✍ वासुदेव प्रजापति
भारतीय शिक्षा की पुनर्प्रतिष्ठा करने हेतु हमें सभी संभावित क्षेत्रों का गहनता से विचार करना होगा। जब तक हमारा चिन्तन कृति में नहीं उतरता तब तक वह फलदायी नहीं होता। हमारी बुद्धि, मन एवं शरीर अथवा ज्ञान, भावना और क्रिया इन तीनों में जब समानता होती है, तभी उस बात की प्रतिष्ठा होती है। कृति का विचार करते समय हमें अनुकूलता, सरलता व संभावना इन तीनों बिन्दुओं को ध्यान में रखना चाहिए। कृति का प्रारम्भ हमें अपने अधिकार क्षेत्र से करना चाहिए और सरल से कठिन की ओर बढ़ना चाहिए।
हमारा पहला अधिकार क्षेत्र है, अपना व्यक्तिगत जीवन। हमारी सबसे सुलभ शक्ति है बुद्धि की समझ, मन की भावना और शरीर की कृति शीलता। इन तीनों की सहायता से हम यह निश्चित कर सकते हैं कि भारतीय शिक्षा की पुनर्प्रतिष्ठा हेतु हम क्या-क्या कार्य कर सकते हैं।
भोजन एवं वस्त्रादि के सम्बन्ध में
हमें भोजनादि पदार्थों के लिए प्लास्टिक के पात्रों का उपयोग नहीं करना चाहिए। पहनने के लिए सिन्थेटिक वस्त्रों का उपयोग नहीं करना चाहिए। क्योंकि प्लास्टिक व सिन्थेटिक वस्त्र दोनों ही हमारा स्वास्थ्य तो बिगाड़ते ही हैं, साथ में पर्यावरण की हानि करते हैं। इसी प्रकार ऐसा पानी जो यान्त्रिक प्रक्रिया से शुद्ध किया गया हो, उसे नहीं पीना चाहिए। घर में बना भोजन अनिवार्य रूप से करना चाहिए। इसे अव्यावहारिक नहीं मानना चाहिए। घर पर बना भोजन करने से शरीर का स्वास्थ्य, मन के संस्कार व खर्च का अनुपात बना रहता है। घर के भोजन से तात्पर्य केवल अपने घर से नहीं है, जो भोजन पैसे देकर बाजार से लाया हुआ है उस भोजन से है और ऐसा भोजन नहीं करना चाहिए। भोजन से तात्पर्य पकाए हुए भोज्य पदार्थों से हैं, जो बाहर से न खरीदे गए हों। इनके अतिरिक्त फल, सब्जी, चने-मूँगफली या सूखे मेवे आदि से नहीं हैं, ये बाजार से खरीदे जा सकते हैं।
ब्रह्ममुहूर्त में उठना चाहिए। ब्रह्ममुहूर्त में उठने से शरीर, मन व बुद्धि का विकास होता है। स्वास्थ्य की दृष्टि से यह दिन का अत्यधिक श्रेष्ठ व गुणवत्तापूर्ण प्रारम्भ है। सामान्यतया दिन में न सोने का नियम बनाना चाहिए। इस नियम से शरीर से भी अधिक बुद्धि का स्वास्थ्य उत्तम रहता है। यदि रात्रि में जागरण किया हो या शारीरिक रूप से अस्वस्थ हो तो उस स्थिति में दिन में सोने की अनुमति है। स्वस्थ व्यक्ति के लिए भोजन के उपरान्त वामकुक्षी लेने की अर्थात बायीं करवट लेटने की अनुमति है। परन्तु यह ध्यान रखना चाहिए कि वामकुक्षी में निद्रा नहीं आने पाए।
