विश्वहित का अनुसंधान यज्ञ

✍ गोपाल माहेश्वरी

उनके सामने मिट्टी की दो मटकियां, एक बड़े से कटोरे जैसे पात्र में बारीक छनी हुई मिट्टी का गाढ़ा घोल और कपड़े की लम्बी लम्बी पट्टियां रखी थीं। वे एक एक पट्टी उठाते मिट्टी के गाढ़े घोल में अच्छी तरह डुबाते और मटकी के चारों ओर लपेटते जाते। एक पट्टी सूखती तब पुनः यही क्रिया दुहराई जाती। एक स्तर सूखने में काफी समय लगता तब तक उनके हाथ खाली नहीं रहते। वे अपनी पत्थर की खरल में कुछ रासायनिक द्रव्य डालते, कुछ जड़ी-बूटियों का रस डालते और घंटों घोटते रहते। उनके छोटे-से कच्चे कमरे में अनेक पुरानी पुस्तकें और हस्तलिखित ग्रंथ रखे होते। वे बीच-बीच में कपड़े में लिपटी हस्तलिखित पोथियां खोलते कुछ पढ़ते, एक कागज पर कुछ लिखते, सोचते फिर कभी-कभी घने जंगल में चले जाते जब लौटते तो हाथों में कुछ जड़ी-बूटियां होतीं।

ये विश्वहित जी हैं। गांव के बाहर एक पूस छप्पर की कुटिया में वर्षों से लोग इन्हें ऐसे ही अपने काम में मग्न देखते रहे हैं। शरीर पर धोती-कुर्ता, कांधे पर एक लाल गमछा, पैरों में साधारण-सी जूतियां, माथे पर चंदन का गोल टीका, गांव में तभी आते जब कुछ आटा-दाल, सामान खरीदना होता। बाकी समय गांव की गतिविधियों से ‘कुछ लेना न देना मगन रहना’ की स्थिति।

गांव के बड़े-बूढ़े बताते हैं इनके पिताजी और दादाजी भी ऐसे ही थे। विश्वहित जी बचपन में काशी पढ़ने गए थे। काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में, विज्ञान के ये छात्र विलक्षण थे, कक्षा की नियमित पढ़ाई के अतिरिक्त इनका घंटों अतिरिक्त समय प्राणि विज्ञान, वनस्पति विज्ञान और रसायन विज्ञान की प्रयोगशालाओं में बीतता था। इनके प्राध्यापक इनकी लगन से इतने प्रसन्न थे कि इन्हें किसी भी प्रयोगशाला में कभी भी जाने की विशेष अनुमति प्राप्त थी। सहपाठी समझते प्रावीण्य सूची में आकर किसी बड़ी बहुराष्ट्रीय कंपनी में नौकरी हेतु ही इनका यह परिश्रम है। लेकिन वे यह नहीं समझ पाते कि यदि ऐसा है तो बजाए अंग्रेजी, रशियन, फ्रेंच की स्पेशल कोचिंग लेने के बजाए ये संस्कृत विभागाध्यक्ष डा.विन्ध्येश्वरी प्रसाद जी के पास क्या सीखने जाते रहते हैं और प्राच्य विद्या विभाग में इन्हें  क्या काम रहता है! एक दिन इस आश्चर्य करने वाले सहपाठी समूह ने विश्वविद्यालय के ग्रंथालय की पुस्तक प्रदाय पंजी (इश्यू रजिस्टर) में देखा तो दंग रह गए, ये विश्वहित नामक सजीव आश्चर्य आधुनिक विज्ञान की कम और न जाने संस्कृत, पालि भाषाओं की न जाने कौन-कौनसी पुस्तकें पढ़ता है जिन्हें पुस्तकालय से वर्षों में कभी-कभार ही किसी ने इश्यू करवाया होगा। यह तो ऋग्वेद और अथर्ववेद तक पढ़ता है! भाई! कन्फ्यूज़ है क्या? अरे! इसे पंडित बनना है या वैज्ञानिक? खैर, कोई क्या सोचता है इससे इन्हें क्या अंतर पड़ना था? वे जानते थे वेदों-शास्त्रों में ज्ञान-विज्ञान के भी कितने गूढ़ रहस्य छुपे हैं, कोई इन्हें उद्घाटित तो करे। हमारा भारत इन्हीं महान ग्रंथों के आधार पर विश्वगुरु रहा है। बहुत से ग्रंथ हमने खो दिए, कुछ हमने भुला दिए, कुछ केवल कर्मकाण्ड के ग्रंथ मान लिए और बड़ी संख्या में विदेशियों ने नष्ट कर दिए या अपने साथ ले गए। फिर भी यह ज्ञान संपदा इतनी अपार थी कि जो बचा है उसका ही हम अनुसंधान करें तो संसार में हमारा राष्ट्र सबसे आगे ही रहेगा। लेकिन यह सब कहने से भाषण प्रभावी बन सकता है राष्ट्र को प्रभावी बनाने हेतु प्रखर प्रतिभाशाली तरुणों-तरुणियों को विदेश भागकर पैसा कमाने का यंत्र बन जाने से बचकर राष्ट्रहित में अनुसंधान करना होगा। जितने अधिक युवान ऐसा करेंगे उतना शीघ्र भारत जग सिरमौर होगा इसमें संशय नहीं।

