वर्तमान परिस्थिति में भारतीय जीवनदृष्टि की प्रासंगिकता-2

 – वासुदेव प्रजापति

जीवन एक व अखण्ड़ है

भारत की दृष्टि में जीवन एक है, यही एक जीवन जन्मजन्मान्तरों में अखण्ड चलता रहता है। एक जन्म जीवन-मृत्यु के साथ समाप्त नहीं होता, दूसरे जन्म में भी वही रहता है। इसका अर्थ यह हुआ कि एक जन्म का परिणाम दूसरे जन्म पर होता है। हमारा इस जन्म का वर्तमान जीवन पूर्वजन्मों का परिणाम है और इस वर्तमान जीवन के परिणाम स्वरूप आगामी जीवन मिलने वाला है। इस प्रकार यह जीवन यात्रा अखण्ड चलती रहती है। पश्चिम की दृष्टि भिन्न है, वह मृत्यु के साथ ही जीवन भी समाप्त हुआ, ऐसा मानता है। वह जन्मजन्मान्तर में अथवा पुनर्जन्म में विश्वास नहीं करता।

भारत में पुनर्जन्म के साथ ही कर्म, कर्मफल और भाग्य का कर्म सिद्धान्त मान्य है। यह सिद्धान्त बताता है कि हम जो कर्म करते हैं, उसके फल हमें भोगने पड़ते हैं। कुछ कर्मों के फल तत्काल तो कुछ के कुछ समय बाद में भोगने होते हैं। जब तक कर्मफल भोग नहीं लिए जाते तब तक वे संस्कार रूप में चित्त में संचित व संगृहीत रहते है। जो कर्मफल इस जन्म में भोगने शेष रह गये उन्हें अगले जन्म में भोगने पड़ते हैं। इन कर्मों के आधार पर ही पुनर्जन्म होता है। पुनर्जन्म का यह सिद्धान्त भारतीय जीवनदृष्टि का महत्त्वपूर्ण सिद्धान्त है।

पश्चिम इस सिद्धान्त को नहीं मानता। इसको न मानने के कारण वहाँ का व्यक्ति पूरी तरह चार्वाकवादी बना रहता है। चार्वाक का मानना था कि यह मानव देह तो मृत्यु के साथ भस्मीभूत हो जायेगी, अगला जन्म किसने देखा है? अर्थात् पुनर्जन्म कोरी कल्पना है। इसलिए जब तक जीओ सुखपूर्वक जीओ और ऋण लेकर घी पीओ। पाश्चात्य चिंतन में यह सृष्टि केवल मनुष्य के उपभोग के लिए है, ऐसी मूल अवधारणा होने के कारण से भोगपरायणता ही सुख का पर्याय है। भोग जनित सुख ही जीवन का उद्देश्य है। जबकि भारतीय चिन्तन भोग के स्थान पर संयम को प्रमुखता देता है और इसे ही विकास का लक्षण मानता है।

संयम के लिए हमारे शास्त्रों ने यम व नियम दिये हैं। जहाँ यम – अहिंसा,सत्य,अस्तेय,अपरिग्रह व ब्रह्मचर्य समाज धर्म के पालन हेतु हैं, वहीं नियम-शौच, सन्तोष, तप, स्वाध्याय व ईश्वर प्रणिधान व्यक्तिगत जीवन हेतु पालनार्थ हैं। यहाँ व्यक्ति जीवन मात्र भोग के लिए नहीं अपितु यज्ञ के लिए है। यज्ञ से अर्थ है त्याग व सेवा और इनके मूल में है, प्रेम। अर्थात् प्रेमपूर्वक सबके लिए अपना त्याग करते हुए सेवा करना। इसे ही हमारे यहाँ यज्ञमयी जीवनशैली कहा है। इस शैली के संस्कार हमें पीढ़ी दर पीढ़ी मिल रहे है, इसलिए हम अपने जीवन में पवित्रता को प्रमुख स्थान देते हैं।

हमें बताया गया है – “शरीरमाद्यम् खलु धर्मसाधनम्” अर्थात् यह शरीर धर्म पालन का एक प्रमुख साधन है। इस शरीर रूपी साधन को हमें पवित्र बनाये रखना है। पवित्रता का प्रथम चरण है स्वच्छता। आज कोरोना के भय से प्रत्येक व्यक्ति दिन में अनेक बार अपने हाथ धो रहा है, मुँहपट्टी बाँध रहा है, दो व्यक्तियों के मध्य दो गज की दूरी बनाये रखता है। हमारे यहाँ तो पीढ़ियों से यह आचरण दिखाई देता है। हाँ, इतना अन्तर अवश्य आया है कि जो पढ़-लिख कर आधुनिक हो गये हैं, जिन्होंने भारतीय जीवनशैली को पौंगापंथी मानकर तिलांजलि दे दी है, उनका आचरण अवश्य बिगड़ गया है। अन्यथा हमारे यहाँ आज भी गाँव का बिना पढ़ा-लिखा ग्रामीण भी स्वच्छता का पालन करता है। वह बाहर से घर में आते ही पहले अपने जूते बाहर उतारता है, अपने हाथ, पैर और मुँह धोता है, फिर घर में पैर रखता है।

