वर्तमान परिस्थिति में भारतीय जीवनदृष्टि की प्रासंगिकता-1

  – वासुदेव प्रजापति

आज संपूर्ण विश्व कोरोना महामारी के प्रकोप से त्रस्त है। इस समय सभी देश अपने-अपने देशवासियों को कोरोना विषाणु से बचाने के लिए अनेक उपाय कर रहे हैं। उन उपायों में घर से बाहर न निकलना, दो गज की शारीरिक दूरी बनाए रखना, मुँह पर मास्क (मुँहपट्टी) लगाए रखना तथा बार-बार साबुन से हाथ धोना प्रमुख हैं। फिर भी पूरे विश्व में अब तक तीन लाख से अधिक लोगों को यह कोरोना निगल चुका है।

वर्तमान परिस्थति का परिणाम

इस महामारी में सम्पूर्ण जनजीवन थम चुका है। लॉकडाउन के चलते सभी नगर-ग्राम सूनसान और वीरान हैं। सब प्रकार की दुकानें तथा छोटे-बड़े सभी उद्योग बन्द हैं। किसी भी प्रकार के वाहन नहीं चल रहे हैं। फलत: दुर्घटनाएँ नहीं हो रहीं हैं। इन सबके साथ पर्यावरण प्रदूषण की समस्या भी दूर हो गई है। करोड़ों रुपये खर्च करने के बाद भी गंगा शुद्ध नहीं हो रही थी, अब गंगा-यमुना में पीने योग्य शुद्ध निर्मल जल कलकल-छलछल बह रहा है। फैक्ट्रियों, कल-कारखानों के बन्द होने से धूँआ नहीं रहा, वायु शुद्ध हो गई, परिणाम स्वरूप जालंधर से हिमालय की चोटियाँ साफ दिखाई देने लगीं हैं।

तालाबंदी (लॉकडाउन) के कारण लोग घरों में बन्द हैं, बाहर का खाना नहीं खा पा रहे हैं। जंकफूड़ और फास्टफूड़ न खाने के परिणाम स्वरूप स्वास्थ्य ठीक हो गया है। दिन में बार-बार हाथ धोना, दो गज दूरी बनाए रखने के कारण छोटी-मोटी बीमारियाँ भी नहीं हो रही है। निजी अस्पताल बंद पड़े हैं। कुल मिलाकर व्यक्ति का जीवन बहुत थोड़े संसाधनों में भी बड़ी सरलता से चल रहा है। इसलिए आज का व्यक्ति यह सोचने के लिए मजबूर है कि चकाचोंध वाली लुभावनी व खर्चीली आधुनिक जीवनशैली से तो यह सादा जीवन उच्च विचार वाली भारतीय शैली और उसका आधार भारतीय जीवन दृष्टि अधिक श्रेष्ठ है।

इस विषम परिस्थिति में विश्व की महाशक्तियों की तुलना में भारत की स्थिति अधिक अच्छी है। भारत के पास कम संसाधन होते हुए भी वह इस महामारी से कम प्रताड़ित है। ऐसा इसलिए है कि भारत की प्रजा जिस जीवनशैली केअनुसार अपना जीवन जीती है, वह जीवनशैली ही उसे सुरक्षा प्रदान करती है। भारतीय जीवनशैली ही उसका सुरक्षा कवच बनी है। भारतीयों को इस समय कोरोना प्रतिबंधों में ऐसा कुछ भी नया नहीं करना पड़ा, जिसे वह पहले से न जानता हो अथवा उन्हें करना उसके लिए कठिन हो। जैसे दोनों हाथ जोड़कर नमस्कार करना यूरोपवासियों केलिए कठिन हो सकता है, परन्तु भारतीयों के लिए तो वह अत्यन्त सहज है।