दिन में सूर्योदय के उपरान्त दो घड़ी बीतने पर अल्पाहार, मध्याह्न में बारह बजे से एक घड़ी पूर्व भोजन लेना चाहिए तथा सायंकाल सूर्यास्त से एक घड़ी पूर्व रात्रि भोजन कर लेना चाहिए। यह स्वास्थ्य के लिए सबसे महत्त्वपूर्ण नियम है। एक घड़ी में 24 मिनट होते हैं। सूर्यास्त से तीन घंटे बाद में तो भोजन कभी भी नहीं करना चाहिए। यदि आप करते हैं तो बहुत बड़ी हानि हो सकती है। इससे तो भूखा रहना हितकर है, क्योंकि भूखे रहने से हानि नहीं होती।
समाज सेवा करना
समाज की सेवा करने का कोई एक काम अपनी दिनचर्या का अविभाज्य अंग बनना चाहिए। सेवा से हमारा तात्पर्य है कि जो कार्य बिना किसी स्वार्थ के दूसरों के लिए किया जाता है, वह सेवा कहलाता है। जैसे रात्रि में जल्दी सोना व ब्रह्ममुहूर्त में उठना जितना महत्त्वपूर्ण है, उतना ही महत्त्वपूर्ण सेवा कार्य करना है। आज के समय में यह कार्य निश्चय ही कठिन है, परन्तु सेवा कार्य करने के अगणित लाभ हैं। आप करेंगे तो आपको उसकी प्रत्यक्ष अनुभूति होगी।
अपनी रुचि और क्षमता के अनुसार व्रत, उपवास व जप आदि करना चाहिए। मन की शक्ति बढ़ाने के लिए ये अत्यन्त उपयोगी होते हैं। इनके समान ही मन को वश में करने के अन्य नए उपाय भी खोजने चाहिए। बीमार नहीं होना और दुर्बल नहीं रहना अत्यन्त आवश्यक है। क्योंकि बीमार होने से जीवन में अनेक व्यवधान आते हैं और दुर्बल रहने से अनेक काम हम कर ही नहीं सकते अथवा कार्य के पूरा होने से पहले ही थक जाते हैं और कार्य अधूरा रह जाता है। इसलिए यह आवश्यक हैं कि हम नीरोगी, बलवान तथा सेवाभावी बने रहें। हमें अपने से वयोवृद्ध, कर्तृत्ववृद्ध, अनुभववृद्ध और ज्ञानवृद्ध महानुभावों के प्रति विनयशील होना चाहिए। उनकी सेवा करना और उनके कृपा पात्र बनकर उनसे सीखना, यह कार्य बचपन से ही शुरु हो जाना चाहिए। यदि बालक अपने माता-पिता और शिक्षकों से यह नहीं सीख पाते हैं तो उन्हें इसका बोध होते ही सीखना प्रारम्भ कर देना चाहिए।
अपना जीवनकार्य निश्चित करना
हमें अपना जीवनकार्य निर्धारित करना चाहिए। अर्थार्जन हेतु किया जाने वाला व्यवसाय भी हमारा जीवन कार्य बन सकता है। यदि ऐसे जीवन कार्य के प्रति निष्ठा नहीं रही तो वह जीवन कार्य नहीं कहलाता। भारतीय समाज व्यवस्था में प्रत्येक व्यवसाय को जीवन कार्य का श्रेष्ठ दर्जा प्राप्त था। उस कार्य को परमात्मा की पूजा ही माना जाता था। उससे ही मोक्ष मिलने की संभावना रहती थीं। इसलिए किसी भी कार्य को छोटा या बड़ा नहीं माना जाता था। सन्त रैदास ने जूते बनाने जैसे काम को ही अपना जीवन कार्य बनाकर मोक्ष प्राप्त किया था। भारतीय मनीषा की अध्यात्म निष्ठ व्यवहार बुद्धि का यह विलक्षण उदाहरण है।
