संत श्रेष्ठ ज्ञानेश्वर महाराज – 12 अगस्त जयंती विशेष

 – डॉ० आशीष पुराणिक

15 वर्ष का छोटा बालक पैठण धर्मपीठ को नम्रता से प्रश्न करता है, “आपके अन्नमय शरीर से मेरे अन्नमय शरीर को दूर करना चाहते है, या आपके चैतन्य से मेरे चैतन्य को दूर करना चाहते है?” इतनी कम आयु में इतने आध्यात्मिक विचार से प्रश्न करने वाले उस बालक का नाम था संत ज्ञानेश्वर।

13वीं शताब्दी में महाराष्ट्र के अहमदनगर जिले मे एक छोटा गाँव है आपे गाँव, वहाँ के विठ्ठलपंत कुलकर्णी बहुत ही ज्ञानी व्यक्ति, विवाह पश्चात सन्यास और गुरु आज्ञा से फिर से गृहस्थ होने के कारण धर्मपीठ ने उनको समाज बहिष्कृत किया था। रखुमाई और विठ्ठलपंत को 4 संताने हुई – निवृत्तिनाथ, ज्ञानेश्वर, सोपान और मुक्ताई। बहिष्कृत होने के कारण समाज में उन्हे शिक्षा के लिए कहीं स्वीकृति नहीं मिली। चारों ने अपने माता-पिता को गुरु मान कर घर में ही शिक्षा प्राप्त कर ली, यही उनके आत्मिक उन्नति का आधार बना। संत ज्ञानेश्वर ने नाथपंथ की दीक्षा लिए अपने बड़े बंधु निवृत्तिनाथ महाराज को अपना गुरु मान लिया।

अपने पीठ पर योग विद्या से रोटियाँ सेकने के लिए उष्णता निर्माण करना, भैसे के सर पर हाथ रख कर उसके मुह से वेदोच्चारण कराना, अचेतन वस्तु में चेतना निर्माण कर दीवार को चलाना ऐसे कई अद्भुत चमत्कार, संत ज्ञानेश्वर ने गुरु निवृत्तिनाथ की आज्ञा से, आत्मिक शक्ति के परिचय स्वरूप कर दिखाए।

गुरु आज्ञा से ही समाज मार्गदर्शन के लिए ज्ञानेश्वरी ग्रंथ का लेखन अपनी 16 साल की आयु में किया। ज्ञानेश्वरी ग्रंथ अपने आप में परिपूर्ण ग्रंथ है। 18 अध्याय और 9900 काव्य पंक्तियों में भगवद्गीता, जगत का सबसे पहला विवेचन मराठी में है। संत ज्ञानेश्वर की प्रतिभा और ज्ञान का दर्शन, हिन्दू जीवन पद्धति और विचारधारा, सहिष्णुता, प्रेम और भक्तिपूर्ण जीवन धारा  के साथ भारतीय विज्ञान की महान परंपरा का भी दिव्यदर्शन इस ग्रंथ में होता है।

ज्ञानेश्वरी 725 वर्ष पुराने ग्रंथ की केवल 2 पंक्तियाँ उदाहरण में देखे तो उसकी वैज्ञानिक दृष्टि की ऊंचाई समझ आ जाएगी।

“तया उदकाचेनि आवेशे, प्रगटले तेज लखलखीत दिसे,

मग तया विजेमाजी असे, सलील कायी?

अर्थात पानी के आवेश से जो घर्षण उत्पन्न होगा उससे विद्युत निर्माण कर सकते है।

“उदय-अस्ताचे प्रमाणे, जैसे न चालता सूर्याचे चालणे,
तैसे नष्कम्र्यत्व जाणे, कर्मीचि असता”

अर्थात चलने जैसे दिखने वाल सूर्य स्थिर है, और वैसे ही कर्म कर के निष्कर्मत्व का भाव होना आवश्यक है। सूर्य स्थिर है, उसका चलना आभास है यह बात इसमें विदित होती है।

ऐसे कई उदाहरण ज्ञानेश्वरी मे है, जो भारतीय विज्ञान के प्रकाश को मराठी भाषा में लाकर समान्य जनों तक पहुंचाने का प्रयास है। पूरे ज्ञानेश्वरी ग्रन्थ में कृष्णार्जुन संवाद को स्पष्ट करते हुए विज्ञान और अध्यात्म के संयुक्त उदाहरण से प्रेम और भक्तिपूर्ण जीवन पद्धति का दृष्टिकोण, भारतीय वैदिक तत्व का विवेचन स्पष्ट रूप से दिखता है। ज्ञानेश्वरी पूर्ण लिखने के बाद ज्ञानेश्वर जी ने अपने गुरु को आशीर्वाद स्वरूप पसाय दान मांगा, जो प्रसाद-आशीर्वाद विश्वकल्याण की कामना है।