प्रत्येक आदर्श का आरंभ स्वयं से करना होता है। विश्वहित पढ़ाई पूरी करके गांव लौटे और इस कुटिया में ऐसे समाए कि लोग भूल ही गए कि वे उच्च शिक्षा प्राप्त युवक हैं। पिता-पुत्र प्रायः घने जंगलों में धंसे रहते। विश्वहित की मां बाल्यकाल में ही दिवंगत हो गई थीं। एक बहिन थी। जिसे पिताजी ने अपनी पैतृक भूमि बेचकर ससुराल भेजने का कर्तव्य निर्वाह किया था। कितना रोए थे वे उसे विदा करते हुए। गांव के मुखिया ने उनके कांधे को पकड़कर समझाया था “वैद्य जी! यह दिन तो हर बेटी  के पिता के जीवन में आता ही है, इतना विह्ववल होना आप जैसे ज्ञानी के लिए उचित नहीं।” तभी एक दूसरे वयोवृद्ध ने कहा “अरे भैया! ज्ञानी होने की तो कहो ही मत। बेटी सीता को ससुराल भेजते समय तो महाराज जनक जैसे ज्ञानी भी आंसू न रोक पाए थे।”

खैर, यह तो लोगों की सोच थी पर वैद्य जी के दुखी होने के कारण और भी थे। पहला यह बेटी उनकी रसोई ही नहीं घरेलू रसायनशाला की भी व्यवस्था देखती थी और उसका बड़ा मन था कि वह पिता के अनुसंधान कार्य में आजीवन सहयोगी बनी रहे लेकिन उनकी पत्नी ने मृत्यु शय्या पर उनसे इसे पाल-पोस कर बड़ी करके ससुराल भेज देने का वचन ले लिया था, इसी से वे एक होनहार प्रतिभाशाली कन्या को गृहस्थी के फेर में डालने को विवश हुए। दूसरे इस विवाह में जिस भूमि को उन्हें औने-पौने दाम पर बेचना पड़ा उस पर उनकी औषधि वाटिका थी जिस पर खरीददार ने खरीदने दूसरे ही दिन ट्रैक्टर चलवा दिया था। ट्रैक्टर मानो वैद्य जी की छाती पर चला था।

