सावरकर का साहित्य धर्म – भाग २

                                     ✍ गोपाल माहेश्वरी

sawatantray samar of 1857

सावरकर का सम्पूर्ण लेखन अपने राष्ट्र और समाज की दुर्दशा से विमुक्ति के लिए गहन संवेदना और निवारण के उत्कट संकल्पों का प्रकटीकरण है। उनका न केवल कवि या साहित्यकार के रूप में मात्र बौद्धिक अवदान वरन स्वयं सक्रिय सहभाग भी सावरकर को उस श्रेणी में पंक्तिस्थ करता है जहाँ रामायण काल में वाल्मीकि, महाभारत में व्यास, पृथ्वीराज के साथ चंदवरदाई और शिवछत्रपति के समय भूषण उपस्थित हैं।

1857के स्वातन्त्र्य समर को सही रूप में भारतीय यदि समझ सके तो इस महादुष्कर प्रयत्न के भगीरथ सावरकर ही हैं। वे हम साहित्य साधकों के लिए यह आदर्श सामने रखते हैं कि साहित्य या इतिहास सृजन हेतु कितनी प्रामाणिकता और जीवटता से तथ्य संकलन और कथ्य गठन करना होता है। भारतीयों पर सतत दमन लीला करने वाले अँग्रेजी साम्राज्य की राजधानी में घुस कर, वहाँ के ग्रंथालय के भारतीयों के लिए जहाँ प्रवेश और उन अँग्रेज़ों की लिखित दैनंदिनियों का दर्शन भी असंभव हो वहाँ से तथ्यों की गहन गवेषणा करना कितना कठिन कार्य है हम कल्पना भी कठिनता से ही कर सकते हैं। स्वतंत्र भारत को भी अपने महानायक श्री सुभाषचन्द्र बसु के रहस्यमय अवसान व जीवन संबंधित अभिलेखों, सूत्रों, रहस्यों की नस्तियाँ प्राप्त करने, प्रकट करने में इतने दशक लग गए तो भला अंग्रेजी कदाचार, नृशंस चरित्र के प्रामाणिक संदर्भ जो तत्कालीन न्यायालयों को भी अप्रस्तुत रहे उन्हें उनकी सतर्क सुरक्षित और भारतीयों के लिए कठोर प्रतिबंधमयी व्यवस्था से जुटाना कैसा दुरूह कार्य होगा यह समझना कठिन नहीं होगा। स्वयं प्रवेश न कर सकने की प्रतिबंधनात्मक परिस्थितियों में भी निराश हुए बिना भारत भवन (इंडिया हाऊस) के प्रबंधक की अंग्रेज पत्नी के सहयोग से अभिलेख (दैनंदिनियाँ) जुटाना, लिखना और उसे पौलेण्ड से प्रकाशित कराना, पत्थर के अचार को गलाने से कम कठिन कार्य न था, पर अपने राष्ट्रीय समाज को परतंत्रता के दैन्य से उबारकर क्रांति के लिए सन्नद्ध करने को परमावश्यक ऐसे प्रामाणिक इतिहास को खोजना और लिपिबद्ध करना वह भी शत्रु की नाक के नीचे ऐसा साहित्य सृजन तो तप और समर के समान ही है केवल कलम घिसाई नहीं, न ही कुछ समविषयी पुस्तकों से सामग्री उठाकर एक नवपुस्तक के नाम से वह मिश्रण परोस देने जैसा वर्तमान बहुकृत उपक्रम।

ऐसे ही ‘भारतीय इतिहास के छः स्वर्णिम पृष्ठ’ धूर्त अँग्रेजभक्त बुद्धिजीवियों द्वारा ‘भारतीय बारंबार पराजित होते रहने वाली, अनेक प्रकारेण खंडित, विश्रंखलित प्रजाति है ‘ऐसा दृढ़ विभ्रम निर्माण करने वाले प्रचुर (असत्) साहित्य के विरुद्ध हम भारतीय, ग्रीक-हूण-शक-यवनादि को धूल चटाने वाले विजीगीषु समाज के सैनानी सुवन हैं ऐसा राष्ट्रीय स्वाभिमान जाग्रत करने वाले सच्चे विजयान्वित इतिहास के परिचय का ग्रंथ है। भारतीय इतिहास के योद्धा महानायकों का चरित्र उद्घाटित करने से हम विजेत्री कार्यशक्ति के साधक, उपासक, धारक हैं ऐसा स्वाभिमान निर्माण ही इन रचनाओं का महद्दुद्देश्य है। यही सत्य साहित्य धर्म है। यही शिवेतर क्षति की साधना है और सत्यं शिवं सुंदरम् की स्थापना भी।