आज का कोरंटाइन व आइसोलेशन हमारी जीवनशैली में प्रारम्भ से ही चला आ रहा है। अमीर हो या गरीब सब अपने घरों को वर्ष में कम से कम एकबार तो अवश्य ही चूने से पुताई करते हैं। कच्चे आँगन व कच्ची दीवारों को गाय के गोबर से लिपते हैं। घर में किसी को चेचक जैसी कोई छूत की बीमारी हो जाती है तो उसे अलग रखा जाता है। सब लोग उससे दो गज की दूरी बनाये रखते हैं, उसके कपड़े-बर्तन अलग रखे जाते हैं। कोई रिश्तेदार बाहर से मिलने के लिए आता है तो उसके लिए दरवाजे के बाहर एक मिट्टी का गोमूत्र से भरा पात्र रखा जाता है, आने वाला उस गोमूत्र में अपने दाहिने पैर का अँगूठा डुबाकर फिर घर में प्रवेश करता है। इसी प्रकार महिलाओं में मासिक धर्म के समय हिन्दु परिवारों में जिन प्रतिबन्धों का पालन करने की प्राचीन काल से जो व्यवस्था चली आ रही है, वह चिकित्सा शास्त्र की दृष्टि से पूर्ण वैज्ञानिक व्यवस्था है।

सूतक का पालन करना

एक और विशेष व्यवस्था भारत में विद्यमान है, जिसे हम “सूतक के नियमों का पालन करना” कहते हैं। विशेष परिस्थितियों में जैसे-घर में जन्म के समय, मृत्यु के समय तथा ग्रहण के समय सूतक लगता है। सूतक लगने का अर्थ है, वह घर अपवित्र हो गया। इसलिए दूसरे लोग उनसे दूरी बनाए रखते हैं, उनके घर का अन्न-जल ग्रहण नहीं करते, घर के लोग पूजा-पाठ नहीं करते। एक निश्चित अवधि के बाद जब यज्ञ-हवन द्वारा घर में शुद्धिकरण कर दिया जाता है,तब जाकर सूतक समाप्त हुआ माना जाता है और उस घर में सामान्य व्यवहार प्रारम्भ होता है। किसी घर में मृत्यु होते ही सूतक लग जाता है। जब तक घर में शव रहता है, तब तक कोई भी काम नहीं होता। अन्त्येष्टि संस्कार में सम्मिलित सभी लोग अन्त्येष्टि कर्म पूर्ण होने के पश्चात वहीं श्मशान में स्नान करके घर आते हैं और घर में आने के बाद फिर से दूसरी बार स्नान करते हैं। बारह दिनों तक उस घरवालों के साथ अन्न-जल का व्यवहार निषेध होता है। तेरहवें दिन यज्ञ-हवन के बाद सूतक समाप्त हुआ माना जाता है।

इसी प्रकार सूर्य व चन्द्र ग्रहण के समय भारत में आदि काल से बने नियमों का पालन होता है। ग्रहण के सूतक काल में लॉक डाउन में रहने का प्रावधान है। लोग घरों में या नदी तालाब के किनारे रहते हैं। सूतक की अवधि में अन्न-जल नहीं लेते केवल प्रभु स्मरण करते हैं। ग्रहण समाप्ति के बाद सूतक समाप्त होने पर स्नानादि कर पवित्र होने पर ही अन्न-जल लेते हैं। ये सब उदाहरण इस बात को सिद्ध करते हैं कि हमारे यहाँ आज के चिकित्सकीय मापदण्ड़ों का पालन सदियों से हो रहा है। इसलिए भारतीय इन मापदण्ड़ों का पालनसहजता के साथ कर लेता है। यही कारण है कि भारत में कोरोना से मरने वालों की संख्या यूरोपीय देशों की तुलना में कम है।                                                                                                                                                                      जीवन में संघर्ष नहीं सहअस्तित्व

भारत की दृष्टि सदैव समग्रता की रही है। जबकि पश्चिम की दृष्टि खंड-खण्ड़ में विचार करने की है। पाश्चात्य दृष्टिकोण में आगे बढ़ने का अर्थ है दूसरों से आगे बढना। दूसरों से आगे बढने के लिए संघर्ष करना पड़ता है। संघर्ष में जो जीतेगा वह आगेबढ़ेगा, यह स्वाभाविक बात है। व्यवहार में संघर्ष हिंसा को जन्म देता है और विनाश की ओर ले जाता है। इसके विपरीत भारत में आगे बढने का अर्थ अपनी सर्व प्रकार की क्षमताओं का विकास कर स्वस्वरूप का बोध करना है। इसलिए हमारे यहाँ संघर्ष, हिंसा व नाश नहीं है, अपितु समन्वय तथा सहअस्तित्व है। समन्वय सद्भाव को जन्म देता है, जो सुख और हित की ओर ले जाता है, साथ ही साथ स्थिरता और चिरंजीविता लाता है।