वैद्य जी अपनी रोग शय्या के मृत्यु शय्या में बदलने के बीच अपना सारा अधूरा अनुसंधान, प्रयोग और निष्कर्ष विश्वहित को समझाकर पुनर्जन्म की आकांक्षा लेकर शांत हो गए। तब से विश्वहित पिता की परंपरा को नवीन विज्ञान और प्राचीन ऋषि परंपरा को युगानुकूल संयोजित करते हुए जुटा है। लोग नहीं जानते वह क्या करता है? पर वह जानता है कि भारतीय ज्ञान परंपरा का पुनर्जीवन कितना महान राष्ट्रीय कर्तव्य है।

तेजी से होते नगरीकरण की कु-छाया ग्रामों से ग्रामत्व छीनती जा रही थी। जिन खेतों पर हरी-भरी फसलें लहलहाती रहती थीं उन्हें पक्की सडकें और कालोनियां चट करती जा रहीं थीं। खेत खा जाओगे तो तुम्हें खिलाएगा कौन? पर यह सोचना कौन चाहता है? शहर गांवों को धक्का मारते उसकी भूमि पर धमकते जा रहे हैं तो गांव जंगलों को जीमते जा रहे हैं। जंगल संघर्ष करते हुए हमेशा हारते जाते हैं और प्रकृति विधवा की भांति सुबकती हुई अपने दुर्भाग्य को कोसती रहती है।

विश्वहित मटकियों पर कपड़मिट्टी करके अंदर गए ही थे कि एक पत्थर सनसनाता हुआ आया और पट् की आवाज के सथ मटकी फोड़ गया। विश्वहित का तीन दिनों का परिश्रम व्यर्थ हुआ। उन्हें एक प्रयोग के लिए डमरू यंत्र लगाना था। एक पर दूसरी मटकी उल्टी रखकर उसमें रासायनिक द्रव्य रखकर कपड़े व मिट्टी की सात परतें चढा़ कर आग पर पकाया जाता है। दोनों मटकियों के मुंह मिलाने पर डमरू जैसी आकृति दिखती है यही डमरू यंत्र कहलाता है।

विश्वहित विवश थे, पुनः तैयारी करना होगी। नई मटकियों पर पहली कपड़मिट्टी चढ़ाकर आज तो बिना खिचड़ी खाए ही खटिया पर लेट गए। सप्ताह भर चाहिए फिर सब तैयारी में, तब तक जिस औषधि के फूलों का रस इसमें मिलाना है उसके फूल झर जाएंगे। ऐसा हुआ तो अगले वर्ष पर बात गई। वे इतना धैर्य भी रख लेंगे पर जिस पड़ाव से वे इस वनस्पति के फूल लाने वाले हैं सुना है वह एक ईंट भट्ठे वाले ने कब्जा ली है। इसका अर्थ स्पष्ट है अब वह बूटी कहीं और खोजना होगी। चिंता के समुद्र में गोते लगाते उनके प्राण छटपटा रहे थे। वे व्याकुलता से विक्षिप्त से हो उठे।

“चांदनी रात है ,अभी देख आता हूँ ईंट भट्ठे के आसपास कुछ पौधे भी बचे होंगे तो उन्हें कहीं और रोप दूं।” वे रात में ही बुदबुदाते हुए निकल पड़े। ‘रात्रि में औषधियों को नहीं सताना चाहिए।‘ पिता की सीख मस्तिष्क में कौंधी, ‘पर मैं सताने नहीं बचाने जा रहा हूँ।’ स्वयं के ही वितर्क ने समाधान किया। औषधि के पौधों को प्रणाम किया, हाथ जोड़े, आंखों में आंसू भरे उनसे प्रार्थना की फिर दस बारह पौधों को जड़ सहित उखाड़कर, जड़ों पर गीली मिट्टी लपेटे कुटिया पर लौटे। रास्ते में कहां कांटे लगे, कहां कपड़े फटे उन्हें ध्यान ही न था वे तो पौधों को मानों सांत्वना दे रहे थे “आप व्याकुल मत हों। जानता हूँ आपको जड़ों से उखाड़ने से आपको बहुत पीड़ा हो रही है। सावधानी रखते हुए भी आपके पत्ते टूटे, टहनियां मुड़ीं, अपार वेदना हुई है, लेकिन दुखी न हों, पिताजी से सीखा वृक्षायुर्वेद का सारा ज्ञान, आपको स्वस्थ बनाने में लगा दूंगा। बस आप मेरी कुटिया में लग जाने की कृपा करना।”