आज प्रायः बड़ा साहित्यकार वर्ग सुविधाएँ खोजता है। परिवेश सुरम्यता, सुसज्जित लेखन कक्ष, समृद्ध पुस्तकालय, बढ़िया लेखनी, अच्छे कागज, प्रकाशक की सुनिश्चितता, उससे अर्थप्राप्ति, पुरस्कार-सम्मान सब हो तो साहित्य कर्म की सफलता मानी जाती है। अब सावरकर की परिस्थिति देखें जहाँ परिवेश है अंदमान का जंगली द्वीप काला पानी, कक्ष है छोटी सी अँधेरी सर्वथा सुविधारहित काल कोठरी, पुस्तकालय केवल पूर्वतः मानस संचित जानकारी या जेल में बंदियों द्वारा सावरकर जी की प्रेरणा से ही अपने जन्मदिनों पर परिवारजनों से भेंट में प्राप्त पुस्तकों का संग्रह, लेखनी स्वरूप कोयला, कील, पत्थर, नाखून। कागज कारागार की दीवारें, प्रकाशन तो क्या उस काव्य को बाहर भेजना भी कठिन, अर्थप्राप्ति का तो विचार भी असंभव, पुरस्कार-सम्मान अवश्य मिल सकते थे- कोड़े, बेड़ी, कोल्हू, फाँसी या गोलियाँ। सावरकर फिर भी लिखते हैं छः हजार पंक्तियों का काव्य दीवारों पर नाखूनों से कीलों से कोयले से, लिखा स्वयं याद किया निकट भविष्य में बंदीगृह से छूटकर बाहर जाएँगे ऐसे बंदियों को याद करवाया, उन्होंने स्वदेश आकर लिखा, छपवाया। यहाँ यह भी उल्लेखनीय है कि इस कारावास के समय वे बंदियों को साक्षर भी करते रहे थे वही अक्षर एवं भाषाज्ञान इस समय सहायक सिद्ध हो रहा था। यह है सावरकर का दुस्साध्य तपोमय साहित्यधर्म।