भारतीय जीवनदृष्टि की विशेषताएँ

भारत विश्व का आदि राष्ट्र है। आज के अनेक राष्ट्र जब पशुवत् जीवन जीते थे, तब से इस राष्ट्र में यज्ञमय जीवन जीने वाला एक सुसंस्कृत समाज “कृण्वन्तो विश्वमार्यम्” का जयघोष करता आया है। वह सम्पूर्ण वसुधा को अपना एक परिवार  मानता है। सम्पूर्ण विश्व को इस एकात्म भाव से देखने वाली यह दृष्टि ही भारतीय जीवनदृष्टि है।

इस जगत में अनेक राष्ट्र हैं। जैसे मनुष्य जन्म से ही अपना स्वभाव लेकर इस जगत में आता है, ठीक वैसे ही प्रत्येक राष्ट्र भी अपना-अपना मूल स्वभाव लेकर ही जन्म लेता है। उसका यह स्वभाव अपरिवर्तनीय होता है। इस मूल स्वभाव को हम चिति कहते हैं। यह चिति उस राष्ट्र की आत्मा मानी गई है। जब तक यह चिति बनी रहती है, तब तक वह राष्ट्र भी बना रहता है। परन्तु जब किसी राष्ट्र की चिति तिरोहित हो जाती है तब उस राष्ट्र का भी नाश हो जाता है। इस चिति के अनुरूप ही उस राष्ट्र में प्रजा का आचार-विचार और व्यवहार निर्धारित होता है तथा सभी प्रकार की व्यवस्थाएँ व रचनाएँ विकसित होती है, जिसे हम जीवनशैली कहते हैं। प्रत्येक राष्ट्र की प्रजा इसी जीवनशैली के अनुसार अपना जीवन जीती है। भारतीय जीवनशैली परमात्म तत्त्व को केन्द्र में रखकर आचार-विचार व व्यवहार निर्धारित करती है, इसलिए भारतीय जीवनशैली आत्मवादी जीवनशैली कहलाती है। इसके विपरीत पाश्चात्य जीवनशैली का केन्द्र बिन्दु आत्मतत्त्व न होने के कारण वह अनात्मवादी जीवनशैली कहलाती है। श्रीमद्भगवद्गीता में इसी को दैवी और आसुरी शब्दों से व्यक्त किया गया है। भारतीय जीवनशैली दैवी है,जबकि पाश्चात्य जीवनशैली आसुरी है।

भारत ने जीव, जगत व जगदीश को आत्मदृष्टि से देखा इसलिए यह जीवन शैली दैवी है, जबकि पश्चिम ने इसे जड़दृष्टि से देखा इसलिए वह आसुरी जीवनशैली है। आज के सन्दर्भ में हम कह सकते हैं कि आसुरी का अर्थ है विनाशक और दैवी का अर्थ है उद्धारक। विनाशक अर्थात् त्यागने योग्य और दैवी अर्थात् स्वीकार करने योग्य। आसुरी का त्याग करने के लिए तथा दैवी को अपनाने के लिए प्रत्येक को साधना करनी पड़ती है। आसुरी जीवनशैली छोड़ना और दैवी जीवनशैली अपनाना ही जीवन का विकास है। अत:  भारतीय जीवनशैली अपने आप में अनेक विशेषताओं को लिए हुए हैं, उनमें से कुछ प्रमुख विशेषताओं का हम यहाँ स्मरण करेंगे।

सम्पूर्ण सृष्टि चेतनतत्त्व से बनी है

सृष्टि उत्पत्ति की मान्यता भारत और पश्चिम में भिन्न-भिन्न है। दोनों ही मान्यताएँ एक दूसरे से बिल्कुल विपरीत हैं। भारत मानता है कि सृष्टि की उत्पत्ति चेतन तत्त्व से हुई है। जबकि पश्चिम का मानना है कि सृष्टि जड (भौतिक)तत्त्वों से बनी है।

