बलिदानी शरिश कुमार

✍ गोपाल माहेश्वरी

रक्त में भीगी हुई वे लाल माटी पर पड़े थे,

उम्र में छोटे सही वे लाल पर्वत से बड़े थे।

जिस समय स्वतंत्रता की अंतिम लड़ाई चल रही थी, भारतीय जनता सुभाष या गाँधी जैसे पक्षों के फेर में नहीं पड़ी थी। सत्य तो इतना है कि हमें स्वतंत्रता लेनी है यह संकल्प दृढ़ से दृढ़तर होता गया और जिसे जहाँ अवसर मिला, जिसे जहाँ से प्रेरणा मिली, वह अपनी पूरी सामर्थ्य से आज़ादी के संकल्प की पूर्ति में जुट गया।

मैं जो घटना आपको बताने जा रहा हूँ उसका बाल नायक शरिश कुमार गुजरात के नगर सूरत का निवासी था। शरिश कुमार, सुभाष चन्द्र बसु से बहुत प्रभावित था। वे उससे कभी मिले तो न थे पर वह उनके कार्यों से बहुत प्रेरित था, उनका भक्त था। यही कारण है कि 18 जनवरी 1931 की उस सुबह बाजार जाते-जाते उसके कदम थम गए जब उसने दीवार पर एक पोस्टर में सुभाष बाबू के गायब हो जाने की सूचना देखी। नेताजी सुभाष चन्द्र बसु सत्तर गुप्तचरों और पुलिस की चौकसी को नाकाम बनाते हुए अपने कक्ष से मानो अन्तर्ध्यान हो गए थे। कब, कैसे? न पुलिस जानती थी न जनता। जितने लोग उतने अनुमान। कोई कहता “पुलिस ने हत्या कर दी और छुपा रही है।” कोई कहता “वे बंगाल का जादू जानते हैं गायब हो गए।” कोई इसे क्रांतिकारियों का पराक्रम मानता तो कोई और कुछ। अफवाहें अनेक, अटकलें कई, अनुमान हजारों पर एक विश्वास अंग्रेज़ों और भारतीयों में समान था “सुभाष चकमा देकर मुक्त हुए हैं अब अंग्रेज़ों की खैर नहीं।”

पन्द्रह वर्ष का शरिश भी अंग्रेज़ों को कैसे छकाएँ, कैसे उन्हें नुकसान पहुँचे, अपनी मित्र-मण्डली के साथ इसी उधेड़बुन में लगा रहता था। एक वर्ष बीता और सुभाष बाबू ने अपनी आवाज़ में बर्लिन रेडियो से सारे देश को अपने जीवित होने की सूचना से रोमांचित कर दिया। घोषणा बिजली के करंट की भाँति देशभर में फैली। भारतीय जनमानस में उत्साह का समुद्र लहरा उठा।

महात्मा गाँधी ने 9 अगस्त, 1942 को ‘अंग्रेज़ों भारत छोड़ो’ और ‘करो या मरो’ की घोषणा कर सारे राष्ट्र को नई चेतना से भर दिया।

अंग्रेज़ों का दमनचक्र और तीव्र व क्रूर हो उठा। सूरत के स्थानीय नेतृत्व को आन्दोलन के समर्थन में जुलूस निकालने के पहले ही पकड़ कर जेल में ठूँस दिया। जनमानस में तनाव था, आक्रोश था, पर बहुतों में गिरफ्तार होने का भय भी था। यह घटना 9 अगस्त की है। उस दिन रविवार था पर शरिश रातभर बैचेन रहा। अगला सूर्योदय होते ही उसने अपने विद्यालय के छात्र-छात्राओं को कक्षाओं का बहिष्कार करने के लिए तैयार कर लिया। विद्यालय में आज मानो देशभक्ति की प्रायोगिक परीक्षा थी और छात्र-छात्राएँ उसे पूरे अंकों से उत्तीर्ण करना चाहते थे।

विद्यालय के द्वार पर शरिश संबोधित कर रहा था “गाँधी जी ने ‘अंग्रेज़ों भारत छोड़ो’ का नारा दिया है। यह करने या मरने का समय है। पुलिस ने हमारे नेताओं को जेल में बन्द कर दिया है पर आन्दोलन नहीं रुकेगा। हम इसे चलाएँगे।”

“हाँ-हाँ, हम इसे चलाएँगे” विशाल छात्र समूह ललकार उठा। प्राणों का मोल देकर भी जुलूस मंगल बाजार से होते हुए मानक चौक तक जाएगा, यह तय हुआ।

हाथों में तख्तियाँ, होठों पर नारे, सीने में देशभक्ति। यह छात्र सेना बढ़ चली तो पहले से सतर्क पुलिस ने मंगल बाजार में ही रोक लिया, “सभी लड़के-लड़कियाँ लौट जाएं नहीं तो गोली चला दी जाएगी।” कप्तान ने चेतावनी दी।

“गोलियों का हमें भय नहीं। हम मानक चौक तक जाकर ही रुकेंगे।” एक छात्रा ने आगे बढ़कर उत्तर दिया मानो बिजली कड़की हो। यह सुनते ही पुलिस ने लाठियाँ भांजनी शुरू कर दीं। छात्र-छात्राएँ पीछे हटने की अपेक्षा बचते हुए मानक चौक की ओर ही भागे। शरिश ने देखा कि पुलिस छात्राओं पर बन्दूकें तान चुकी है, वह वीरतापूर्वक उनके सामने आ डटा, “लड़कियों पर बन्दूक उठाते तुम्हें शर्म नहीं आती।” पुलिस वहाँ नैतिकता का, सभ्यता का पाठ सीखने तो आई न थी। ‘ठाँय-ठाँय’ की गूँज हुई और दो गोलियाँ शरिश का सीना भेद गईं। वह गिरने लगा। हाथ में तिरंगा था पास खड़ी एक छात्रा ने झण्डा थाम लिया। दूसरी ने शरिश को सम्भाला, लेकिन गोली अपना काम कर चुकी थी। शरिश भी मातृभूमि के लिए अपना कर्त्तव्य निर्वाह कर चुका था। उसने आँखें मूँद लीं। उसका बलिदान सफल हुआ क्योंकि छात्र-छात्राओं में आक्रोश की आग जंगल की आग जैसी फैल गयी थी और यही चेतना जगाना, यही आग तेज करना तो हर बलिदानी का उद्देश्य होता है क्योंकि स्वतंत्रता पाने के लिए यह आग जलती रहना आवश्यक है।

(लेखक इंदौर से प्रकाशित ‘देवपुत्र’ बाल मासिक पत्रिका के कार्यकारी संपादक है।)

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