Cellular Jail

साहित्य के हेतु के संदर्भ में आचार्य मम्मट की उक्ति बहुर्चित है ‘काव्यं यशसे अर्थकृते व्यवहारविदे शिवेतर क्षतये …..।’ आचार्य कहते हैं काव्य यशप्राप्ति के लिए है, सावरकर को तो उनके लिए सर्वथा योग्य यशस्विता स्वातन्त्र्योत्तर भारत में भी न मिली फिर पारतन्त्र्यग्रस्त उस काल में तो कल्पनातीत ही थी। जबकि अंग्रेज क्रूर पाशविकता की समस्त सीमाएँ पार कर चुके थे उनके विरुद्ध जागृति लाने वाला साहित्य रचकर कोई कवि काराबद्ध या यममार्ग का ही यश पा सकता था और उसके परिजनों को मिलना था सर्वनाश। मम्मट ने लिखा अर्थकृते, घर लुट जाए, परिवार त्रास भोगे, विश्वविद्यालय से प्राप्त उपाधियाँ तक छीन ली जाए, पास का सब फूँककर या सहयोग जुटाकर साहित्य छपा भी लें तो बिकना तो दूर वितरण भी संशयित हो, प्रतिबंध लगाकर अग्निदेवता को अर्पित हो जाए यही अर्थ प्राप्ति सुनिश्चित हो सकती थी उस साहित्य को। मम्मट ने कहा व्यवहार विदे, कौन इस प्रकार की साहित्यधर्मिता को व्यावहारिक कहेगा, जो घर फूँके आपना चले हमारे साथ। केवल शिवेतर क्षतये की प्राप्ति का उद्देश्य अवश्य दिखाई देता है पर वह भी यहाँ शिवशंकर से नहीं प्रलयंकारी महाकाल से पाना है। और भी कुछ बातें श्री मम्मटाचार्य बताते हैं पर उद्देश्य और प्रभाव की दृष्टि से सावरकर इस साहित्यपरंपरा के रचनाकार ही नहीं हैं। उनकी परंपरा का गोमुख है आदिकवि के काव्य में, जब किशोरवयस् के कुश-लव अवध की गलियों में राम के निर्णय पर ही प्रश्नांकन करते रामायण का काव्य गाते हैं। यद्यपि यहाँ राम एक प्रचण्ड पराक्रमशाली, स्वधर्मी, सात्विक राजा हैं अतः यहाँ महर्षि द्वारा काव्योपदिष्ट सहजग्राह्यता घटित होती है पर अँग्रेज विधर्मी, दुःशील और तामस राजा हैं। कतिपय प्रसंगों में राज्यशासन के विरुद्धाभासी लगने पर भी निःशंक रूप से काव्य करने और कहने की परंपरा वाल्मीकि प्रवर्तित करते हैं। व्यास भी महाभारत में ऐसे प्रसंग उपस्थित करते हैं। आगे युगांतरों के बाद भी इस धारा में, विकृततम, महाभयंकारी परिस्थिति में भी बंकिम और सावरकर की उपस्थिति प्राप्त होती है।

आचार्य मम्मट की अवहेलना नहीं मात्र उनके बताए साहित्य के सामान्यतः दृश्य हेतुओं से इतर भी साहित्यधर्म की कोई शाखा इस राष्ट्र में प्रवर्तित है यह ध्यानाकर्षण ही यहाँ अभीष्ट है।

अनुभूति की कोख से जन्मा साहित्य कल्पनाप्रसूत काव्य से कहीं अधिक प्रभावी और चिरंजीवी होता है। सावरकर के जीवन में राष्ट्रीयता न थी बल्कि राष्ट्रीयता ही उनका जीवन बन चुकी थी। ‘शिवो भूत्वा शिवं यजेत्’ की भाँति राष्ट्र को आत्मा बनाकर राष्ट्रीय साहित्य रचना ही साहित्य सृजन का ध्येय, बनाने वाले सावरकर जैसे साहित्यकार अँगुलियों पर ही गणणीय होंगे। वस्तुतः वे साहित्यकार थे इसलिए एक विषय के रूप में राष्ट्रीयता को अंगीकृत करने वाले न होकर, साहित्य उनके लिए परदास्यता विह्वल रक्तरंजित राष्ट्र के मोक्ष का एक सशक्त साधन है इसलिए वे साहित्यकार बने। केवल मनोरंजन तो साहित्य का हेतु मैथिलीशरण जी जैसे परवर्ती राष्ट्रीयधारा के कवि भी नहीं मानते तब भला सावरकर कैसे मानते? वे तो स्वतंत्रता की देवी को ‘अधम रक्तरंजिते’ अधम शत्रुओं के रक्त से रंजित अर्थात् प्रसन्न होने वाली इस रूप में ध्याते हैं। कौन साहित्यकार न चाहेगा कि उसका रचा साहित्य कालजयिता प्राप्त करे लेकिन ऐसा होता बहुत कम है। सावरकर आजीवन जिन परिस्थितियों में रहे तब साहित्य रचना को क्यों इतना महत्व दिया? ऐसा विचार भी किसी के मन में आ सकता है। वे उत्कट कर्मशील पुरुष थे आत्मा की अमरता अनुभव करते हुए भी किसी भी पल मृत्युदेवता यह शरीर छीन सकते हैं। तब देहरूपी माटी के दीपक के टूटते ही विचार ज्योति भी विसर्जित हो जाएगी पर स्वतंत्रता की वेदी पर राष्ट्रीयता का यह वैचारिक आलोक न मिट जाए इसलिए साहित्य के रूप में उसे संरक्षित करना ही उनकी साहित्य साधना का ध्येय था, अन्यथा उन्हें साहित्यकार कहलाने के लिए रचनाकर्म की अन्तःलालसा थी ही नहीं। सावरकर का साहित्यधर्म इस दृष्टिकोण से भी श्रेष्ठतम है। किसी भी क्षण देह छूट जाए पर कार्य प्रेरणा असंख्य मनों में जाग्रत रहे, अनुष्ठान अनवरत रहे, यही भावना उनको साहित्य सृजन के लिए प्रेरित करती रही।