दूसरी बात यह भी ध्यान रखने योग्य है कि जिस चेतन तत्त्व से यह सृष्टि बनी है, वही चेतन तत्त्व इस सृष्टि के प्रत्येक पदार्थ अर्थात् चर-अचर सबमें समाया हुआ है। इसी सिद्धान्त को हमारे ग्रामीण भाई बड़े ही सरल शब्दों में कह देते हैं कि सृष्टि के कण-कण में भगवान है। इसलिए भारतीय प्रजा सम्पूर्ण सृष्टि के साथ एकात्मता का सम्बन्ध बड़ी सरलता व सहजता से स्थापित कर लेती है,  जबकि पश्चिम के लोग अपनों को छोड़कर अन्यों के साथ कभी एकात्म नहीं हो पाते।

वर्तमान महामारी के समय में भारत ने अपनी इसी एकात्मता का परिचय देते हुए अनेक देशों को दवाइयाँ और अन्य चिकित्सा सामग्री उनके सहयोगार्थ भेजी है। इसी एकात्मता के सिद्धान्त के कारण ही भारत केवल मनुष्यों के साथ ही नहीं अपितु सचराचर के साथ आत्मीय सम्बन्ध बनाकर रखता है और उनको निभाता भी है। यथा- हम छोटे बच्चों को, चन्दामामा, बिल्ली मौसी, चिड़िया रानी, बन्दर भैया, तितली बहना, गोमाता, नदीमाता, वृक्षदेवता, पर्वतदेवता आदि कहकर इन सबका परिचय करवाते हैं और जीवन भर इस सम्बन्ध को निभाते हैं। इस आत्मीयता के कारण ही भारतीय पहली रोटी गाय के लिए निकालता है। पक्षियों को चुग्गा डालता है। मछलियों को आटा खिलाता है। कुत्तों को रोटी देता है। चींटियों को शक्कर डालता है। यहाँ तक तो ठीक है, परन्तु वह तो साँपों को भी दूध पिलाता है। मैं समझता हूँ ये सारे उदाहरण पश्चिमी देशों में नहीं मिलते, क्योंकि पश्चिम में सचराचर के साथ वह आत्मीय सम्बन्ध बना ही नहीं, इसलिए ये सब करना उन्हें अच्छा नहीं लगता, जबकि भारतीय का चींटी से लेकर हाथी तक, वृक्ष-वनस्पति से लेकर नदी-पहाड़ों तक अपनापन जुड़ने के कारण वह बड़ी सहजता से सबका ध्यान रख लेता है। भारत के और पश्चिम के इस व्यवहारगत अन्तर के पीछे मूल कारण दैवी जीवनदृष्टि है और इस जीवनदृष्टि के आधार पर ही भारतीय जीवनशैली टिकी हुई है और इसी जीवनशैली को अपनाकर हम सभी जीव-जन्तुओं की सेवा करते हैं।

मनुष्य को सबके रक्षण-पोषण का दायित्व है

जब परब्रह्म परमात्मा ने इस सृष्टि की रचना की तो पहले उसने पंच महाभूत बनाए, नदी और पहाड़ बनाए, वृक्ष-वनस्पति बनाए, पशु-पक्षी बनाए, कीट-पतंग बनाए फिर भी उसे सन्तुष्टि नहीं हुई। वह जैसा है वैसा उसका प्रतिरूप नहीं बना, इसलिए अन्त में उसने मनुष्य को बनाया। मनुष्य को बनाकर वह प्रसन्न हुआ, क्योंकि मनुष्य उसके जैसा ही बना है। मनुष्य उसकी सर्वश्रेष्ठ कृति है।

मनुष्य को बनाने तक की मान्यता सबकी एक है, परन्तु इसके बाद की मान्यता अलग-अलग है। भारत की मान्यता है कि परमात्मा ने मनुष्य को कहा – देखो इस सृष्टि में तुम सर्वश्रेष्ठ हो, इसलिए शेष सम्पूर्ण सृष्टि के रक्षण व पोषण का दायित्व भी तुम्हारा है। जबकि पश्चिम की मान्यता इसके विपरीत है। उनका मानना यह है कि परमात्मा ने हमें कहा कि तुम इस सृष्टि में सर्वश्रेष्ठ हो इसलिए तुम्हारा अधिकार अन्यों से अधिक है। यह सृष्टि तुम्हारे उपभोग के लिए ही मैंने बनाई है। इसलिए तुम जैसा चाहो वैसा इसका उपभोग करो।