हमें अपने देश के खोये हुये वैभव को पुन: प्राप्त करना है। यह वैभव ज्ञान, संस्कार, व्यवहार, व्यवस्था एवं भौतिक समृद्धि का है। यह सारा वैभव सामाजिक स्तर पर ही मिल सकता है, सामाजिकता को अपनाने पर ही प्राप्त हो सकता है। हमारा समाज यह वैभव प्राप्त कर सके इस दृष्टि से व्यक्तिगत स्तर पर हमारा योगदान क्या हो सकता है? इसका विचार करने से जीवन कार्य निश्चित हो सकता है। इसके साथ ही प्रत्यक्ष प्लास्टिक और सिंथेटिक पदार्थों के उत्पादन के व्यवसाय को नहीं अपनाना चाहिए। हम ऐसी अनेक बातों को अपनाकर व्यक्तिगत स्तर पर भी सहभागी बन जाते हैं, जो सामाजिकता को हानि पहुँचाती हैं। समाज हित के विरुद्ध प्रत्येक कार्य से स्वयं को दूर ही रहना चाहिए, ऐसे कार्यों से बचना चाहिए।
हमारा दृष्टिकोण स्वदेशी हो
हमारे दैनिक उपयोग की सभी वस्तुएँ स्वदेशी हो यह आवश्यक है। प्रथम दृष्टि में ये वस्तुएँ स्वदेशी संस्थानों में बनी हुई होनी चाहिए। इतनी बात सरलता से समझ में आने वाली है। परन्तु आगे की बात भी समझने योग्य है कि सभी वस्तुएँ स्वदेशी सिद्धांतों से उत्पादित हों, यह भी आवश्यक है। व्यक्तिगत जीवन में सत्य, अहिंसा, संयम, सदाचार, शुचिता और पवित्रता आदि का होना शिक्षा का अनिवार्य अंग है। इन सबका पालन करने से ही समाज की व्यवस्था, संस्कृति रक्षा और ज्ञान की प्रतिष्ठा का भवन खड़ा रह सकता है।
तप के बिना सिद्धि नहीं मिलती। शारीरिक, वाचिक और मानसिक आदि विविध प्रकार के तपों का उल्लेख श्रीमद्भगवद्गीता में आया है। इन तपों को अपनाना विकास के लिए आवश्यक है। शिष्ट व्यवहार सामाजिकता का विशेष लक्षण है। शिष्ट भाषा, शिष्ट भूषा, शिष्ट देहभाव व शिष्ट मनोरंजन ही शिक्षित मनुष्य में अपेक्षित हैं। स्त्री और पुरुष दोनों को अपने-अपने शील की रक्षा करनी चाहिए। आजकल स्त्रियों पर अपने शील की रक्षा करने का दायित्व तो डाला जाता है, परन्तु पुरुषों पर नहीं। जबकि शील पुरुषों का भी होता है, उन्हें भी अपने शील की रक्षा करनी चाहिए। पुरुष को अपने पुरुषत्व की और स्त्री को अपने स्त्रीत्व की रक्षा करना भी सामाजिक दृष्टि से अत्यन्त आवश्यक है और स्वयं के स्वस्थ जीवन प्रवाह की निरन्तरता के लिए भी आवश्यक है। परन्तु इस बात की घोर उपेक्षा हो रही है, इसलिए इस ओर अधिक ध्यान देना चाहिए।
निर्हेतुक प्रशंसा होनी चाहिए
दूसरों के गुणों की प्रशंसा करने की कला भी आनी चाहिए। परन्तु वह प्रशंसा निर्हेतुक होनी चाहिए अर्थात उसमें किसी भी प्रकार का स्वार्थ नहीं होना चाहिए। स्वार्थ प्रेरित प्रशंसा अनिष्टकारी होती है। इसी प्रकार दूसरों के अवगुणों को जानना भी आवश्यक है। परन्तु उन्हें सबके सामने नहीं बताना चाहिए। उन्हें बताने की आड़ में लाभ उठाना तो घोर पाप करने के समान है।
हमें केवल दुर्बलों, दीनों तथा अनाथों की ही रक्षा नहीं करनी है अपितु सज्जनों व सन्तों की भी रक्षा करनी है। एक की रक्षा दयाभाव से और दूसरे की पूज्य भाव से करनी चाहिए। इस कार्य हेतु सदैव तत्पर रहना हमारा कर्त्तव्य है। गोस्वामी तुलसीदास जी ने कहा है –