कोई उन्हें ऐसी दशा में देखता तो पागल ही समझता लेकिन इसमें नया कुछ नहीं होता हर वैज्ञानिक को उसके समय के साधारण लोगों ने पागल ही समझा है। लेकिन उन्हें पागल कर देने वाला एक दृश्य और राह देख रहा था। कुटिया से धुंआ उठ रहा था। अंधेरे में आंगन में लाल-पीली लपटें भी दिख रही थीं। पैर स्वत:ही दौड़ पड़े। कुटिया तो सुरक्षित थी पर आंगन में रखे अरणिया कंडों का ढेर जल रहा था। जंगल में गायों का गोबर जब अपने-आप सूख जाता है तो उन्हें अरणिया कंडे कहते हैं। इन्हें हाथों से थेप कर नहीं बनाया जाता। विश्वहित को अपनी परंपरागत भट्टियों मे इनकी आवश्यकता रहती है। जंगल-जंगल भटककर एकत्र यह श्रेष्ठ ईंधन भी किसी ने नष्ट कर दिया। वैज्ञानिक को बाधा और निराशा कभी पराजित नहीं कर सकती। लेकिन वैज्ञानिक भी अंतत: है तो मनुष्य ही, विश्वहित को कठिनाई से नहीं, समय व्यर्थ होने से दुःख हो रहा था।

प्रातः हो चली थी। विश्वहित रात में लायी औषधि के पौधे क्यारी में रोपे। आज उसका मन खिन्न था। वे गांव के हनुमान मंदिर की ओर चल पड़े। आवश्यक औषधियों के आसपास के  पड़ाव उजड़ गए तो दूर से कहीं से भी खोजना तो होगें ही। हनुमान जी तो लंका से द्रोणगिरि तक चले गए थे संजीवनी खोजने, यह ब्रह्मचारी वैज्ञानिक भी चला जाएगा, ऋषियों की विज्ञान परंपरा को संजीवित करने। क्षणिक भावावेग ने उसकी मनःस्थिति को संभाला पर तात्कालिक परिस्थिति का समाधान तो अभी मिला न था। कोई था जो चाहता था उनकी प्रयोगशाला बंद हो जाए इसीलिए दिनों-दिन विघ्न-बाधाएं बढ़ती जा रहीं थीं। एक बहुराष्ट्रीय दवा कंपनी ने गांव की बहुत बड़ी भूमि खरीदी थी और उनकी कुटिया का यह थोड़ा-सा भाग उस भूमि के बीच आ रहा था। किसी लोभ-लालच से टस से मस न होने वाले विश्वहित जी की यह कुटिया प्रयोगशाला आंख की किरकिरी बन चुकी थी।

मंदिर पहुंचे तो वहां श्रीरामचरितमानस का पाठ चल रहा था। बालकाण्ड में विश्वामित्र द्वारा अपने यज्ञ रक्षा हेतु राजा दशरथ से राम-लक्ष्मण की याचना के प्रसंग की चौपाई ‘असुर समूह सतावहिं मोही। मैं जाचन आयहुं नृप तोही।। अनुज समेत देहु रघुनाथा। निसिचर बध मैं होब सनाथा।।’ पढ़ी जा रहीं थीं। आगे की चौपाइयां उन्हें सुनाई ही नहीं पडीं, बार बार ये ही चौपाई मस्तिष्क को घननाने लगीं। वे अज्ञात प्रेरणा से उठे और हनुमान जी को प्रणाम कर बढ़ चले। पुजारी जी से प्रसाद लेने की भी सुधि नहीं रही। उन्हें तो मानस प्रसाद मिल चुका था।