इन दोनों मान्यताओं के कारण भारत में और पश्चिम के आचार-विचार में मूलभूत अन्तर दिखाई देता है। जहाँ भारतीय इस सृष्टि का रक्षण व संवर्धन करता है, वहीं पाश्चात्य इस सृष्टि का मनमाना उपभोग करता है। भारत में इस सृष्टि के प्रति कृतज्ञता का भाव है। क्यों है? क्योंकि हमारा यह मानना है कि मनुष्य जीवन पूर्णतया इस सृष्टि पर निर्भर है। सृष्टि के बिना मनुष्य जीवित नहीं रह सकता। पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु के बिना हम जीवित नहीं रह सकते, बिना आकाश के हम हिलडुल भी नहीं सकते अर्थात् कोई भी क्रिया-कलाप नहीं कर सकते। जिन पर हमारा जीवन निर्भर हैं, वे हमारे लिए पूजनीय हैं। इसलिए हम उन्हें देवता मानते हैं और जल देवता, वायु देवता, अग्नि देवता (सूर्यभगवान), आकाश देवता और धरती माता (पृथ्वी) की हम पूजा करते हैं।

इसके विपरीत पश्चिम पंच महाभूतों को देवता नहीं मानता, उनकी दृष्टि में वे मात्र भौतिक पदार्थ हैं जिन्हें ईश्वर ने उनके उपभोग के लिए बनाया है। यही कारण है कि भारत में पंच महाभूतों से अपनी आवश्यकता से अधिक बिल्कुल नहीं लेना का व्यवहार दिखाई देता है, जबकि पश्चिम में इनका आवश्यकता से भी अधिक उपभोग किया जाता है। सार रूप में कहा जाय तो भारत में प्राकृतिक संसाधनों का दोहन होता है, जबकि पश्चिमी मानसिकता वाले प्रकृति का शोषण करते हैं।

इस शोषण की मानसिकता के फलस्वरूप आज विकास के नाम पर पृथ्वीमाता के गर्भ में से विपुल मात्रा में खनिज निकालकर उसे खोखला कर दिया गया है। पृथ्वी पर खड़े पहाड़ों को काटा जा रहा है। इसी प्रकार वनों की अन्धाधुन्ध कटाई की जा रही है। आने वाली पीढ़ियों के लिए कुछ भी नहीं बचेगा इन्हें इसकी चिंता नहीं है। आधुनिक यान्त्रिक व्यवस्था वायु व जल को प्रदूषित कर रही है। परिणाम स्वरूप पर्यावरण का असन्तुलन हो रहा है। जब पर्यावरण के असन्तुलन की स्थिति बनती है, तब प्रकृति अपना रौद्र रूप दिखाती है और प्राकृतिक आपदाओं की झड़ी लग जाती है। भूकम्प का आना, ज्वालामुखी फटना, हिमस्खलन होना, समुद्र में अम्फान जैसे एक के बाद एक तूफान आना तथा कोरोना जैसी वैश्विक महामारी का फैलना ये सब प्रकृति के शोषण की मानसिकता का ही परिणाम है।

