भाबद कहा गया। वही वहां के भक्तों को मधुर भक्ति गीत दिए। पंजाब में तो गुरुवाणी में उनके साठ दोहे लिपिबद्ध है। इनके दोहों का भाबद कीर्तन में अपना अलग स्थान है। इससे अच्छा उस समय का सामाजिक समरसता का उदाहरण कोई नहीं हो सकता। जहां भाषावाद को मिटाकर एक संत ने सम्पूर्ण भारत में अपना वाणी के माध्यम से धर्म एवं भक्ति को जन जन तक फैलाया एवं समरसता को स्थापित किया।

तीसरा जातिवाद को दूर किया। संत नामदेव जी महाराज भगवान बिट्ठल के भक्त थे। ये अपना काम कपड़े सिलाई एवं रंगाई का घर गृहस्थी हेतु जरूर करते थे। समाज में कुछ ईर्ष्या करने वाले लोग उनसे ईर्ष्या करते व कहते कि निम्न वर्गों के साथ साथ मुसलमानों के वस्त्र भी सिलते हो, इसलिये तुम निम्न जाति के हो, इस पर नामदेव जी बड़ी सरलता से कहते मेरा काम ही सिलाई रंगाई का है, मेरा कर्तव्य है और मैं गरीब अमीर, हिन्दू मुसलमान, निम्न जाति ऊंची जाति सभी के प्रति अपने कर्तव्य को एक जैसा ही निर्वहन करता हूं। मुसलमान भी वस्त्र पहनता है और ईश्वर की जगह अल्लाह की इबादत करता है। उसे भी भगवान ने अन्य मनुष्य जैसा ही बनाया है। समाज में समरसता होना चाहिए न कि ऊंच-नीच, भेदभाव। इस प्रकार उन्होंने जातिवाद से बड़ा अपना कर्तव्य बताया है। समाज में जातिवाद के कारण बहुत समस्याएं व बाधाएं आती है। अतः इसे दूर करना जरूरी है।

संत नामदेव जी ने छुआछूत को दूर किया। उस समय सम्पूर्ण भारत में छुआछूत की भावना बीमारी की तरफ फैली हुई थी। सम्पूर्ण समाज में उच्च जाति के लोग तथाकथित छोटी जाति से अस्पृश्यता की भावना रखते थे। उनके साथ जाना तो दूर छोटी जाति के लोगों को छूते तक नहीं थे। ऐसे समय में सच्चे संत नामदेव महाराज ने समाज के निम्न से निम्न लोगों को भी अपनी वारकरी मंडली में सम्मिलित किया। उन्हें ज्ञान और भक्ति का मार्ग दिखाया। उन्हें समाज में सर ऊपर रखकर जीना सिखाया और भक्ति में उनके गायन वादन जैसे गुणों को अनुप्रयोग किया।

एक बार की बात है – नामदेव जी अपने वारकरी भक्त मंडली के साथ विट्ठल भगवान के मंदिर के सामने कीर्तन कर रहे थे। जब मंदिर के पुजारी ने देखा तो बोला तुम्हारे जैसे निम्न जाति के लोगों को भगवान के मंदिर के सामने खड़े नहीं रहना चाहिए। इस पर सरल नामदेव जी अपनी मंडली के साथ मंदिर के पिछले हिस्से में जाकर कीर्तन करने लगे। कहते है कि देखते ही देखते मंदिर का द्वार जहां वह कीर्तन कर रहे थे वहां हो गया। इस प्रकार ईश्वर ने भी निश्चल भक्ति का साथ दिया। अब तो पुजारी नामदेव जी के चरणों पर गिरकर बोले – “नाम्या” तू ही सच्चा संत है। तूने ईश्वर को पाया है और सब कीर्तन करने लगे – ‘हरी विठ्ठल हरी पूजा विठ्ठल-विट्ठल-विट्ठल’। इस प्रकार संत नामदेव जी महाराज ने अपना सम्पूर्ण जीवन समाज में समरसता की स्थापना में लगा दिया और अंत में कृष्णा नदी के समीप अपने प्राणों का त्याग किया।

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