थोड़ी दूर पर एक हरे-भरे वृक्षों से घिरे, साफ स्वच्छ खुले मैदान में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की शाखा लग रही थी। वे धीरे-धीरे चलते रहे। सोचते हुए स्मृतियों के गलियारों में पहुँच गए। बचपन में वे भी तो शाखा आते रहे हैं। फिर जाने कब कैसे पर वे अनियमित होते गए। कई दिनों शाखा न गए तो एक दिन संघचालक जी उनके घर आ गए। उनकी गतिविधियों की जानकारी ली। पिताजी ने बताया कि दिन-रात मेरे साथ प्रयोगों में लगा रहता है तो वे बड़े गर्व से बोले थे “शाबास विश्वहित जी! जीवनभर भारत माता की सेवा में ऐसे ही लगे रहो। भारत की उज्ज्वल ज्ञान-विज्ञान परंपरा को आगे बढ़ाना राष्ट्र की सर्वोच्च आराधना है। यह राष्ट्र को परम वैभव की ओर ले जाने वाला मार्ग ही है।”

मुख्य शिक्षक की आज्ञा से ध्यान टूटा वे भी प्रार्थना के लिए पंक्ति मे लग गए। मुख्य शिक्षक जी से अपनी परिस्थिति बताकर बोले “यदि कोई स्वयंसेवक मेरी सहायता कर सकें।” मुख्य शिक्षक बोले “हमारा काम है शाखा लगाना। आप भी आइए प्रतिदिन, अपनी रक्षा आप कर लेंगे। बाकी स्वयंसेवक भी मित्र बन जाएंगे तो सहायता भी मिलने लगेगी। फिर भी कार्यवाह जी से चर्चा कर लीजिए।” वे लौट आए।

दोपहर को ही कार्यवाह जी ने स्वयं बुलवा भेजा। कोई प्रचारक जी प्रवास पर थे उन्हीं के साथ भोजन पर निमंत्रण था। मन तो नहीं हो रहा था पर विश्वहित जी पहुँच गए। ये पहुंचे तब वे मुख्य शिक्षक जी को कह रहे थे “नित्य शाखा का अपना महत्व है लेकिन शाखा के इतर भी समाज में अनेक कार्य हैं जो संघ कार्य ही हैं।”

भोजन करते-करते विश्वहित जी की समस्या पर विचार हुआ। अगले दिन दो विद्यार्थी स्वयंसेवक राघव और लखन विश्वहित जी के साथ रहने लगे। शाखा की पर्यावरण गतिविधि अब उस क्षेत्र की दुर्लभ वनस्पतियों की संरक्षा में भी सक्रिय हो चुकी थी। दोनों विद्यार्थी प्रतिदिन कुटिया के आंगन में दंडयुद्ध का अभ्यास करते दिखने लगे तो दुष्टों के उत्पात स्वयं समाप्त हो गए। विश्वहित जी अब निश्चिंत भाव से अपने अनुसंधान कार्य में डूबे रहते। देश में भारत की ज्ञान परम्परा की पोषक सरकार थी। विश्वहित जी की कुटिया प्रयोगशाला अब सब प्रकार सुरक्षित थी। आस-पास का वन क्षेत्र दुर्लभ वनस्पतियों के कारण संरक्षित घोषित कर दिया गया। बहुराष्ट्रीय कंपनी बिना फर के बाण से समुद्र पार फैंक दिए गए मारीच जैसी उस क्षेत्र से बाहर जा चुकी थी और ईंट भट्ठे वाला भी गांव के सरपंच की समझाइश पर अब स्वत: ही कहीं और जाने की सोच चुका था। राघव और लखन अब पढ़ाई के साथ-साथ विश्वहित जी से विज्ञान के नए नए प्रयोग भी सीख रहे थे।

(लेखक इंदौर से प्रकाशित ‘देवपुत्र’ बाल मासिक पत्रिका के कार्यकारी संपादक है।)

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