वर्तमान करोना महामारी का कारण भी यही है। हम प्रकृति का विनाश करेंगे तो प्रकृति हमें सजा देगी और हम प्रकृति का रक्षण व संवर्धन करेंगे तो वही प्रकृति हमें वरदान देगी, अर्थात् हमारे जीवन में खुशहाली भर देगी। कोरोना के कारण गत दो माह में प्रकृति का विनाश रुक गया, पर्यावरण का प्रदूषण थम गया तो नदियों का मैला जल निर्मल हो गया। वायु स्वच्छ हो गई तो महानगरों के आकाश में वे ग्रह-नक्षत्र जो कभी दिखाई नहीं देते थे, वे अब साफ दिखाई देते हैं। खनन रुकने से धरा शान्त हो गई तो प्रकृति प्रसन्न हुई और पक्षी चहचहा उठे। वाहन चलने बन्द हुए तो पशु-पक्षी निर्भय विचरने लगे। इन दिनों व्हात्सएप्प पर ऐसे दो वीड़ियो देखने को मिले। एक वीड़ियो में कार सड़क पर दौड़ रही है। कुछ दूर जाते ही चालक गति को धीमी करता है। पीछे बैठे लोग पूछते हैं क्या हुआ? गाड़ी का चालक उत्सुकता के साथ बोल उठता है – वाह! कितना मनमोहक दृश्य है, आप लोग भी देखोगे तो झूम उठोगे। अच्छा! तब तो हमें भी देखने दो, और वे थोड़ा ऊपर उठकर आगे देखते हैं तो प्रसन्न हो जाते हैं। सड़क पर मोरों का झुंड़ है। कुछ मोर इधर-उधर आ जा रहें हैं, और तीन-चार मोर अपने सुन्दर रंग-बिरंगे पंखों को फैलाकर नाँच रहें हैं, तो कुछ मादा मोर नाँचने वाले मोरों के आगे खड़े-खड़े एकटक उन्हें निहार रहे हैं। चालक ने गाड़ी रोक ली है, सभी इस मोहक दृश्य को देखकर प्रफुल्लित हो रहे हैं। दो-तीन लोगों ने इस चिरस्मरणीय दृश्य को अपने मोबाइल में कैद कर लिया है। पर्याप्त समय तक आनन्द लेकर वे फिर धीरे-धीरे आगे बढते हैं। पूरी सड़क मोरें से भरी हुई है, आगे जाने के लिए तनिक भी स्थान नहीं है। चालक तीन-चार बार हॉर्न बजाता है, तब जाकर वे मोर अपने पंख समेट कर धीरे-धीरे जंगल की ओर चले जाते है।

दूसरा वीड़ियो मनमोहक नहीं अपितु थोड़ा डरावना है। इसमें सड़क पर आधिपत्य मोरों का नहीं शेरों का है। पूरी सड़क पर शेरों का राज्य है। दो शेर एक तरफ से दूसरी तरफ जा रहे थे, उधर पाँच-सात शेर निश्चिन्त होकर सड़क पर ही सो रहे थे, तो तीन-चार शेर खड़े-खड़े सड़क पर इधर-उधर देखकर गुर्रा रहे हैं। सड़क के दोनों ओर शेरों से कुछ ही दूरी पर एक-एक कर कारें आकर रुक रहीं हैं। अन्दर बैठे लोग भयभीत होते हुए भी इस दृश्य को फटी आँखों से देखे जा रहे हैं। सभी वाहन चालकों ने कुछ देर तक उनके हटने की प्रतीक्षा की परन्तु जब वे टस से मस होते नहीं दिखे तो सभी वाहन जिधर से आए थे पुन: उसी दिशा में लौटने को विवश हुए।

ऐसे दृश्य सामान्य दिनों में कभी दिखाई नहीं देते, केवल लॉकडाउन में ही यह सम्भव हो पाया। अत: हम सबके चिन्तन का यह बिन्दु होना चाहिए कि जब जब भी मनुष्य प्रकृति का शोषण बन्द करेगा और उसके रक्षण व पोषण में लगेगा तब ही ऐसे दृश्य देखना सम्भव होगा, हमें प्रकृति के रक्षण व पोषण की प्रेरणा केवल भारतीय जीवन दृष्टि देती है, यह हमें सदैव स्मरण रखना होगा।

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