इस सृष्टि के सारे पदार्थ एकात्मता के सम्बन्ध से परस्पर जुड़े हुए हैं। इस एकात्मता का व्यावहारिक रूप चक्रीयता और परस्पर पूरकता है। सारे पदार्थ गतिशील और परिवर्तनशील है। पदार्थों की गति वृत्तीय है,वे जहाँ से आए हैं वहीं वापस जाते हैं। इस प्रकार वृत्त पूर्ण होता है। सारे पदार्थ जिससे बने हैं, उसी में पुनः विलीन हो जाते हैं। सब एक दूसरे के पोषक बनते हैं, सब एक दूसरे के सहायक हैं।

इस सृष्टि में दिखाई देने वाले या नहीं दिखाई देने वाले अस्तित्वधारी पदार्थों की अपनी स्वतन्त्र सत्ता है। उनके भी जन्म लेने का कोई न कोई प्रयोजन है। इस तत्त्व को स्वीकार करना भारतीय जीवनशैली की विशेषता हैं। इसलिए भारतीय किसी भी जीव की हिंसा करना पाप मानता है। जबकि अन्य देश छोटे-मोटे जीवों की हत्या कर उन्हें खा जाता है। विशेषकर चीन तो कीड़ों-मकोड़ों से लेकर साँप व चमगादड़ों तक को गटक जाता है। अनेक देशों का मानना है कि यह कोरोना विषाणु चीन से ही पूरी दुनिया में चमगादड़ों से फैला है। यदि सभी देश भारतीय जीवनशैली को अपना ले तो न माँस-भक्षण होगा और न कोरोना फैलेगा, न रहेगा बाँस और न बजेगी बाँसुरी!

आओ! “स्व” की ओर लौट चलें

भारत का चिन्तन सदैव वैश्विक रहा है। महर्षि अरविन्द ने भारत की महिमा पर बोलते हुए कहा था कि “ईश्वर प्रत्येक चतुर्युगी में किसी एक देश को माध्यम बनाकर अपनी विश्व कल्याण की योजना को साकार बनाता है। मैं पूर्ण विश्वास के साथ कहता हूँ कि इस चतुर्युगी में वह देश और कोई नहीं भारत ही है।” इसलिए विश्व का कल्याण करना भारत की नियती है। इस युग में यह क्षमता ईश्वर ने भारत को दी है। अतः भारत के लिए यह ईश्वरीय कार्य है और ईश्वरीय कार्य को पूर्ण करना हमारा परम कर्तव्य है।

अतः हमारा प्रथम करणीय कार्य है कि हम सबका जीवन भारतीयशैली के अनुरूप हो। आज हमारे अनेक शिक्षित व आधुनिक भाई-बहन ऐसे हैं, जो पश्चिम की चकाचौंध से प्रभावित हो अपने व्यक्तिगत हित साधने में लगे हैं। उन सबको पुनः भारतीय जीवनदृष्टि से जोड़ना है। फिर दुनिया के सभी देशों को “कृण्वन्तो विश्वमार्यम्” के वैदिक उद्घोष के अनुसार श्रेष्ठ बनाना है। तभी भारतीय जीवनदृष्टि की उपयोगिता एवं श्रेष्ठता सिद्ध होगी। आज विश्व के अधिकांश देश भारतीय जीवन शैली का लोहा मानने लगे है, हमें इसे विश्व व्यापी बनाना है।

दूसरा हमारे लिए करणीय कार्य अपने देश को आत्मनिर्भर बनाना है। यह आत्मनिर्भरता आयेगी स्वदेशी व स्वावलम्बन से। गाँधी जी जी की ग्रामस्वराज की योजना हमारा मार्ग प्रशस्त करेगी। आज विश्व में भारत सबसे युवा देश है। “हर हाथ को काम” यह आदर्श लेकर हमें अपनी युवाशक्ति का यथायोग्य नियोजन भी करना होगा। इस प्रकार सम्पूर्ण विश्व का नेतृत्व करते हुए जब हम चलेंगे तभी “सर्वभूत हितेरताः” वाली भारत की भूमिका साकार होगी। तभी हम सब समवेत स्वर में गा सकेंगे-

विश्व में गूँजे हमारी भारती,जन जन उतारें आरती।

धन्य देश महान, धन्य हिन्दुस्थान!!!

(लेखक शिक्षाविद् है, भारतीय शिक्षा ग्रन्थमाला के सह संपादक है और विद्या भारती संस्कृति शिक्षा संस्थान के सह सचिव है।)

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