सावरकर तत्वतः भारतीय हैं। उनकी राष्ट्रीयता भी अध्यात्म अधिष्ठित है और यह उनके साहित्य धर्माचरण में प्रकट भी होता है। ‘मारिया’ जलपोत से बंदीरूप में लंदन से भारत लाते समय फ्रांस के सागरतट के निकट, जहाज के शौचालय की खिड़की से विकट छलांग लगा अँग्रेजी चंगुल से मुक्ति हेतु उद्यमशील सावरकर से जब बाद में पूछा तब उस छलांग द्वारा सागर पार करने को संकल्पित मानस में क्या विचार स्थिर थे? उसे एक गीत में व्यक्त करते हुए उन्होंने कहा –

अनादी मी अनंत मी अवध्य मी मला

मारिल रिपु जगती असा कवण जन्मला

मैं अनादि अनंत अवध्य हूँ संसार मैं कौन शत्रु जन्मा है जो मुझे मार सके। यह श्रीमद्भगवद्गीता के ‘न हन्यते हन्यमाने शरीरे’ और ‘नैनं छिन्दंति शस्त्राणि नैनं दहति पावकः…।’ जैसे आध्यात्मिक तत्वज्ञान का ही प्रतिफलन है। वे आध्यात्मिक हैं पर कर्मविरत नहीं, भावरहित नहीं, अनुरागी हैं पर स्वदेशानुरागी, भावुक हैं तो मातृभू के लिए। ‘सागरा प्राण तलमलला’ जैसी भावुक अभिव्यक्ति तीव्र वेदना किसी किसी परमराष्ट्रीय की ही हो सकती है। अन्यथा घर- परिवार, प्रेमी या प्रेयसी के विरह में रो-रोकर अश्रुभिंजित साहित्यकर्म करने वालों की तो कमी किसी युग में न रही है न होगी।

सावरकर केवल अपना समकाल नहीं लिखते अतीत का गौरव, भविष्य के स्वप्न से जोड़कर, समकाल का उपचार करते हैं। वे त्रिकालचेता साहित्यकार हैं और यह भी उनके साहित्यधर्म का एक अविच्छिन्न पक्ष है।

सावरकर का साहित्यधर्म केवल राष्ट्रीय है और कुछ नहीं। राष्ट्रधर्म ही साहित्यधर्म है, समाज जागरण ही साहित्य का हेतु है। अपने काल की सामाजिकता को पारतंत्र्य की प्राणांतक वेदना को अनुभव करने हेतु मूर्छावस्था से जगाना और पीड़ा निवारण के लिए रुदनमंडल नहीं रौद्रमंडल तैयार करना यह सावरकर का साहित्य हेतु है, धर्म है।

सावरकर का यही साहित्यधर्म आज भी समस्त भारतीय साहित्यकारों को धारणीय है। आज भारतवर्ष अमृतकाल में है ऐसा कहा जाता है पर राष्ट्रनिर्माण का लक्ष्य भी साहित्यधर्म के सावरकरीय पंथ का ही आश्रय ग्रहण कर सफलकाम होगा। हम साहित्यकारों में आंशिकरूप से भी सावरकर का साहित्यधर्म समाहित हो सके तो भारत-भारती परम आनंदित होगी, स्वतंत्रता उत्तम फलवती होगी, भारतीयता की प्राप्ति सार्थक होगी ऐसा मैं मानता हूँ।

(लेखक इंदौर से प्रकाशित ‘देवपुत्र’ बाल मासिक पत्रिका के कार्यकारी संपादक है।)

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