परहित सरिस धरम नहीं भाई, परपीड़ा सम नहीं अधमाई।
दूसरों का भला करने जैसा कोई धर्म नहीं है तथा दूसरों को पीड़ा पहुँचाने जैसा कोई पाप नहीं है। हम दूसरों के साथ कैसा व्यवहार करें? उसका यह सार सूत्र है। इस सूत्र को हमारे व्यवहार का आधार बनाकर जीवन जीना चाहिए। अन्य लोग इस सूत्र के अनुसार व्यवहार करे अथवा न करें, हमें तो अवश्य करना चाहिए। अकेले मेरे करने से क्या होगा? इसका विचार न करें। अच्छाई या भलाई करने में भले ही बहुत अल्प मात्रा में हमारा प्रयास हो, महत्त्व इस बात का है कि इसमें हमारा भी योगदान है, जैसा सेतुबंध निर्माण में गिलहरी का योगदान था।
अर्थार्जन हेतु नौकरी न करना
हमारे पुरखों का अनुभव तो यही कहता है कि जीवन में नौकरी नहीं करनी चाहिए। परन्तु किसी मजबूरी के कारण यदि नौकरी करना अनिवार्य हो गया हो तो धीरे-धीरे उस अनिवार्यता को समाप्त करना चाहिए। दूसरी ओर उस नौकरी को सेवा में परिवर्तित करना चाहिए। यद्यपि यह कार्य है तो बहुत कठिन, परन्तु दिशा बिल्कुल सही है। इसलिए इस सही दिशा में आगे बढ़ते रहना चाहिए। यह कार्य है तो व्यक्तिगत किन्तु इसका प्रभाव सार्वत्रिक है। अर्थार्जन हेतु नौकरी न करने का संकल्प यदि शिक्षकों अथवा माता-पिता द्वारा दी गई शिक्षा से नहीं बना है तो जबसे इसका बोध हमें हुआ है, तब से इस संकल्प की ओर आगे बढ़ना चाहिए।
हमें अपने जीवन में निष्ठा, सेवा, श्रद्धा और विश्वास आदि गुण परिश्रम पूर्वक विकसित करने चाहिए। प्रथम तो इन गुणों का उदय हमारे भीतर होगा, उसके बाद हम अपने में दूसरों की निष्ठा व श्रद्धादि जाग्रत कर सकेंगे। किसी व्यक्ति में, विचार में और तत्त्व में निष्ठा, श्रद्धा आदि गुणों का विकास होना चाहिए। ये गुण कितने स्थायी हैं? इसकी परीक्षा भी कर लेनी चाहिए। इसी प्रकार स्वमान, स्वगौरव, स्वाधीनता और स्वतंत्रता का आग्रह भी अवश्य होना चाहिए। यह भी ध्यान में रहना चाहिए कि यदि इनकी समझ सही नहीं रही तो ये विकृतियों में परिवर्तित हो जाते हैं और सामाजिकता का नाश करते हैं।
हमें भारतीय शिक्षा की पुनर्स्थापना करनी है तो हमारा व्यक्तिगत जीवन शिक्षा के आदर्शों के अनुरूप होना आवश्यक है। जब शिक्षा और शिक्षा देने वाले शिक्षक का जीवन दोनों समान स्तर के होंगे तभी परिवर्तन सम्भव होता है। अन्यथा सारे प्रयत्न निष्फल हो जाते हैं। यहाँ कुछ गुणों का विचार हुआ है, शेष गुणों का विचार अगले अंक में करेंगे…
(लेखक शिक्षाविद् है, भारतीय शिक्षा ग्रन्थमाला के सह संपादक है और विद्या भारती संस्कृति शिक्षा संस्थान के सचिव है।)
और पढ़ें : भारतीय शिक्षा – ज्ञान की बात 104 (भारतीय शिक्षा की पुनर्प्रतिष्ठा – अनुसंधान की देशव्यापी योजना)