पसायदान का अर्थ कम शब्दों में बताना कठिन कार्य है, क्योंकि पसायदान ये पूरे ज्ञानेश्वरी का सारांश माना जाता है। पसायदान के संक्षिप्त अर्थ से ज्ञानेश्वर महाराज और ज्ञानेश्वरी की किंचित कल्पना आ सकती है।

पसायदान में एक श्लोक है। संत ज्ञानेश्वर महाराज, गुरु को विश्वात्मा कहकर ये ग्रंथ उन्हें अर्पण करते है, ग्रंथरूपी वाकयज्ञ से संतुष्ट हो कर इस पसायदान याने गुरु से आशीर्वाद मांगते है। गुरु को विश्वात्मक रूप में देखने की दृष्टि, ज्ञान ग्रहण की आवश्यक निष्ठा को दर्शाती है।  दुष्ट प्रवृत्ति का नाश हो और सत्कर्म में रुचि बढ़े, दुष्ट व्यक्ति का नहीं प्रवृत्ति का नाश मांगना, सभी प्राणिमात्र में मित्रभाव के निर्माण की कामना करना, यह साहिष्णुता का दर्शन है। पाप रूप अंधकार का नाश हो, सारा विश्व स्वधर्म सूर्य की अनुभूति प्राप्त करे, अर्थात स्वधर्म सूर्य की अनुभूति, कर्तव्य कर्म की प्राथमिकता सभी पाप कर्मों के नाश का कारण होगी, यह भगवद्गीता के कर्मयोग का भक्तिपूर्ण रूप है।

सर्वत्र मंगल की वर्षा होने के लिए ईश्वर निष्ठ संतों की संगत, पूरे जगत में सब सजीवों को मीले, ये कमाना ज्ञानी मनुष्य को प्रकृति के प्रति नम्र बनाकर, ईश्वर और सृष्टी का आदर सिखाने की है। चल कल्पतरु याने सज्जन व्यक्ति के बगीचे बने, जो जड़ और चेतन दोनों की सचेत वृत्ती को जागृत कर, समाज को सज्जन रास्ता दिखाने वाले सागर बने। अर्थात सभी मनुष्य सज्जन कहलाये और ज्ञान के प्रकाश से चराचर सृष्टि प्रकाशमान हो। समाज को प्रकाश दिखने वाले तापहीन सूर्य याने बेदाग चंद्र जैसे सज्जन व्यक्तियों का सहवास और मित्रत्व सभी प्राणीयों को मिले। इस प्रभाव से सर्व सुखी हो कर इस आदीश्वर की सेवा में हर प्राणी नत हो। इस ग्रंथ के पठन, मनन, चिंतन और समझ से दृश्य और अदृश्य लालसा पर विजय प्राप्त करने की क्षमता उत्पन्न हो। इतनी ही ज्ञानसाधन रूपी अर्चना का प्रसाद-दान आप मेरे विश्वात्मक गुरु मुझे दे, तो ज्ञानदेव सुखी हो जाएगा।

पूरे विश्व का कल्याण मांगने वाले योगी ज्ञानेश्वर ने, दुष्ट प्रवृत्ति का नाश, स्वधर्म सूर्य की अनुभूति, सर्व मंगल की कमाना कर, संतो का सहवास सभी प्राणी के लिए मांगा है।

21 साल की आयु में समाधि लेने वाले संत ज्ञानेश्वर महाराज के बाद उनके गुरु संत निवृत्तिनाथ, संत सोपान, और संत मुक्ताई सभी ने जीवित समाधि ली। इस भारत भूमि में ऐसे संत होना, ये इस मातृभू की गौरव और आध्यात्मिक चिंतन की ऊंचाई को स्पष्ट करता है।

(लेखक महाराष्ट्र के प्रख्यात बृहन्महाराष्ट्र कॉलेज ऑफ कॉमर्स, पुणे के उप प्राचार्य एवं कार्य परिषद् सदस्य है।)

और पढ़ें : भारतीय संस्कृति और जीवन मूल्यों की शिक्षा के प्रवर्तक – गोस्वामी तुलसीदास

 

Facebook Comments

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *